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चिहुँकती चिट्ठी

बर्फ़ की कोहरिया साड़ी
ठंड की देह ढंक
लहरा रही है लहरों-सी
स्मृतियों के डार पर
 
हिमालय की हवा
नदी में चलती नाव का घाव
सहलाती हुई
होंठ चूमती है चुपचाप
क्षितिज
वासना के वैश्विक वृक्ष पर
वसंत का वस्त्र
हटाता हुआ देखता है
बात बात में
चेतन से निकलती है
चेतना की भाप
पत्तियाँ गिरती हैं नीचे
रूह काँपने लगती है
 
खड़खड़ाहट ख़त रचती है
सूर्योदयी सरसराहट के नाम
समुद्री तट पर
 
एक सफ़ेद चिड़िया ने उड़ान भरी है
संसद की ओर
गिद्ध-चील ऊपर ही
छीनना चाहते हैं
ख़ून का ख़त
 
मंत्री बाज़ का कहना है
गरुड़ का आदेश आकाश में
विष्णु का आदेश है
 
आकाशीय प्रजा सह रही है
शिकारी पक्षियों का अत्याचार
चिड़िया का गला काट दिया राजा ने
रक्त के छींटे गिर रहे हैं
रेगिस्तानी धरा पर
अन्य ख़ुश हैं
विष्णु के आदेश सुन कर
 
मौसम कोई भी हो
कमज़ोर —
सदैव कराहते हैं
कर्ज़ के चोट से
 
इससे मुक्ति का एक ही उपाय है
अपने एक वोट से
बदल दो लोकतंत्र का राजा
शिक्षित शिक्षा से
शर्मनाक व्यवस्था
 
पर वास्तव में
आकाशीय सत्ता तानाशाही सत्ता है
इसमें वोट और नोट का संबंध धरती-सा नहीं है
चिट्ठी चिहुँक रही है
चहचहाहट के स्वर में सुबह सुबह
मैं क्या करूँ?

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