अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

चौथा खंभा

पिछले दो सालों से लगातार भटकने के बाद आखिर उसे महानगर के नामी टी.वी. न्यूज़ चैनल में संवाददाता की नौकरी मिल गई। उसके पिता एक गरीब किसान थे। उन्होंने उसे अपना खून-पसीना एक करके पढ़ाया ताकि कोई टिकाऊ नौकरी करे और अपनी दोनों छोटी बहनों की शादी के लिए पैसा जोड़े। उसने भी अपने पिता की लाज रखी और प्रथम श्रेणी से हिन्दी पत्रकारिता में स्नातक की उपाधि प्राप्त की।

मीडिया की नौकरी करने का उसका एक अन्य कारण भी था। लोकतंत्र के इस चौथे खंभे में उसकी गहरी आस्था थी, उसे विश्वास था कि मीडिया ही है जो गरीब और वंचित लोगों की आवाज़ को शासन-प्रशासन के कानों में डालता है। अपनी पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान ही उसने संकल्प किया था कि वह भी अपने पिछड़े गाँव की बदहाली की तस्वीर एक न एक दिन अवश्य मीडिया में देगा। उसके गाँववासी सालों से बुनियादी सुविधाओं के लिए तरस रहे हैं, जहाँ स्कूल के नाम पर एक जर्जर-सी इमारत, बिना दवा-डॉक्टर की डिस्पेंसरी और बिना बिजली के खंभे इसके गवाह हैं।

उसे बहुत अंचभा हुआ कि न्यूज़ चैनल में होते हुए भी उसे एंटरटेनमेंट की बीट थमा दी गई। उसका काम बस फिल्मी सितारों और सेलेब्रेटिज़ की पार्टियों की कतरनें बटोरना था और उनके इंटरव्यू पर मसाला लगाकर ब्रेकिंग न्यूज़ बनाना था। उसे कुछ ही महीनों में सब कुछ समझ में आ गया। बाज़ार की ताकत के सामने जनहित मुद्दों के नाम पर की जा रही निरर्थक चर्चा की हक़ीक़त वह बख़ूबी जान चुका था। अपने चैनल की एंकरों की हिन्दी सुनकर उसका मन क्रोध से भर जाता और अपनी प्रतिभा का हनन होते देख उसके आँसू निकल आते।

उस दिन ज़ोरों की बारिश हो रही थी और उसकी तबियत भी ठीक नहीं थी, लेकिन उसका जाना ज़रूरी था। उसे एक नामी फिल्मी एक्टर के बंेटे के जन्मदिन की पार्टी कवर करनी थी। उसका जमीर उसे बार-बार धिक्कारता, लेकिन जब भी वह नौकरी छोड़ने का फैसला करता, उसके सामने दोनों छोटी बहनों का मासूम चेहरा आ जाता। उसने मन ही मन एक बार फिर अपने गाँववालों से माफी माँगी और भरे दिल से स्कूटर स्टार्ट कर निकल पड़ा।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

लघुकथा

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

बाल साहित्य कहानी

बाल साहित्य कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं