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चाहत का प्रतिदान

“क्या नहीं किया इसके लिए...” सुनकर उसके दिमाग़ की धमनियाँ तड़कने लगीं। ऐसा एहसास हुआ मानों अभी फट पड़ेंगी और धमनियों में प्रवाहित रक्त से वह सराबोर हो जाएगा। 

सुबह का वह वाक्य भी उसे स्मरण हो आया जब दीदी ने कहा था- “जब सुभाष को पैसे दिए थे तब कह रहा था कि दो महीने में वापस कर दूँगा, लेकिन सनकता ही नहीं... दो साल बीत गये।” इस तरह बीते समय में दीदी द्वारा बार-बार कहे गये व्यंग्यात्मक वाक्य उसके ज़ेहन में दर्द पैदा करने लगे। वह सोचने पर मजबूर हुआ कि दीदी के संबंध में जो दूसरे कहते थे, शायद वह ग़लत नहीं था। अभी तक वह इस ख़ुशफ़हमी में था कि उसकी दीदी उसे बेटे की तरह मानती है।  

किसने कहा था उससे यह ख़ुशफ़हमी पालने के लिए, दीदी ने तो कदापि नहीं। उसे स्मरण रखना चाहिए था वह प्रकरण जब दीदी का छोटा बेटा बीमार पड़ा था। राजीव नाम था उसका। पता नहीं क्यों, एक अलौकिक स्नेह था उस बच्चे से उसे। मात्र साढ़े चार वर्ष की अल्पायु में ही उसने इस स्वार्थी संसार को छोड़ दिया था। किसी झोलाछाप डॉक्टर के इलाज ने उसे दौरे की अनचाही बीमारी उसे दे दी थी। अचानक वह कुछ मिनटों के लिए अकड़ जाता था। एक दिन रात्रि में वह अकड़ गया। शहर के अस्पताल में डॉक्टर ने बताया कि बच्चा कोमा में है। लखनऊ, कानपुर के अनेक अस्पतालों के चक्कर लगाता रहा। एक बाल-चिकित्सक की सलाह पर एक निजी अस्पताल में बच्चे को भर्ती करने के उपरांत डॉक्टर जिस विशेषज्ञ के बारे में बताते, उसके पास जाता, उसे किसी भी तरह मनाकर, उसके पैर पकड़कर उसे लेकर आता। दीदी को तकलीफ़ न हो, इसीलिए तो दीदी से चोरी अलग-अलग ब्लड बैंकों से ब्लड निकलवाकर दो बार बच्चे को डोनेट किया था उसने। हाँ, पैसा नहीं था उसके पास, वह नहीं लगा सका। आठवें दिन दीदी की बात सुनकर वह अवाक् रह गया था- “जब कोई सुधार नहीं हो रहा तो बच्चे को डिस्चार्ज करा लो। जो होना होगा, घर में ही होगा। केवल यही तो बच्चा नहीं है, मुझे दूसरे बच्चे भी देखने हैं, इसके हिस्से में जितना था उतना मैंने लगा दिया है।” शायद बच्चे की आत्मा ने यह सब सुन लिया था, तभी तो कुछ ही देर बाद उसने वह शरीर छोड़ दिया था। उसके मन में आया था कि एक बार दीदी से चिल्लाकर पूछे- “क्या एक माँ को ऐसी स्थिति में हानि-लाभ सोचना चाहिए।” लेकिन…

आज प्रत्येक बात में दीदी कहती हैं- “समाज क्या कहेगा...?”, “किसी के सामने बात करने लायक़ नहीं बचे हम।” दीदी ही क्यों, घर का प्रत्येक सदस्य यही बातें घुमा-फिराकर उसे सुनाता है। समाज अभी तक क्या कहता रहा है, क्या कभी उन्होंने यह जानना चाहा है। समाज, क्या आसपास के कुछ परिवारों के उन चाटुकार व्यक्तियों तक सीमित होता है जो सामने कुछ और पीठ-पीछे कुछ कहते हैं। यदि ऐसे व्यक्तियों से ही समाज का निर्माण होता है तो क्यों हमें इनकी परवाह करनी चाहिए। इस कथित समाज ने किसे अच्छा कहा है। इसी समाज के लिए मर्यादा पुरुषोत्तम ने अपनी पत्नी का त्याग कर दिया था, किंतु क्या उसके बाद भी इस समाज को वह संतुष्ट कर पाए! सीता को त्यागने के उनके इस निर्णय के साथ और विरुद्ध जब यही समाज दो वर्ग में खड़ा हुआ होगा तो क्या श्रीराम अपने निर्णय पर पछताए न होंगे?

अर्थ की महत्ता स्वीकारने में उसे गुरेज़ नहीं है। वह इस तथ्य को भी स्वीकार करता है कि धन सब कुछ तो नहीं, किंतु बहुत कुछ है। लेकिन जब उसे दीदी का कथन याद आता तो हृदय में तीव्र दर्द का अनुभव होता, और वह सोचता- “काश! मैं भी अर्थ-संपन्न होता तो सारे रिश्ते मेरे होते।” फिर तत्क्षण उसका यह विचार धूल-धूसरित हो जाता और वह कह उठता- “यदि धन से ही सारे रिश्ते हैं तो उसे इनकी कोई आवश्यकता नहीं है।”

एक बार फिर वह सोचने पर विवश हो जाता है कि क्या दीदी सच में वह दिन भूल गयी। जब जीजाजी की असामयिक मृत्यु के उपरांत उनके ससुराली-जनों ने उनके साथ कैसा व्यवहार किया था? अपने जेठ पर आश्रित रहने के कारण एक साल तक तो उनकी पेंशन भी नहीं बँधी थी। मात्र अट्ठारह वर्ष का ही तो था वह उस समय। मृत्यु के पूर्व जीजाजी के कथन- “यह मेरा साला नहीं बड़ा बेटा है” ने उसे असमय ही प्रौढ़ कर दिया था। और उसने दीदी और उनके बच्चों की ज़िम्मेदारी सहर्ष ले ली थी। 

आज दीदी को अपने दिमाग़ पर बहुत नाज़ है। क्या कभी उन्होंने इस बात पर मनन की आवश्यकता नहीं समझी होगी कि जब-जब उनकी परिस्थितियाँ बिगड़ीं, उनके साथ कौन खड़ा था? ससुराली-जन, अन्य रिश्तेदार, परिचित-व्यवहारी या सुभाष?

जब पैसे की बात सुनता है तो मन करता है कि एक बार जाकर दीदी से पूछे कि कितना है? फिर यह सोचकर रुक जाता है कि जब उसके पास होगा तब पूछेगा। अभी अगर पूछा तो फिर देना अनिवार्य होगा। उसने तो पहले से सोच रखा था कि दीदी को कभी कुछ कहने का अवसर नहीं देगा। लेकिन अभी क्या करे वह, उसकी परिस्थितियाँ ही उसका साथ नहीं दे रहीं। घर-परिवार में सभी की भावनाओं की उसने हमेशा क़द्र की है। सभी के दर्द को उसने अपने अंतस्थल में महसूस किया है। आज जब उसकी परिस्थितियाँ विपरीत हैं तो उसके साथ कोई नहीं है। यहाँ वह ग़लत है या उसके अपने? 

