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चैतन्य महाप्रभु और विष्णुप्रिया

रात्रि रास की बेला में 
स्वामी आ बैठे मेरे पास
और श्री कृष्ण के विग्रह की 
तुलसीदल माल
दे दी मुझे उपहार
प्रसाद खिलाने वाले ही थे कि
मैंने परिहास में कमल पुष्प से 
उनकी पीठ पर प्रेम से ताड़न किया
“मछली की रसिक हूँ निमाई,
मत लाया करो माखन मिश्री का प्रसाद”
आनंदातिरेक से दमक रहा था मेरा मुख
लेकिन उस रात
उनके नेत्र स्थिर थे कहीं दूरस्थ
 
उन दिनों
अनंग के पुष्प-बाणों की वृष्टि
हम दोनों पर होती
और मैं महाप्रभु के गौरवर्ण को 
तृषित नेत्रों से हृदयस्थ करती
उनके जवांकुसुम तेल से महकते 
केशों को काढ़ती रहती
 
उस रात
एकाएक उनके श्रीमुख से शब्द निकले
"मेरे से अब पृथक रहना होगा विष्णुप्रिये, 
के अब दंड, कमंडलु, मृदंग
झांझ और मंजीरे ही मेरे सहचर"
महाप्रभु के इस प्रचंड कथन ने 
प्रेमबंधन पर कर दिया
तीक्ष्ण कुठाराघात
अपनी प्रतिष्ठा में मेरा रुदन
देखते रहे वो वह बन के शांत
 
आम्र पर बैठे शुक और सारिकाएँ 
प्रेम गीत गाते गाते
अकस्मात मौन हो गए
और नवद्वीप में रुदन, हाहाकार
अन्ततः मुझे सदैव स्मृति में
रखने का वचन देकर 
वो हो गए रात में अंतर्ध्यान
पीछे छोड़ गए चंदन पादुका और शालिग्राम 
 
मन में सदैव एक भ्रांति बनी रही कि
अपने सुकुमार हाथों से वो 
सदैव करेंगे प्रेम यज्ञ का अनुष्ठान
और जीवन के विलक्षण वर्णनों में 
यह वृतांत होगा प्रख्यात
किंतु, उनका "चैतन्य" हो जाना 
मुझे "शून्य" कर गया
 
आज मरघट में, 
अपने निमाई को दृष्टिभर देख लेने की 
अपूर्ण और पराजित अभिलाषा
चटचट जल रही है कपाल के संग
 
यह सदियों की प्रतीक्षा है
भस्म होने में समय लगेगा
प्रेमी का ईश्वर हो जाना 
स्त्री को कितना उपेक्षित कर जाता है

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