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काव्य साहित्य | कविता अलका गिरधर1 Jun 2020 (अंक: 157, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
गहन सन्नाटा है, सड़कें ख़ाली हैं
फिर भी इक अज़ब खलबली सी है,
ज़िन्दगी इस कदर मंद-रफ़्तार हो कर भी
हर पल बदली बदली सी है।
यूँ तो शोर है, चिल्लाहट है,
ग़ुस्सा बौखलाहट भी है कहीं कहीं,
मगर हर कर्कश आवाज़ के पीछे छिपी
कोई बेबस रुदाली सी है।
होंठों के किनारे तो जैसे
ऊपर उठना ही भूल गए हों,
दुनिया भर की आँखों में छलछलाई
सिसकती नमी नमी सी है।
कैसी नीरस हैं चार दीवारी की
खिड़कियों से झाँकती मानव आँखें,
पशु-पक्षियों, जीव-जंतुओं की नज़रें
क्यूँ उमंगित खिली खिली सी हैं?
इस अदृश्य सूक्ष्म जीवाणु को
हर हाल में हराना है, बस यही लक्ष्य है,
विश्व परमाणु-युद्ध में जीतने की बात
फ़िलहाल अभी टली टली सी है।
गहन सन्नाटा है, सड़कें ख़ाली हैं
फिर भी इक अज़ब खलबली सी है,
ज़िन्दगी इस क़दर मंद-रफ़्तार हो कर भी
हर पल बदली बदली सी है।
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