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बुरा देखो, बुरा सुनो और बुरा बोलो

बापू साधना में लीन थे। तभी ‘धप्प’, ‘धप्प’, ‘धप्प’ कुछ गिरने की आवाज़ें सुन उन्होंने आँखें खोलीं। सामने उनके तीनों बंदर लस्प-पस्त हालत में पड़े थे। उन्हें देख बापू चौंक पड़े, "अरे, तुम लोग यहाँ कैसे और तुम्हारी यह हालत किसने की?

"मत दो, बापू, मत दो," एक बंदर बापू के पैर थाम गिड़गिड़ा उठा।

"क्या मत दूँ? " बापू हड़बड़ा कर खड़े हो गये। उनकी समझ में ही नहीं आया कि वह बंदर क्या माँग रहा है।

"बापू, मत दे दो, मत दे दो," तभी दूसरा बंदर भी बापू के चरणों में लोट गया।

"ये तुम लागों ने क्या उल्टा-पुल्टा लगा रखा है? एक कह रहा है ‘मत दो’ और दूसरा कह रहा है ‘दे दो’," बापू ने स्नेह से डपटा।

"बापू, आप समझे नहीं," तभी तीसरा बंदर भी उनके चरणों में गिर कर बिलख पड़ा, "आपने हमें सिखलाया था कि बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो और बुरा मत बोलो।"

"तो क्या मैंने कोई ग़लत सीख दी थी?" बापू ने गहरी साँस भरी फिर दर्द भरे स्वर में बोले, "वैसे भी आज कल किसी को मेरी कोई सीख याद नहीं रही। अब तुम लोग भी मेरी मेरी सीख को नकारने आ गये?"

"नहीं बापू, ऐसा नहीं है। हम लोग तो आपकी आज्ञा का पालन कर रहे थे लेकिन एक दिन कुछ लोग आये। वे आपके चरखे का बुना वस्त्र पहने थे। बिल्कुल देवदूत से लग रहे थे। उन्होंने कहा कि अपना ‘मत’ हमें दे दो," पहले बंदर ने हिचकियाँ भरते हुये कहा।

"उन्होंने समझाया कि ‘मत-दान’ सबसे बड़ा दान होता है। इससे देश का विकास होता है। ‘देश का विकास’ तो आपका भी सपना था इसलिये हम लोग उनके बहकावे में आ गये," दूसरे बंदर ने रुँधे स्वर में बताया।

"बापू, मैंने इन दोनों को बहुत समझाया कि अपना ‘मत’, मत दान करो। लेकिन ये नहीं माने। इन्होंने अपने ‘मत’ के साथ-साथ हमारे ‘मत’ का भी दान करवा दिया। ‘मत’ चले जाने के बाद हमारे पास केवल ‘बुरा देखो’, ’बुरा सुनो’ और ’बुरा बोलो’ बचा है। तब से 68 साल बीत गये हैं बुरा देखते, बुरा सुनते और बुरा बोलते-बोलते हमारी हालत ख़राब हो गयी है। लेकिन अब और बर्दाश्त नहीं होता है। हमें हमारा ‘मत’ वापस दिलवा दीजये," बताते-बताते तीसरे बंदर का चेहरा आँसुओं से तर हो गया।

"हे राम, जहाँ मैंने ‘राम-राज्य’ की कल्पना की थी वहाँ मनुष्य ‘मतदान’ के लिये सारी मर्यादायें भंग कर देता है यह तो मैंने सुना था लेकिन वे मेरे बंदरों का भी यह हाल करेंगे यह मैने कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा था," बापू चीत्कार कर उठे।

"वत्स, तुमने हमें पुकारा? क्या बात है?" तभी मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम वहाँ प्रकट हो गये।

"प्रभु, आप तो अंर्तयामी हैं। सब कुछ जानते हैं। मेरे बंदरों को उनका ‘मत’ वापस दिलवा दीजये," बापू ने हाथ जोड़ कर अपने आराध्य से प्रार्थना की।

"यह नहीं हो सकता," भगवान श्री राम का चेहरा गंभीर हो उठा।

"क्यूँ नहीं हो सकता प्रभु?"

"क्योंकि मैं अंर्तयामी हूँ। सब कुछ जानता हूँ।" भगवान श्री राम की गंभीर वाणी गूँजी, "आज कल ‘मत’ ख़रीदे जाते हैं, ‘मत’ लूटे जाते हैं और साम-दाम-दंड-भेद से ‘मत’ का प्रबंधन किया जाता है। मत भूलो कि तुम्हारा देश एक ‘धर्म-निरपेक्ष’ देश है। वहाँ भिन्न-भिन्न ‘मत’ के लोग रहते हैं। अगर हमने किसी को ‘मत’ दिलवाया तो दूसरे ‘मत’ के लोग ख़िलाफ़ हो जायेंगे। इसलिये मुझे इस ‘मत’ के पचड़े में ‘मत’ डालो।"

"लेकिन प्रभु, बंदरों ने आपकी भी तो बहुत सेवा की थी। इनके सर्मथन से ही आपकी नैया पार हुई थी। इनके बारे में कुछ तो सोचिये," बापू ने विनती की।

"ठीक कहते हो। समर्थन की क़ीमत तो चुकानी ही पड़ती है," भगवान श्री राम ने आँखें बंद करके कुछ सोचा फिर बोले, "मैं मर्यादा पुरुषोत्तम हूँ। अगर मैं किसी को ‘मत’ दूँगा तो मेरी निरपेक्षता की मर्यादा भंग होगी। इसलिये मैं इन बंदरों के कई जोड़े बना कर हर ‘मत’ वाले के पास भेज देता हूँ। कोई न कोई इन्हें ‘मत’ दे ही देगा।"

"जैसी प्रभु की इच्छा," बापू ने हाथ जोड़ कर आदेश स्वीकार कर लिया।

अगले ही पल भगवान श्री राम अंतर्ध्यान हो गये और बंदरों की जोड़ियाँ हर ‘मत’ वालों के पास पहुँच गईं। तब से हर बीतते साल के साथ हर ‘मत’ में बंदरों की संख्या दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती जा रही है। वे अपना ‘मत’ पाने का हर संभव प्रयास करते हैं लेकिन शायद अभी तक उन्हें उनका  ‘मत’ नहीं मिल पाया है। इसीलिये वे सिर्फ़ और सिर्फ़ बुरा देखते हैं, बुरा सुनते हैं और बुरा बोलते हैं। उधर परेशान आम आदमी यह नहीं समझ पा रहा है कि हर ‘मत’ वाले, बंदरों वाली हरकतें क्यूँ करते हैं।

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