उस लड़की को वह पिछले चार वर्षों से प्रेम करता है। चार वर्षों से मानसिक प्रताड़ना झेल रही वह लड़की एक दिन अचानक अपना घर छोड़कर उसके पास आ गयी। उसने उस लड़की को समझा-बुझा कर वापस कर दिया था। फिर भी घरवालों के ताने और निर्मूल सी इच्छा- उस लड़की से कोई संपर्क न रखो, उससे बात न करो। और पिछले पचीस वर्षों के उसके सामाजिक चरित्र पर उँगली उठाती विचित्र सी आशंका- “उसके साथ भाग मत जाना।” 

क्या कभी उस लड़की की तकलीफ़ को समझने का प्रयास यह लोग कर सकते हैं? किस तरह के परिवेश में उसने पिछले चार वर्ष बिताए हैं, और अभी भी उसी माहौल में जी रही है? मात्र इसी उम्मीद के सहारे कि एक न एक दिन वह सुभाष के साथ सुखमय जीवन की शुरुआत करेगी। कितने ढेर सारे स्वप्न सँजों रखे होंगे उस पगली ने। कभी-कभार जब उससे फोन में बात होती तो कितना ख़ुश हो जाती थी वह।
 
इधर घरवाले कहने लगे हैं कि जब वह अपने घरवालों के समझाने से समझ गयी है तो तुम क्यों नहीं समझते। वह लड़की तुम्हें धोखे में रखे हुए है, वह तुम्हें नहीं चाहती, तुम्हारी तरह अनेक लड़के उसकी ज़िंदगी में हैं; जैसे वाक्य वह हमेशा से सुनता आया है, लेकिन अब नहीं सुने जाते ये वाक्य! वह किसकी सुने, स्वयं की या दूसरों की? पिछले चार वर्षों में जब भी उसे दर्द हुआ तो वह रोई है। जब वह तड़पा तो उसकी आँखें छलछलाई हैं।

वह ईश्वर की परमसत्ता को स्वीकारता है। अन्य आत्माओं से संबंध और रिश्तों का निर्माण उसी की इच्छा से होता है। जब उसकी मर्ज़ी बिना सृष्टि में पत्ता भी नहीं हिलता तो रिश्तों का निर्माण कैसे हो सकता है? उसकी मान्यता है कि रिश्तों का निर्धारण ईश्वर करता है, और जीवन में जो भी होता है वह पूर्व-निर्धारित होता है। इसलिए ईश्वरीय-इच्छा में अवरोधक नहीं बनना चाहिए। यदि इस संबंध में ईश्वरीय-इच्छा समाहित है तो क्या घर-परिवार या संसार में इस संबंध को होने से रोकने की सामर्थ्य ह? यदि नहीं, तो फिर क्यों परेशान हैं सब! ईश्वरी इच्छा समझ इस संबंध को स्वीकारने से जो आत्मीय-संतोष की प्राप्ति होगी, उसका वर्णन शब्दों में संभव नहीं है। 

चलो न मानें ईश्वरीय-इच्छा, एक मानवीय-सामाजिक दृष्टि से उस लड़की की परिस्थितियों का अवलोकन करें। यह तो सभी मानते हैं कि उस लड़की की वज़ह से वह चारों तरफ़ बदनाम हो गया है, तो वह लड़की क्या कम बदनाम हुई होगी? यदि उसने अपने हृदय पर पत्थर रखकर उस लड़की को नकार भी दिया, हालाँकि इसके बाद वह स्वयं एक ज़िंदा-लाश बनकर रह जायेगा, तो उस लड़की के सामने क्या रास्ता बचेगा? यदि उसके माता-पिता ने दबाव बनाकर, किसी लड़के को प्रलोभन-स्वरूप तगड़ा दहेज़ देकर इन सारी बातों को छिपाकर उस लड़की का विवाह कर भी दिया तो क्या वह लड़की एक ख़ुशहाल जीवन जी पाएगी? निःसंदेह वह या तो इस स्वार्थी दुनिया का त्याग कर देगी या फिर प्रतिदिन तिल-तिल मरेगी। क्या यही प्रतिकार मिलेगा उस लड़की को उसकी चार वर्षों की साधना का! नहीं, क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। उस लड़की की सच्ची चाहत का प्रतिकार भी वह अपने अगाध-प्रेम के रूप में उसे अर्पित करेगा, चाहे इसके लिए उसे यह संसार ही क्यों न छोड़ना पड़े।

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