अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

डाकिया

माधुरी बड़ी अधीरता से डाकिए का इंतज़ार कर रही थी। भागलपुर विश्वविद्यालय की छात्रा माधुरी तीन महीने पहले एम.ए. की परीक्षा दी थी और परीक्षा के बाद अपना घर वापस आ गई थी। 

साईकिल की घंटी की आवाज़ सुन माधुरी घर से निकली, देखा दरवाज़े पर डाकिया एक लिफ़ाफ़ा देने खड़ा है।

"लो बिटिया तुम्हारा है," डाकिया बग़ल के गाँव का था जो माधुरी को अच्छी तरह से जानता था।

"आओ चाचा भीतर बैठो इतनी धूप में आपने मेरा पत्र देने आ गए।"

"बेटा यह तो मेरी ड्यूटी है। तुम्हारे गाँव में न बिजली है और नेट की सुविधा। तुम गाँव की पहली लड़की हो जो दूर शहर में रहकर पढ़ती हो। ज़रूरी ख़त भी हो सकता है तुम्हारा इसीलिए आज-कल नहीं किया और चला आया।"

माधुरी की माँ डाकिया बाबू के लिए नींबू और शक्कर का शर्बत ले आई।

इसी बीच माधुरी ने लिफ़ाफ़ा खोल पत्र पढ़ा। पत्र उसके सहपाठी अजीत ने भेजा था जिसमें माधुरी के फ़र्स्ट क्लास में एम.ए. की परीक्षा पास होने की ख़बर थी। 

माधुरी ख़ुशी चिल्ला उठी, "फ़र्स्ट क्लास।" 

डाकिया और माँ को समझने में कोई दिक़्क़त नहीं हुई कि माधुरी फ़र्स्ट क्लास में परीक्षा पास कर गई है।

"माँ मेरा रिज़ल्ट निकल गया, मैंने फ़र्स्ट क्लास में परीक्षा पास कर ली। चाचा जी को मिठाई खिलाओ।"

"हाँ ज़रूर तुम्हारे चाचाजी ने ख़ुशख़बरी लाने में कभी देर नहीं की।"

डाकिया बाबू के चेहरे की हँसी से ऐसा लग रहा था मानो उसकी बेटी परीक्षा पास की हो।

"सरहद पर जवान, खेतों में किसान और डाकघर का डाकिया अपने कर्तव्य पथ से कभी विचलित नहीं होते, तभी तो अपना देश महान, यह आदर्श वाक्य मुझे बहुत अच्छा लगता है," डाकिया बाबू ने कहा। माधुरी और उसकी माँ के चेहरे पर हँसी खिल गई।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

लघुकथा

कविता

कविता - हाइकु

कविता - क्षणिका

अनूदित कविता

हास्य-व्यंग्य कविता

कविता-मुक्तक

किशोर साहित्य लघुकथा

कहानी

सांस्कृतिक आलेख

ऐतिहासिक

रचना समीक्षा

ललित कला

कविता-सेदोका

साहित्यिक आलेख

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं