अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

बुद्धिजीवी मेकर 

आज का दौर मेकों का कम, मेकरों का दौर अधिक है। यही सोच विचार के बाद मैंने सोचा कि कोई मेक वेक फेक होने के बदले बुद्धिजीवी मेकर हो जाऊँ। सच पूछो तो किंग मेकर होने में भी वह मज़ा नहीं जो बुद्धिजीवी मेकर होने में है।

पापी पेट कम सामाजिक रेट के लिए अधिक हर आदमी को ज़िदगी में मेक या मेकर में से किसी एक बनने, होने को चुनना ही पड़ता है। इस चुनाव में आदमी को ज़िंदगी में या तो उल्लू बनाना पड़ता है या फिर उल्लू बनना पड़ता है। 

यहाँ किसी को उल्लू बनने में मज़ा आता है तो किसीको उल्लू बनाने में। कई बार तो आदमी जब औरों को उल्लू बनाते बनाते ख़ुद ही उल्लू बन जाता है तो फिर तो पूछो ही मत कि कितना मज़ा आता है, उल्लू बनने बनाने वाले दोनों को ही। पर उल्लू बनाने में उल्लू बनने से अधिक मज़ा आता है। वे किसीके भले के लिए आँखें मूँद उल्लू जो बन रहे होते हैं। उल्लू समाज का उतना नुकसान नहीं करते जितना नुक़सान उल्लू बनाने वाले समाज का करते हैं। 

 उल्लू बनाना एक कला है तो उल्लू बनना देवकला। अगर समाज में उल्लू बनने वाले न हों तो उल्लू बनाने वालों को मुआ न पूछे। उल्लू बनाने की सारी कलाएँ रह जाएँ उनके शातिर दिमाग में धरीं की धरीं। इसलिए उल्लू बनाने वालों से महत्वपूर्ण उल्ले बनने वाले होते हैं जो उल्लू बनाने वालों को अपनी छाती ख़ुद पीटने के अवसर सुअवसर देते रहते हैं मुस्कुराते हुए, उनके उल्लूपने पर गुनगुनाते हुए। समाज में जो चाहे अनचाहे उल्लू बनने वाले हैं, तभी तो उल्लू बनाने वाले हैं। समाज में जो उल्लू बनने वाले न हों तो उल्लू बनाने वालों का समाज में भला कोई अस्तित्व रह जाएगा? जिस दिन समाज में उल्लू बनने वालों का टोटा पड़ गया, तय मानिए, उस दिन उल्लू बनाने वालों को ख़ुद को ही उल्लू बनाने के सिवाय और दूसरा कोई रास्ता न बचेगा। या फिर मलते रहे उल्लू बनाने के लिए अपने सारे हाथ।

जिस तरह अपने मुहल्ले के दर्जी ने अपनी गिरती सिलाई की दुकान पर बड़ा सा बोर्ड लग रखा है- अँग्रेज़ी आदमी को आदमी से मैन बनाती है तो मैं मैन को जेंटिलमैन! इस बोर्ड के सहारे जैसे उसका मन करता है, इधर-उधर कैंची घुमा, इधर-उधर आड़ी-तिरछी सिलाई मार वह हरेक को जेंटिलमैन बना डालता है कैंची सिलाई के हिसाब से। पैदा होने के बाद मैन से जेंटिलमैन होना कौन नहीं चाहता? यह तो भला हो भगवान का कि उसने  कि गधों के चार टाँगें और एक पूँछ दे रखी है , वरना जो उसके चार टाँगें एक पूंछ न होती तो देश में इन दर्जियों के हाथों एक भी गधा जेंटिलमैन होन से न बचता। फिर ढोता रहता कुम्हार अपनी पीठ पर घड़े मटके, अपनी पीठ पर बैठा हुआ।

जबसे पता चला है कि बुद्धिवाला होने से अधिक मुनाफ़ा बुद्धिजीवी मेकर होने में है, तबसे मैंने भी बुद्धिजीवी मेकर पार्लर खोल लिया है। रात को सोने तक की फ़ुर्सत नहीं। अपने शहर का रत्ती भर दिमाग़वाला तक भी ए क्लास बुद्धिजीवी होने को बेताब! वैसे आज की तारीख़ में गधे से गधा तक अपने को बुद्धिमान दिखना-दिखाना पसंद करता है। इक्कीसवीं सदी है भाई साहब! यहाँ तक आते-आते भी बुद्धिमान न होने के बाद भी जो बुद्धिजीवी न दिखे तो क्या ख़ाक पैदा हुए। बुद्धि न होने के बाद भी बुद्धिजीवी दिखना आज हर एक का सामाजिक हक़ है। 

