चौराहा
शायरी | नज़्म स्नेह दत्त1 Aug 2021 (अंक: 186, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
कितनी पेचीदा हो जाती हैं अक़्सर
हर सिम्त को निकलती यह राहें।
अपनी अपनी कशिश लिए, हर राह।
एक राह–
आसां सफ़र, हमसफ़र भी पर मंज़िल नहीं !
एक राह–
जिसमें हमसफ़र भी हैं।
रास्ता भी तकलीफ़ देह नहीं पर
मंज़िल दूर बहुत दूर
नाकामयाबी की थका देने वाली
हदों तक पहुँचाती हुई!
एक राह –
जहाँ हमसफ़र भी है, मंज़िल भी पर
रास्ता उलझा हुआ, बहुत ही सँकरा और तंग।
अँधेरा इतना कि
हाथ छूट जाये तो फिर थामना मुश्किल !
एक राह और भी है –
जिसकी मंज़िल भी है,
रास्ता भी दुश्वार नहीं पर
हमसफ़र कोई नहीं!
ज़िंदगी के मुख़्तसर से सफ़र में,
इन चौराहों पर,
हम अक़्सर सोच में पड़ जाते हैं
क़दम किस तरफ बढ़ायें।
आख़िर,
इतनी पेचीदा हैं, हर सिम्त को जाती राहें।
भटक न जायें कहीं यूँ ही,
हर राह की कशिश में,
ठहर सी जाती है ज़िंदगी
और
रुक जाना तो जीना नहीं होता।
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