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चित-पट

एक बहुत व्यस्त सड़क के किनारे बना फुटपाथ काफ़ी ऊँचा था सड़क से। सड़क के उस हिस्से को पार करना जितना ख़तरनाक फुटपाथ के नीचे से  था उतना ही मुश्किल उसके ऊपर से चढ़कर जाना था। जब भी कोई निकलता तो उसे घुटने पर हाथ रखकर या दीवार का सहारा लेकर ही चढ़ना पड़ता। रोज़ के आने-जाने वाले सभी लोग इतना ऊँचा फुटपाथ बनाने वाले को कोसते। 

सड़क के दूसरे किनारे खड़ा पानी की रेहड़ी वाला, यह सब देखता। एक रोज़ उसने सुबह जल्दी आकर किनारे के एक पत्थर को ढीला कर  पट लेटा दिया था जिससे उसके ऊपर पाँव रखकर फुटपाथ पर चढ़ना सहज हो गया। सारा दिन वह देखता रहा, आने-जाने वाले बेख़्याल उस पर पाँव धरते चले जाते थे . . . किसी ने राह आसान करने वाले के बारे में न सोचा न कुछ कहा।

रेहड़ी वाला सोच रहा था, एक अकड़ा हुआ सीधा पत्थर भी आवश्यकतानुसार चित हो जाये तो अधिक उपयोगी हो जाता है, लेकिन, इन्सान बस कठिनाई को देखता है, सहजता को नहीं।

फिर कहीं भीतर से आवाज़ आई, "जो चुप पड़ा रहता है ज़िंदगी उसे यूँ ही रौंदती चली जाती है"।

रात को घर जाने से पहले उसने पत्थर को पहले की तरह खड़ा कर दिया।

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