कुछ भी होने में वह लाभ नहीं जो न होने पर दिखने में है। ज्यों पुलिसवाला होने में वह लाभ नहीं जो पुलिसवाला जैसा दिखने में है। मास्टर जी होने में वह लाभ नहीं जो मास्टरजी जैसा दिखने में हैं। नेताजी होने में वह लाभ नहीं जो नेताजी जैसा दिखने में हैं। त्यों असली बुद्धिजीवी होने में वह लाभ नहीं जो  बुद्धिजीवी जैसा दिखने में है। भीतर से आज जो असल के बुद्धिजीवी हैं, बाहर से वे क़तई भी बुद्धिजीवी नहीं लगते। और जो अंदर से बुद्धिजीवी नहीं हैं, वे बाहर से एक सौ दस प्रतिशत बुद्धिजीवी दिखते हैं।

मैं किसी बुद्धिहीन को भीतर से बुद्धिजीवी तो नहीं बना सकता पर बाहर से उसे बुद्धिजीवी दिखाने बनाने का पूरा हुनर रखता हूँ। हुनर भी ऐसा कि उसके आगे असली बुद्धिजीवी तक शरमा जाए। इसे ही सच्चा हुनर कहते हैं भाई साहब! 

जिनके पास बुद्धि की बू भी नहीं, वे कल मदमाते, खिसियाते, बलखाते, इतराते, बुद्धियाते बुद्धिजीवी बनने के इरादे से मेरे पास आए। आते ही बोले, "बुद्धिजीवी मीट है। मैं केवल बुद्धिजीवी दिखना चाहता हूँ बॉस! वह भी फुली।"

"फुली बोले तो??”

"सिर से पाँव तक। इस बाजू से उस बाजू तक। ज़रा बताना तो कि मेरे चेहरे के हिसाब से बुद्धिजीवी का कौन सा मास्क मेरे चेहरे से मैच करेगा?” उन्होंने पूछा तो मैंने उनकी डिमांड, फ़िगर, फ़ीचर के हिसाब से एक के बाद एक इंपोर्टिड बुद्धिजीवी मुखौटे उन पर हवा में फ़िट करते कहा,  “हो जाएगा मालिक! जब तक मैं ज़िंदा हूँ डर काहे का! तुम्हें ऐसी बुद्धिजीवियाना शेप दूँगा कि माँ सरस्वती तक दंग रह जाएँगी कि ये बुद्धिजीवी आया तो आया कहाँ से?” मैंने कहा तो वे अति प्रसन्न।  

 .....और मैं उन्हें बुद्धिजीवी बनाने वाली कुर्सी पर बिठा उनको सुपर-डुपर बुद्धिजीवी की शेप देने में जुट गया। सबसे पहले मैंने बाज़ार के पहले सिद्धांत के अनुसार उनकी आँखों पर ज्यों ही उनके दिमाग़ के हिसाब से बड़े नंबर का चश्मा लगाया तो वे बोले, "मेरी तो दोनों नज़रें ठीक हैं बॉस!  फिर ये चश्मा क्यों?”

"समझो, इसे लगाते ही सेवंटी फ़ाइव परसेंट बुद्धिजीवी हो गए। आज के बुद्धिजीवी की पक्की निशानी है ये चश्मा। इसे लगाने से सच्ची के समझदार लोग तक यही समझते हैं कि बंदा चौबीसों घंटे बुद्धि की घास की तलाश में है। इसे लगाते ही गधा भी पचहत्तर प्रतिशत तक का ख़ालिस बुद्धिजीवी नज़र आता है।"

"पर मैं तो आदमी हूँ,” सवाल खड़ा कर वे कुर्सी पर बैठे हुए ही बिदकने लगे तो मैंने कहा, "झूठ! कहाँ हो आदमी? किधर से हो आदमी? फटी कुर्सी तक पर बैठने की रत्ती भर तमीज़ नहीं और अपने को आदमी कहते हो?” तो वे शरमाते दुबके-दुबके ही आदमी होने की नाकाम कोशिश में जुटे।

उनकी आँखों पर चश्मा लगाने के बाद वे बोले, "यार! मुझे कुछ दिख नहीं रहा।” 

तो मैंने कहा, "यह देखने के लिए नहीं, दिखाने के लिए है ताकि तुम... अब देखो सामने के शीशे में,” मैंने कहा तो पता नहीं उन्हें शीशे में चश्मे में से कुछ दिखा कि नहीं, पर उनके चेहरे पर संतोष दिखा तो मुझे लगा चश्मा उनकी बुद्धि को सूट कर गया। अच्छा लगा यह देख कर कि अबके भी अपना चश्मा काम कर गया। 

"अब??”

