चिरैया बिना आँगन सूना
कथा साहित्य | लघुकथा निर्मल कुमार दे1 Apr 2021
शहर की नई कॉलोनी में नए नए मकान बनते गए। सारी सुविधाओं का ख़्याल रखा गया। बस पुराने ज़माने जैसा रोशनदान नहीं दिखे जिसमें गौरैया, मैना, कबूतर अपना घोंसला बनाते थे।
एक मकान की बालकनी में चिड़ियों को पानी पिलाने की व्यवस्था थी। दो जगह सुंदर ढंग से कटोरी जैसा निर्माण देखा मैंने, जिसमें घर की मालकिन रोज़ पानी डाल देती है।
"जब चिड़ियों को रहने, अंडे देने तथा जोड़ों में रहकर कलरव करने का मौक़ा नहीं दिया, घोंसला बनाने की जगह नहीं दी तो यह कैसी खग प्रीति?"
मेरी बातें सुन पत्नी ने कहा, "देखो जी, हम ज्यों-ज्यों सभ्य होते जा रहे हैं हमारी संवेदना कुंठित होती जा रही है, पशु-प्रेम, मानव प्रेम दिखाने के लिए रह गया है।"
"दादाजी, मैं एक बात कहना चाहता हूँ," दस वर्षीय पोते असीम ने कहा।
"क्या बात कह डालो," मेरी पत्नी ने कहा।
"दादाजी आप जब मकान बनाएँगे तो गौरैया, मैना, कबूतर आदि पक्षियों के लिए अलग से रहने का इंतज़ाम भी करवा देंगे,"असीम ने कहा।
हँसते-हँसते असीम ने दादा-दादी को कविता सुनाई,
"औलाद बिना घर सूना
चिरैया बिना आँगन सूना।"
मैं और मेरी पत्नी अपने पोते की बालसुलभ ख़ुशी के सागर में गोते लगाते रहे।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
लघुकथा
कहानी
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं
{{user_name}} {{date_added}}
{{comment}}