कोरोना का दंश
काव्य साहित्य | गीत-नवगीत नरेंद्र श्रीवास्तव15 Jun 2021 (अंक: 183, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
कोरोना का दंश भयावह, काँप रहा है जग सारा।
सुबह-शाम तक सूरज सिर पे, फिर भी लगता अँधियारा॥
हर पल काँटे से चुभते हैं,
आँखों से आँसू बहते।
सिसक-सिसक कर साँसें चलतीं,
तिल-तिलकर जीते-मरते।
नीरसता सब ओर दिखे है, बुझा-बुझा मन बेचारा।
सुबह-शाम तक सूरज सिर पे, फिर भी लगता अँधियारा॥
जो घर में,परिवार साथ में,
स्वस्थ, सुखी क़िस्मत वाले।
देख सुकूँ मिलता है दिल को,
कोई तो किस्मत वाले।
जीवन है अनमोल, अनुपम, साथ परिजनों का प्यारा।
सुबह-शाम तक सूरज सिर पे, फिर भी लगता अँधियारा॥
जिनके परिजन बिछड़ गये हैं,
उनकी पीड़ा गहरी है।
आँसुओं से लिपट-सिमट के,
सिसकी में आ ठहरी है।
उमर काटनी मुश्किल पल-पल, जीवन व्यथित, थका-हारा।
सुबह-शाम तक सूरज सिर पे, फिर भी लगता अँधियारा॥
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