चुपके चुपके
काव्य साहित्य | कविता इन्दिरा वर्मा1 Nov 2019
चुपके चुपके
कभी कभी वहाँ जाने को
जी चाहता है
जहाँ मेरा बालपन मुझे बुलाता है -
धीरे-धीरे चुपके चुपके!
वहीं जहाँ खेतों खलिहानों के बीच से
हम बकरियाँ पकड़ लाया करते थे,
बाबूजी की डाँट से डर कर
फिर वहीं छोड़ भी आते थे,
धीरे धीरे चुपके —
साइकिल चला कर जाते,
वह तखती वाला स्कूल
जहाँ लड़के ही पढ़ते थे
मैं अकेली लड़की!
मुझे मालूम है वे मुझे देखते थे ,
मेरी किताबें उठा कर
साथ चलना चाहते,
धीरे धीरे चुपके -
वे छोटे छोटे गाँव
जिनकी गलियों में हम
बेलाग रस्सी कूदते थे,
घूँघट से अपने आँगन लीपती
औरतें देखती थीं
धीरे धीरे —
ट्रकों में भरे गन्ने जो
दौड़ दौड़ कर लड़के
खींच खींच कर खाते थे
मन तो हमारा भी होता था
पर डरते थे
कहीं कोई देख न ले हुड़दंग करते
सो छुप कर खाते
धीरे धीरे —
बाबूजी गुड़िया लाये तो
मैं कैसी दौड़ी गई और
लिपट गई उनसे
माँ ने औरगंडी की पीली फ़्रॉक
शैडो की कढ़ाई कर के बनाई
जो पहन मैं इतराई
धीरे धीरे —
नानी की कहानियाँ जो
कई रात तक चलती थीं,
उलटे सीधे गाने जो
माँ को ख़ुश करने के लिये गाते थे,
फिर गाने को मन करता है,
धीरे धीरे —
वह कच्ची अंबियाँ व
नमक के साथ चटखारे ,
इमली, आम पापड़ जो
माँ छुपा कर रख देती थीं
ढूँढ कर खाने को
मन करता है आज भी
धीरे धीरे —
कहीं भी लुढ़क कर सो जाना,
माँ जगा कर खिला देगी,
दूध पिला देगी,
बाबूजी आकर प्यार से देखेगें,
सो गये बच्चे?
सुन कर
आश्वासन महसूस करने को
अब फिर मन चाहता है
धीरे धीरे चुपके चुपके!
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
व्यक्ति चित्र
आप-बीती
सामाजिक आलेख
काम की बात
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं