अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

चौराहा

कितनी पेचीदा हो जाती हैं अक़्सर
हर सिम्त को निकलती यह राहें।
अपनी अपनी कशिश लिए, हर राह।
 
एक राह–
आसां सफ़र, हमसफ़र भी पर मंज़िल नहीं !
 
एक राह–
जिसमें हमसफ़र भी हैं।
रास्ता भी तकलीफ़ देह नहीं पर
मंज़िल दूर बहुत दूर
नाकामयाबी की थका देने वाली
हदों तक पहुँचाती हुई!
 
एक राह –
जहाँ हमसफ़र भी है, मंज़िल भी पर
रास्ता उलझा हुआ, बहुत ही सँकरा और तंग।
अँधेरा इतना कि
हाथ छूट जाये तो फिर थामना मुश्किल !
 
एक राह और भी है –
जिसकी मंज़िल भी है, 
रास्ता भी दुश्वार नहीं पर
हमसफ़र कोई नहीं!
 
ज़िंदगी के मुख़्तसर से सफ़र में, 
इन चौराहों पर, 
हम अक़्सर सोच में पड़ जाते हैं
क़दम किस तरफ बढ़ायें।
आख़िर, 
इतनी पेचीदा हैं, हर सिम्त को जाती राहें।
 
भटक न जायें कहीं यूँ ही, 
हर राह की कशिश में, 
ठहर सी जाती है ज़िंदगी
और
रुक जाना तो जीना नहीं होता। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

1984 का पंजाब
|

शाम ढले अक्सर ज़ुल्म के साये को छत से उतरते…

 हम उठे तो जग उठा
|

हम उठे तो जग उठा, सो गए तो रात है, लगता…

अंगारे गीले राख से
|

वो जो बिछे थे हर तरफ़  काँटे मिरी राहों…

अच्छा लगा
|

तेरा ज़िंदगी में आना, अच्छा लगा  हँसना,…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

नज़्म

कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं