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चुनाव का मधुरस्वभाव 

(जैनन प्रसाद फीजी के व्यंग्य लेखक हैं)

 

पहले हमारे यहाँ नेता हर एक ज़िले से चुने जाते थे लेकिन इस सरकार की बड़ी सोच है, कि पूरा देश हमारा  ज़िला है। इसलिए उन्होंने फ़ैसला किया कि केवल एक निर्वाचन क्षेत्र होना चाहिए। मुझे वे सनातन धर्म के अनुयायी लगे, जिनका मानना है कि हनुमान जी का झंडा तो घर-घर पर है, लेकिन क्या कभी हनुमान जी को घर-घर जाते देखा गया है? वे एक ही जगह बैठकर सारा काम निपटा देते हैं। ठीक उसी तरह, हम संसद भवन में बैठकर कर सारा काम निपटा देंगे। अब एक उम्मीदवार का दूसरी बार उसी ज़िले से चुने जाने की समस्या ही ख़त्म हो जाएगी।

इसका एक फ़ायदा यह भी है कि किसी एक ज़िले से सशक्त उम्मीदवार को ढूँढ़ने की भी परेशानी ख़त्म हो जाएगी। उम्मीदवारों को उनके बुद्धिजीवी होने के नहीं, पर उनके गुण के हिसाब से चुना जाएगा। सबसे कुशल उम्मीदवार वही रहेंगे जिसमें चाटुकारिता कूट-कूट कर भरी हो और जो आँख बंद कर के बड़े नेताओं का समर्थन कर सकें। अगर बड़े नेताओं को वे भगवान का दर्जा देते हुए उनको अपने सपनों में आने की इच्छा रखते हैं, तो इसको उनका विशेष गुण माना जाएगा। लेकिन जो उम्मीदवार पूरे देश को खा जाने की इच्छा रखते हैं उसे क़तई स्वीकार नहीं किया जायेगा। वे विपक्षियों में जा सकते हैं।

एक और बड़ा परिवर्तन हुआ। चुनाव चिह्न की जगह किसी दो जानवरों के चिह्न को लगाने की बात हुई। हर एक दल अपने अपने दो पसंदीदा जानवरों का चिह्न अपने चुनाव प्रचार के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं। बड़े नेताओं के लिए एक जानवर का चिह्न और चापलूसी नेताओं के लिए दूसरे जानवर का चिह्न। सरकार बहुत पारदर्शी है।  वह जनता को भ्रम में नहीं डालना चाहती। दरसल, दो जानवरों के चिह्न से स्पष्ट पता चल जाएगा कि जंगल का राजा कौन है।  

इन जानवरों में, ऑस्ट्रेलिया में पाए जाने वाली कंगेरू नामक जानवर का चिह्न वर्जित है। कंगेरू बहुत कूदता है। डर यह है कि कहीं वो कूद-कूद कर दूसरे दल में न जा पहुँचे। फिर उसके पास जेब भी तो है। नेताओं के होते हुए भला किसी और को इसकी क्या ज़रूरत। इस बात पर मुझे याद आया कि कुत्ते का चिह्न, वही नेता या उम्मीदवार इस्तेमाल कर सकता है जिसे संसद में भौंकने का तजरबा हो और फिर कुत्ता वफ़ादारी का भी तो प्रतीक है।

मुद्दा चाहे जो भी हो, लेकिन हमारे यहाँ, सांसद अपने बड़े नेताओं के बड़े वफ़ादार होते हैं। वैसे तो सांसद मतदाताओं का प्रतिनिधि होता है जो विशेष रूप से नम्र स्वाभाव के होते हैं। हमारे यहाँ, सरकारी पक्ष के नेताओं में ऐसे गुण देखने को मिलता हैं। वे बड़े ही भोले, नम्र और ईमानदार होते हैं। वह तो विपक्षियों के कारण, उन्हें बहस करनी पड़ती है और संसद भवन, संसद भवन न रहकर, झंझट भवन में तब्दील हो जाती है। लगता है राजा दशरथ का कोप भवन, आधुनिक समय का झंझट भवन हो गया है। 

झंझट भवन में स्पीकर महोदय बेचारा एकमात्र ऐसा व्यक्ति होता है जिसे बोलने का सबसे ज़्यादा मौक़ा दिया जाता है। इसीलिए तो उन्हें सुरक्षा कर्मी द्वारा अंदर लाया जाता है कि कहीं कोई सांसद उन्हें व्यंग्य फेंक कर न मार दे। उनकी वाकपटुता सांसदों में जलन का कारण बन जाती है। वास्तव में, वह सांसदों का बहुत ख़्याल रखते हैं, ख़ासकर उनके खाने-पीने का, इसलिए कुछ ना कुछ हमेशा ऑर्डर किया करते हैं। झगड़ा तो इस बात पर चलता है जब लोग अपनी-अपनी पसंद की चीज़ें माँगते हैं और इसी बात बात को लेकर  विपक्षियों में अफ़रा-तफ़री हो जाती है।  ऐसे भोज के उदाहरणों का आनंद सभी को शायद ही मिले, लेकिन हमारा झंझट भवन, मछली बाज़ार कभी नहीं रहा। सुबह-सुबह आप मछली बाज़ार चले जाओ और वापस आकर टीवी में पार्लियामेंट सेशन देख लो, और ख़ुद ही निर्णय कर लो।  

सरकार झंझट भवन में गिरते स्तर के हास्य को लेकर बहुत चिंतित है और जल्द ही एक नया बिल पास करने वाले हैं जिसमें विनोद के नए-नए तरीक़ों को अपनाने की माँग की जाएगी। विडंबना और कटाक्ष के साथ टपकते हुए हल्के-फुल्के व्यंग्य भी इस बिल में पाए जाएँगे। इस बिल से सांसदों का उत्साहवर्धन होगा जो किसी भी गणतंत्र के लिए बहुत ज़रूरी है। दुर्भाग्य से, जनता को बहुत अधिक इस बिल पर नहीं दिखाया जाएगा क्योंकि, कहीं वे ख़ुद न हँस पड़ें, इसलिए उस समय सारे कैमरे बंद रहेंगे।  

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