अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

चिड़िया और मैं

बिजली के तार पर - 
बैठी थी एक नन्ही चिड़िया अकेली,
न परिवार, न साथी, न कोई सहेली। 
शान्त, चिन्तन में मग्न सी, रंगीली, 
मानो बूझती हो कोई गूढ़ सी पहेली॥
देर तक वह यों ही बैठी वहाँ रही 
न उड़ी, न चहकी, खोयी सी रही।
शायद...
उदास थी वो अपने भाग्य पर।
क्षुब्ध सी थी निर्मोही संसार पर॥

नन्ही सी चिड़िया थी बड़ी भोली।
तभी करुण स्वर में मुझसे यों बोली॥
"बच्चों को पाला मैंने, प्यार से बड़ा किया।
उड़ने का ज्ञान देकर, उनको समर्थ किया॥
अपनी चोंच से मैंने, उन्हें दाना खिलाया।
घोंसले में लोरी सुना, मैंने उन्हें सुलाया ॥
जैसे ही उनके कुछ पंख थे निकले।
अनजान दिशाओं में वे, स्वच्छन्द उड़ चले॥
रह गई हूँ मैं, नितान्त अकेली अब।
न जाने उनसे मैं, मिल पाऊँगी कब?
शायद मुझे मिल भी जाएँ, वे कभी कहीं।
पर निश्चय ही वे, पहचानेंगे मुझे नहीं॥
विशाल से गगन में, मिलन-आस लिये सदा।
उन्मुक्त उड़ूँगी मैं, खोजूँगी उन्हें सर्वदा॥
वन-उपवन में, पर्वतों और उपत्यका में।
उनको पुकारूँगी मैं, दिवस और निशा में॥
सो नहीं पाऊँगी, जागती ही रहूँगी मैं।
बच्चों की याद में, डूबी ही रहूँगी मैं॥"

तभी मन में विचार आया -
"सचमुच ये दुनिया है, अतिशय निराली। 
किन्तु हम तो हैं, बड़े ही भाग्यशाली॥
वर्षों हमारे बच्चे, रहते हैं हमारे साथ।
और बुढ़ापे में वे, पकड़ते हैं हमारा हाथ॥
सुख-दु:ख हमारा, सब जानते हैं वे।
चेहरे का भाव भी तो, पहचानते हैं वे॥
चिड़िया बेचारी, अपने लिये ढूँढ़ती है दाना।
लेकिन हमें तो प्यार से, मिले स्वादिष्ट खाना॥
बच्चों के बच्चे भी हैं, प्यार हमें करते।
गोद में बैठकर वे, कहानी भी हैं सुनते॥
जीवन की संध्या भी, ख़ुशहाल हो जाए यों।
तो उदासी मन पर कभी, फिर छाए क्यों?
प्रभु की कृपा से हमें, बच्चों का प्यार मिला।
निर्मोही इस जग में , सुखमय संसार मिला॥
तभी तो सब योनियों में, श्रेष्ठ हैं ये मनुज।
पर ये ही कभी बनें देव,और कभी यही दनुज॥"

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

किशोर साहित्य कविता

बाल साहित्य कविता

कविता

स्मृति लेख

सामाजिक आलेख

ललित निबन्ध

लोक गीत

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं