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चिर-प्रतीक्षा - नागेन्द्रदत्त वर्मा

चिर-प्रतीक्षा लिये उर-विरह को सँजो,
मानिनी भामिनी द्वार पर मौन थी।
नित नई आस ले प्रिय मिलन को सुमुखि,
रात गिनती हुई कामिनी मौन थी॥

नयन कह रहे थे हृदय की व्यथा,
बह रहे थे सदा किन्तु निर्झर सदृश।
इक कसक को हृदय में दबाये हुए,
प्यार के उन क्षणों को सँजोये हुए।
लाज, सम्मान, दुःख-भार से वह दबी,
प्रीत पिय की लिये प्रेयसी मौन थी॥

दिन ढला, अब निशा की घड़ी आ गई,
फिर मधुर प्यार की वह घड़ी आ गई।
किन्तु सूना है घर और सूना है मन,
और सूना है मधुमास का आगमन ,
निज विरह-ताप में वह झुलसती रही,
चाँद ढलता रहा चाँदनी मौन थी ॥

युग गये किन्तु फिर भी न आये सजन,
आ गये मेघ काले सजल औ सघन।
मेघ पावस के ज्यों ज्यों परसने लगे,
नैन प्रिय के लिये त्यों तरसने लगे।
होंठ सूखे मधुर और हुआ कृश वदन,
सुन्दरी जग रही, यामिनी मौन थी ॥

प्रेम-पाती लिखी किन्तु लिख न सकी,
गात निश्चल हुआ और कर ना उठे।
जब किसी कोकिला-कंठ ने कूक कर,
हूक दिल में उठाई, नयन भर उठे।
उर की गहराइयों में उठी इक तड़प,
वह तड़पती रही पर तड़प मौन थी॥

अमिट प्यार का दिल में दीपक सजाय़े,
पवन के झकोरों से भेजे निमंत्रण।
गगन-मेघ के हाथ भेजे पिया को,
बहुत बार अनगिन सुमुखि ने नयन-कण।
नयन-जल ढरकते रहे रात भर,
वह सिसकती रही पर सिसक मौन थी॥

चिर प्रतीक्षा लिये उर-विरह को सँजो,
मानिनी भामिनी द्वार पर मौन थी॥

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