अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

कोरोना का पहरा हुआ है

सड़कों का मन ज़रा ऐंठा हुआ है।
बाद अर्से, साथ घर बैठा हुआ है।
    
पाँवों की हड़बड़ी बंद है तालों में,
समय पसरा बिस्तरों में, आँगन में,
तितलियों सी मँडराने लगी पुरानी कथाएँ,
पुष्पगंधी, बचपनी, बिसरी हवाएँ,
बात दुनिया भर की ले कर उड़ रही हैं,
बच्चे, बड़ों के संग बैठे दाएँ-बाएँ,
युगों का इतिहास जैसे खुल रहा है।
बाद अर्से, साथ घर बैठा हुआ है॥


मृत्यु के बादल अगर मँडरा रहे हों,
सहनशक्ति कदाचित बढ़ ही जाती,
कौन जाने, कौन सा क्षण आख़िरी हो,
मति भूल दुख-वैर, सब संग त्राण पाती।
बात बच्चों को भी लगती मीठी, भली सी
क्योंकि पढ़ने को, नहीं कोई कह रहा है।
बंधनों में भले आज, हम सिकुड़े-बैठे
ताप सिगड़ी, घर संग-संग सो रहा है।
बाद अर्से साथ, घर बैठा हुआ है॥


एक नई दृष्टि मिल रही जैसे हमें अब,
देखते हैं, जोड़ते क्या? क्या टूटता था?
इस मिली फ़ुरसत में फिर तौल लें हम
देख लें क्या तोड़ना, क्या जोड़ना है।
थाम कर मति-गति, सोचें तृप्ति से हम,
प्राप्त जो भी रहा, कितना भला है।
आँकड़ों को छोड़, देखें आइने में,
है वही यह आदमी जो मीलों चला है।
एक अनदेखे विषाणु का त्रास जग पर,
इस सदी की प्रगति से जेठा हुआ है।
बाद अर्से, साथ घर बैठा हुआ है॥


परछाइयाँ ख़त्म होंगी नाराज़गी की,
इबारतें प्यार की जो हम लिखेंगे,
साथ इतने दिन, घर में बंद होंगे
अनकहे डर, क्रोध भी सब कहेंगे।
धैर्य रख, खुले मन जो बात बाँचें,
संबंध फिर से मधुरता को खोज लेंगे।
एक नया आकाश होगा, बाद इसके
फिर नए परवाज़ से पंछी उड़ेंगे।
काल के इस विषम में, ’सम’ ढूँढ़ने को
विद्वान हर एक देश का पैठा हुआ है।
बाद अर्से, साथ घर बैठा हुआ है॥

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

लघुकथा

साहित्यिक आलेख

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

कविता

पुस्तक समीक्षा

पुस्तक चर्चा

नज़्म

कहानी

कविता - हाइकु

कविता-मुक्तक

स्मृति लेख

विडियो

ऑडियो

उपलब्ध नहीं