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कैनेडा में सप्ताहांत की संस्कृति

प्रिय मित्रो,

इस बार साहित्य कुंज के प्रकाशन में एक बार फिर देर हो गयी। फरवरी माह के पहले अंक के बाद मार्च का मध्य होने को आया है और अब अंक प्रकाशित करने की तैयारी अंतिम चरण में है। कल सोच रहा था कि जब साहित्य कुंज आरम्भ किया था तो इसे हर सप्ताह प्रकाशित करता था। उस समय अधिकतर रचनाओं को स्वयं मैं ही टाईप भी करता था क्योंकि इंटरनेट पर हिन्दी प्रचलित नहीं थी – कुछ गिने-चुने जालघर (वेबसाईट्स) थे। बोलो जी (अब हिन्दी नेस्ट.कॉम), अनुभूति-अभिव्यक्ति, वगार्थ ही याद आते हैं। साहित्य कुंज के साथ उन दिनों मैं हिन्दी चेतना के संपादन और प्रकाशन में भी सहायता कर रहा था। व्यक्तिगत तौर पर जीवनयापन का उद्यम अलग। अब कहने को सेवानिवृत्त हूँ – हिन्दी चेतना को छोड़े भी एक अर्सा हो चुका है, हिन्दी टाईम्स का संपादन छोड़े एक वर्ष बीत चुका है तो फिर यह देरी क्यों? 

पिछले सप्ताह यानी सात मार्च को हिन्दी राइटर्स गिल्ड ने होली उत्सव मनाया था। यह दिन हम लोग बच्चों के लिए रखते हैं। विदेशों में सप्ताहांत की संस्कृति है हम भारतीयों के लिए। यानी कोई भी तीज-त्योहार तिथि अनुसार न मना कर सप्ताहांत को मनाया जाता है। हाँ, घर में या मंदिर में जाकर शकुन तो कर लिया जाता है परन्तु कोई अकेले होली कैसे खेले? मार्च में बाहर बर्फ़ के ढेरों और शरीर को सालती हवाओं में फाग भी ठिठुर कर उड़ता नहीं है! पिछले कुछ वर्षों से टोरोंटो के पास ओकविल का वैष्णो देवी मंदिर हिन्दी राइटर्स गिल्ड को होली का उत्सव मनाने के लिए आमंत्रित कर रहा है। हम उनके लिए आभारी हैं क्योंकि हिन्दी लेखकों को कुछ भी निःशुल्क मिल जाए – नतमस्तक हो जाते हैं। यह दिवस हम लोगों ने बच्चों के लिए रख छोड़ा है। इस दिन मंच बच्चों को दिया जाता है और उनके सांस्कृतिक कार्यक्रम में उन्हें प्रोत्साहित किया जाता है कि वह बॉलीवुड की संस्कृति से दूर रहें। स्थानीय संगीत सिखाने की अकादमियों को यह बहुत भाता है क्योंकि बच्चों को कौन मंच देता है अपनी शास्त्रीय संगीत गायन या वादन की कला को प्रदर्शित करने के लिए। इस वर्ष का कार्यक्रम भी इसी दृष्टिकोण से बहुत सफल रहा। अगले अंक में चित्रों सहित इसकी रिपोर्ट अवश्य पढ़ें।

इस कार्यक्रम के बाद मन में एक और विचार उठा। विदेशों में कम से कम कैनेडा में तो हिन्दी दिवस मनाने के लिए हम भारतीय कांउसलावास के नेतृत्व की आशा रखते रहे हैं। होली उत्सव की भीड़ को देखते हुए प्रश्न उठा कि विदेशों में हमारी पीढ़ी के बाद हिन्दी का क्या भविष्य है? अगर बच्चों के सांस्कृतिक कार्यक्रम में मार्च की सर्दी में २०० से अधिक लोग इकट्ठे हो सकते हैं तो बच्चों के हिन्दी कार्यक्रम के लिए क्यों नहीं? बच्चों को हिन्दी पढ़ाने की की संस्थाएँ तो हैं ही। क्यों न बच्चों को हिन्दी की रचनाएँ प्रस्तुत करने के लिए मंच प्रदान किया जाए?

पिछले दिनों एक और महत्वपूर्ण कदम उठाया गया। हिन्दी राइटर्स गिल्ड, जिसका मैं संस्थापक निदेशक भी हूँ, ने निर्णय लिया कि पूर्वा : कैनेडा के नाम से एक पीडीएफ़ पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ हो। पत्रिका पर काम भी आरम्भ हो चुका है। पुस्तक बाज़ार भी अपनी गति से विकसित हो ही रहा है।

साहित्य कुंज प्रकाशित होने में इस बार फिर देर हो गयी। क्यों – समझने का प्रयास कर रहा हूँ! 

– सादर
सुमन कुमार घई

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