"अब चेहरे का मेकअप करता हूँ।"

"मतलब??”

"बुद्धिजीवी का ऐसा चेहरा मरते हुए भी नहीं होता। दिमाग़ से न सही तो न सही , पर उसके पास हरदम एक अदद सोचता रहता दिखने वाला चेहरा होना चाहिए,” और मैंने उनके चेहरे को बुद्धिजीवियाना टच देते उनके चेहरे पर कभी ये तो कभी वो मलना शुरू किया तो वे पूछे, "गुरू! ये क्या?”

"वैदिक काल की जड़ी-बूटियों का लेप है। ये चेहरे पर से बुद्धिहीनता की मरी चमड़ी  को देखते ही देखते निकाल फेंकता है। इसके बाद बुद्धिवाला चेहरा यों निकल आता है कि...”

"उस वक़्त भी गधे होते थे?” फिर अपने वाला सवाल!

"गधे तो हर युग, हर काल में होते रहे हैं मित्र!” मैंने कहा तो वे ज़रा से सकुचाए। अब आगे उनकी कोई बात करने पूछने की हिम्मत नहीं हुई। हो सकता है ये उसी प्राकृतिक कम रासायनिक लेप का असर हो।  

 ...जब मुझे लगा कि उनका चेहरा पूरी तरह बुद्धिजीवियाना हो गया है तो मैंने उनकी आँखों पर से उनका चश्मा हटाकर उन्हें शीशे में उनका बदला चेहरा दिखाया तो वे दंग, "बाप रे! बुद्धिजीवियाना चेहरा ऐसा होता है?”

"हाँ तो, क्यों? मैंने तो इससे भी ख़तरनाक बुद्धिजीवियाना चेहरे बनाकर समाज को समर्पित किए हैं। चौंक गए क्या? पहली बार बुद्धिजीवियाना चेहरा देख रहे हो न?”
"हाँ! वाह रे मेरे बाप! तुम तो सच्ची के बुद्धिजीवी मेकर हो। ग़लती से सरकार में आ गया तो तुम्हारी क़सम, तुम्हें छद्मश्री न दिलवाया तो मेरा नाम भी…,"कह वे फिर कुर्सी पर बिदकने को हुए ही कि मैंने उन्हें उनको उनके बुद्धिजीवी होने का अहसास दिलाया तो वे जरा नार्मल हुए। 

"लो! बन गए बुद्धिजीवी! वह भी ए क्लास के! अब थोड़ा सा कपड़े झल्लों वाले पहनना, जब कहीं अपने को बुद्धिजीवी दिखाने जाना हो। और हाँ... ये चेहरे की एक्सरसाइज़ सुबह उठते ही ज़रूर करना ताकि चेहरा बुद्धिजीवियों सा बना रहे। लोगों के बीच हँसने का अवसर आने पर भी हँसना मत, वरना ढोल की पोल खुलते देर न लगेगी।"

"क्यों?”

"बुद्धिजीवी हँसा नहीं करते। हँसने वालों से कुढ़ा करते हैं,” ...अपने को बुद्धिजीवी दिखाने के लिए उन्होंने मेरी हिदायतें नोट कीं और दिखावे के बुद्धिजीवियों के समाज में दबे पाँव प्रवेश किए तो मुझे एकबार फिर भीतर ही भीतर महसूस हुआ ज्यों सृष्टि का रचयिता एकबार फिर मुझसे सौ क़दम पीछे रह गया हो।  

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'हैप्पी बर्थ डे'
|

"बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का …

60 साल का नौजवान
|

रामावतर और मैं लगभग एक ही उम्र के थे। मैंने…

 (ब)जट : यमला पगला दीवाना
|

प्रतिवर्ष संसद में आम बजट पेश किया जाता…

 एनजीओ का शौक़
|

इस समय दीन-दुनिया में एक शौक़ चल रहा है,…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

कविता

पुस्तक समीक्षा

कहानी

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं