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दादूपंथ के शिखर संत: एक मूल्यांकन

पुस्तक का नाम: दादूपंथ के शिखर संत
लेखक का नाम: नन्द किशोर पाण्डेय
संस्करण: 2020
मूल्य: 595 रुपए
प्रकाशक: सामयिक प्रकाशन, दिल्ली
समीक्षक: डॉ. विजय मणि त्रिपाठी

प्रस्तुत पुस्तक निर्गुण संत परंपरा को पुनः व्याख्यायित, विश्लेषित करने और भक्ति आंदोलन को पुनः परिभाषित करने में अत्यंत ही महत्वपूर्ण है। इसमें दादूपंथ पर विचार करने के साथ ही लेखक ने भक्ति साहित्य को पढ़ने की एक नवीन दृष्टि प्रदान की है। संत दादूदयाल और इस पंथ में आने वाले प्रमुख संतों का विवेचन, विश्लेषण अब तक किए गए अध्ययन में कुछ नए आयाम जोड़ता है।

साहित्य के पाठकों को अब तक निर्गुण संत साहित्य के बारे में यही पढ़ा-पढ़ाया और समझाया जाता रहा है कि निर्गुण संत मूर्ति-पूजा, हिंदू धर्म या वैष्णव धर्म में कर्मकांड के विरोधी, पूजा-पाठ के विरोधी, बाह्यडंबरों के विरोधी, जाति-पाँति, छुआछूत के विरोधी रहे हैं। यह कुछ हद तक सत्य भी है। लेकिन यही पूर्ण सत्य नहीं है और न ही इन संतों, भक्तों का उद्देश्य इतना सीमित था। निर्गुण संतों की रचनाओं में समाज को प्रताड़ित करने वाले, उन पर अत्याचार करने वाले चाहे वे पंडित हों या मुल्ला, मौलवी या कोई राजा, इन सबका विरोध किया गया है। लेकिन अधिकांशतः यह देखा गया है कि विद्वान लोग उन्हीं पंक्तियों को ज़्यादा उद्धृत करते हैं, जिनमें हिंदू समाज में प्रचलित पूजा-पाठ, धार्मिक, कर्मकांड, तीर्थाटन आदि का विरोध किया गया है। यह समझ बनाने का प्रयास किया गया है कि यही निर्गुण पंथी संतों का उद्देश्य रहा है। इतना ही मात्र संत साहित्य नहीं है। संत साहित्य को व्यापक समाज में जो स्वीकृति मिली इसके अन्य भी कारण हैं। जिस पर व्यापक ढंग से प्रस्तुत पुस्तक में दादूपंथ के संतों के माध्यम से विचार किया गया है।

संत साहित्य को व्यापक सामाजिक स्वीकृति के कारणों को बताते हुए, लेखक ने प्रस्तुत पुस्तक में लिखा है कि– “भक्तिकालीन निर्गुण संतों ने जन भाषाओं को अपनाया, जाति-पाँति विरहित समाज की स्थापना का प्रयास किया, छुआछूत तथा कर्मकांड का विरोध किया, योग पर बल दिया, अहिंसा, निर्वैरता के सिद्धांत का प्रतिपादन किया, गुरु को सर्वोच्च स्थान पर प्रतिस्थापित किया, भाषा और प्रांत से परे एक समान भाव-भूमि पर संतत्व को स्थापित किया, कविता और साधुता को श्रम से जोड़ा, संत सिपाही तैयार किए, कविता की रक्षा के लिए पाठ प्रक्रिया को व्यवस्थित और सुदृढ़ किया, वैचारिक दबावों, आग्रहों और रुचियों से परे जाकर संग्रह ग्रंथों का निर्माण किया, पूर्ववर्ती दार्शनिक विचारों के आलोक में स्वयं का दर्शन गढ़ा, जनता को चेतित करने के लिए संप्रेषण की नई पद्धतियों को आविष्कृत किया, नूतन छंद और लोक शब्दावली को काव्य भाषा का अंग बनाया, वाद्ययंत्रों को विकसित किया, भजन के साथ लंगर, भंडारा और अखाड़ा दिया, तीज-त्योहारों को नया रूप दिया, मेलों की व्यवस्था की, कूप-तड़ागों का निर्माण कराया, साधु शिक्षा की व्यवस्था की, स्वस्थ समाज रचना के लिए आयुर्वेद को नवजीवन दिया, औषधीय पादपों-वृक्षों से परिचित करवाया और संरक्षित किया तथा पेशापरक शब्दावली से कविता को जोड़ा।’’ समाज में संतों की व्यापक स्वीकृति के ये सब कारण रहे हैं। संतों के यहाँ नकारात्मक चीजों से ज़्यादा सकारात्मक और रचनात्मक विचार और कार्यप्रणाली रही है। इन सब बातों को ध्यान में रखकर ही संतों और उनके द्वारा रचे गए साहित्य को समझा जा सकता है न कि इनके विपुल साहित्य में से कुछ वेद, कर्मकांड, पूजा-उपासना, हिंदू धर्म की कमियों आदि के विरोध में लिखी गयी पंक्तियों को उद्धृत करके। प्रस्तुत पुस्तक में लेखक ने संत दादूदयाल और इस पंथ के प्रमुख संतों का समग्रता में तो विवेचन-विश्लेषण किया ही है, साथ में अन्य संतों को भी समग्रता में विवेचित, विश्लेषण करने की साफ-सुथरी निष्पक्ष दृष्टि प्रदान की है।

प्रस्तुत पुस्तक में लेखक ने संत दादूदयाल पर विचार करते हुए उन प्रश्नों का भी उत्तर देने का प्रयास किया है, जो अक़्सर संत साहित्य और युगीन समस्याओं को जोड़कर उठाए जाते हैं यथा “कई बार संतों के साहित्य में उन तत्वों की खोज की जाती है, जो वस्तुतः उनका प्रतिपाद्य नहीं था। वे अपने विचारों से तात्कालिक समस्याओं का समाधान ढूँढ़ रहे थे। कुछ पाठकों की चिंता यह होती है कि इन संतों ने उन दिनों की आर्थिक स्थिति पर क्यों नहीं लिखा। सत्ता के सम्मुख अपने शिष्यों के साथ विरोध करने के लिए क्यों नहीं खड़े हुए?” ऐसे बहुतेरे प्रश्न संतों को लेकर उठाए जाते हैं।यहाँ लेखक ने इस तरह के प्रश्नों का उत्तर बहुत ही सहजता और तार्किकता से दिया है। युगीन समस्याओं पर विचार करते हुए इन संतों और भक्तों ने अपने रचनात्मक कार्यक्रमों द्वारा सामाजिक समरसता को स्थापित करने का प्रयत्न किया तथा धार्मिक और जातीय वैमनस्य को दूर करने का प्रयास किया। इन भक्तों एवं संतों ने ‘परंपरा के अवगाहन’, ‘चिंतन एवं मनन’ से युगीन चुनौतियों का सामना करने का मार्ग प्रशस्त किया। इन संतों ने लोगों में नई ऊर्जा का संचार किया। इसी भक्ति तत्व के द्वारा वे लोगों के मनोबल को ऊँचा रखने में समर्थ होते हैं। संत दादूदयाल के महत्व को रेखांकित करते हुए लेखक ने उक्त समय की राजनीतिक एवं सामाजिक स्थिति के बारे में लिखा है कि, “दादूदयाल के समय अकबर का शासन था। राजस्थान में छोटे-छोटे कई शासक थे। उसमें से बहुत से राजाओं ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली थी। उसके पूर्व का समय अधिक उथल-पुथल का था। हिंदू और मुसलमान का वैमनस्य चरम पर था। उपासना और पद्धति को लेकर अत्यधिक वैमनस्य का वातावरण था। धर्मांतरण निरंतर चल रहा था।” इस तरह के राजनीतिक, सामाजिक परिस्थिति में संतों के सामने सामाजिक समरसता स्थापित करना और दोनों ही समुदायों के लोगों को एक साथ लाना बहुत ही चुनौतीपूर्ण था। यह भी ध्यान देने योग्य है कि यदि ये संत अपने कुछ शिष्यों और अनुयायियों के साथ युद्ध करने जाते तो दमनकारी शासन, सत्ता के हाथों अवश्य ही पराजित होते। इन्होंने इससे भी बड़ा काम अपनी बानियों के द्वारा समाज को जागरूक करने का कार्य किया, जो किसी ख़ूनी संघर्ष से संभव नहीं था।

इस चुनौती का सामना करने के लिए ही संतों ने हिंदू-मुस्लिम समुदाय में व्याप्त अतिवाद का प्रतिरोध किया। इन्होंने निडरता से तथा बिना किसी का पक्ष लिए दोनों ही समुदायों में स्थित विघटनकारी रीतियों-नीतियों, धार्मिक रूढ़ियों का विरोध किया।  प्रस्तुत पुस्तक में लेखक ने दादूवाणी के अंतर्गत संगृहीत ‘साँच का अंग’ में महत्वपूर्ण पंक्तियों को रखा है। संत दादूदयाल कहते हैं–

“दादू यह सब किसके पंथ में, धरती अरु आस्मान।
पानी, पवन दिन रात का, चंद सूर रहमान॥
ब्रम्ह विष्णु महेश का, कौन पंथ गुरुदेव।
साईं सिरजनहार तू, कहिये अलख अभेव॥
मुहम्मद किसके दीन में, जिब्राईल किस राह।
इनके मुर्शिद पीर की, कहिये एक अल्लाह॥”

इस तरह के बहुत से पद संतों ने जनभाषा में रचे हैं। इन्हें वे अपने शिष्यों और आमजन के बीच गाया करते थे। शिष्यों ने इन बातों को आमजन के बीच पहुँचाया। भले ही संतों द्वारा किया गया यह महत्वपूर्ण कार्य उस समय के दरबारी इतिहासकारों की नज़र में कोई महत्व न रखता हो, लेकिन विपरीत परिस्थितियों में, ख़ून-ख़राबे के माहौल में, अन्याय और अत्याचार के परिवेश में, इन्होंने भारतीय जनमानस को सँभालने का महत्वपूर्ण कार्य किया। दादूदयाल भी इस तरह की स्थितियों से अनभिज्ञ नहीं थे, “व्यावहारिक धरातल पर दादूदयाल उस समय के हिंदू, मुसलमान के संघर्षों को बहुत क़रीब से देख रहे थे। सत्ता संघर्ष के साथ-साथ दैनिक वैमनस्य चरम पर था। अकबर के सत्तारूढ़ होने के बावजूद राज संघर्षों में कोई कमी नहीं आने पाई थी, क्योंकि उस सत्ता का विस्तार ही युद्ध और आक्रमणों से हो रहा था। राज्य विस्तार और एकीकरण की अकबर की नीतियों को हिंदू जनता इस्लाम के विस्तार के रूप में देख रही थी। हिंदू राजाओं के आपसी संघर्ष भीषण थे। छुआछूत, जाति व्यवस्था के संघर्ष तथा ऊँच-नीच की भावना ने समाज को जर्जर कर रखा था।” लेखक का यह कथन दादूदयाल के गहरे समकालिक बोध को दर्शाता है। उस समय में संत मात्र पारलौकिक चिंतन नहीं कर रहे थे, बल्कि व्यापकता में देखा जाए तो पारलौकिक चिंतन के बहाने इहलौकिक चिंतन ज़्यादा है।

समाज को स्थिर और वैमनस्य मुक्त बनाना संतों की मुख्य चिंता है। प्रस्तुत पुस्तक में लेखक ने सप्रमाण साक्ष्य प्रस्तुत किए हैं। इस दृष्टि से संपूर्ण भक्ति साहित्य किसी सफल सामाजिक क्रांति से कमतर नहीं है। अपने इस महत्त उद्देश्य को ध्यान में रखकर, इन्होंने हिंदू और मुसलमान दोनों समुदायों के धार्मिक, सामाजिक कट्टरता का खुलकर विरोध किया है। दोनों समुदायों के आंतरिक अतिवादों का विरोध किया है। इन्होंने विरोध के साथ-ही-साथ दोनों समुदायों को समझाने का भी कार्य किया है। लेखक ने दादूदयाल के पद का उल्लेख करते हुए लिखा है कि ‘हिंदू और मुसलमान शरीर के अंगों की तरह हैं। एक हाथ, एक पैर, एक कान और एक आँख अपंगता की पहचान हैं। दोनों मिलाकर ही पूर्ण और बलवान होते हैं।’ दादूदयाल के शब्दों में–

“दादू दोनों भाई हाथ पग, दोनों भाई कान।
दोनों भाई नैन है, हिन्दू मुसलमान॥”

दादू ने दोनों ही समुदायों के बाह्यडंबरों का विरोध करते हुए लिखा है कि-

“जोगी जंगम सेवड़े, बौद्ध सन्यासी शेख।
षट् दर्शन दादू राम बिन, सबै कपट के भेख॥
दादू शेख मशायख औलिया, पैगम्बर सब पीर।
दर्शन सौं परसन नहीं, अजहूँ वैली तीर॥”

इन सबसे स्पष्ट है कि यह सब पारलौकिक चिंतन नहीं है, बल्कि इस तरह की पंक्तियों में दादूदयाल के गहरे सामाजिक बोध की झलक मिलती है। लोक की चिंता और उसके बाद चिंतन से, सामाजिक समरसता, आपस में एकता स्थापित करने का महत्वपूर्ण उद्देश्य प्रकट होता है।

दादूपंथ में जगजीवनदास जी का महत्वपूर्ण स्थान है। प्रस्तुत पुस्तक में लेखक ने द्वितीय अध्याय के अंतर्गत जगजीवनदास जी की जीवनी एवं रचनाओं के बारे में महत्वपूर्ण विश्लेषण प्रस्तुत किया है। ‘श्री दादूपंथ परिचय’ में इस पंथ के इतिहासकार कविरत्न स्वामी नारायणदास ने सूचना दी है कि इनकी वाणियों की संख्या लगभग ग्यारह हज़ार है। इन्होंने अहंकार और द्वेष से रहित साधु जीवन की वकालत की है। इनकी वाणियों में ईश्वर के नाम महत्व पर विशेष बल दिया गया है, “ये नाम स्मरण के महत्व के सामने व्याकरण का पाठ, वेद, पुराण, भागवत, गीता का पांडित्य, कुरान और पुराण का ज्ञान आदि को चुनौती देते हैं।” इनके अनुसार ईश्वर की साधना में किसी प्रकार के प्रपंच की आवश्यकता नहीं है। जगजीवनदास जी ने अपनी वाणियों में सत्संगति के महत्व को प्रमुखता से प्रतिपादित किया है। इनके अनुसार सत्संगति के अभाव में राम नहीं मिलते हैं और न ही कोई साधना इसके बिना सुगम तरीक़े से संपन्न हो सकती है। सज्जनों की संगति से ही ज्ञान की समझ होती है। इस बात को समझाने के लिए इन्होंने कई प्रकार के दृष्टांत अपनी वाणियों में प्रस्तुत की है। प्रस्तुत पुस्तक में और भी बातों पर विस्तार से विवेचन विश्लेषण किया गया है। जिससे जगजीवनदास जी की वाणियों की रचनात्मक शक्ति उजागर होती है।

इस परंपरा के एक अन्य महत्वपूर्ण संत रज्जब हैं। तृतीय अध्याय के अंतर्गत इन पर विस्तार से विचार किया गया है। राघवदास के ‘भक्तमाल’ में दादूदयाल के बावन शिष्यों की सूची दी गई है, उसमें तीसरी पंक्ति में रज्जब का नाम आता है। इससे पता चलता है कि ये इस पंथ के कितने महत्वपूर्ण संत हैं। इन्होंने संत दादूदयाल के पदों को संगृहीत करने का महत्वपूर्ण कार्य किया। इनकी पहली कृति ‘अंगबंधू’ या ‘अंगबंधी’ है, जो दादूदयाल की रचनाओं का संग्रह है। रज्जब की वाणियों का विशाल संग्रह ‘रज्जबवाणी’ है। यह छह भागों में विभाजित है। इनके विभिन्न भागों एवं उपभागों का विस्तृत वर्णन प्रस्तुत पुस्तक में विस्तार से दिया गया है। इसके अलावा संत रज्जब ने एक और बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य 138 संतों की वाणियों को संगृहीत करके किया है। इसका संपादन ‘सर्वंगी’ नाम से किया गया है। इसका संग्रह करते समय रज्जब ने सगुण और निर्गुण कवियों का भेद नहीं किया है। इसमें सगुण कवियों के साथ-साथ संस्कृत तथा अन्य भाषा के कवियों को भी स्थान दिया गया है।

संत रज्जब के विचारों और चिंतन पर उनके गुरु दादूदयाल का स्पष्ट प्रभाव है। रज्जब उस ईश्वर की उपासना करते हैं, जो अवतार नहीं लेता है। जो जन्म-मरण के बंधन से मुक्त है, वह निर्गुण और निराकार है। वे कहते हैं कि ईश्वर की उपासना चाहे जितने प्रकारों से की जाय, वे अंततः एक ही ब्रह्म के पास पहुँचती हैं। जैसे सभी नदियों का जल अंततः समुद्र में ही समाता है। रज्जब ने सवैया में अपनी बात को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि–

“जैन जोग अरु शेख सन्यासी, सु भक्त बौद्ध भगवंत हिं धावै।
बोवत बीज परै धर क्यों हूँ, अंकूर उदै होय ऊँचे ही आवैं॥
नौं कुली नाग परे नव खंड में, पंख लहैं सोई चंदन जावैं।
दशों दिशि नीर बहै सरिता सब, रज्जब सोई समुद्र समावै॥”

पृथ्वी पर स्थित सभी जीवों में समानता का भाव उनकी रचनाओं में प्रतिपादित होता है। वे “शब्द और उदाहरण आम जनता के बीच से उठाते हैं। सुबह से शाम तक जिन वस्तुओं से आमना-सामना होता है, वे ही उनकी कविता का हिस्सा बनते हैं।” रज्जब की मुख्य चिंता समरस समाज की स्थापना है। इसके लिए वे हिंदू और मुसलमान दोनों को ही समझाते हैं। वे कहते हैं कि जो दूसरों को दुःखी करता है वह स्वयं इससे बच नहीं पाता है। अपने द्वारा किये गये कर्मों का फल अपने ही सामने आता है। इन्होंने समरस समाज की स्थापना के लिए व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर लोगों से बहुत सी बुराइयों को छोड़ने के लिए कहा। रज्जब हिंसा के विरोधी हैं तथा वे इसी कारण से शाकाहार पर बल देते हैं। इससे संबंधित बहुत से पद, दृष्टांत के साथ रज्जब की वाणियों में मिलते हैं। वे लोगों के साथ ही साथ संतों को भी बिना किसी भेदभाव के सबको समान शिक्षा या उपदेश देने की बात करते हैं। रज्जब ने इस बात को साबुन और जल के माध्यम से स्पष्ट करते हुए लिखा है कि साबुन और जल, वस्त्र को धोते समय हिंदू और मुसलमान नहीं देखते–

“रज्जब साबुन सलिल का, सुनहु सनेही हेत।
देखहु हिन्दू तुरक के, वसतर करहिं सु सेत॥”

संत रज्जब के विषय में और भी बहुत सी बातों का उल्लेख प्रस्तुत पुस्तक में किया गया है। लेखक ने रज्जब की एक-एक रचनाओं का विश्लेषण यहाँ प्रस्तुत किया है। इसी क्रम में वे रज्जब के ‘बावनी अक्षर उद्धार ग्रंथ’ का उल्लेख करते हैं। इस ग्रंथ में ‘क’ से लेकर ‘ह’ तक के प्रत्येक वर्ण के ऊपर साखियाँ लिखी गई हैं। ‘ओ’ , ‘ए’ और ‘औ’ पर भी एक-एक साखी है।’ यह ग्रंथ संत रज्जब के रचनात्मक प्रतिभा को प्रदर्शित करता है। संत रज्जब का इतना विशद और प्रामाणिक अध्ययन शायद ही कहीं और देखने को मिले।

इसी पुस्तक के चतुर्थ अध्याय के अंतर्गत बहुत ही महत्वपूर्ण संत और कवि सुन्दरदास के बारे में विस्तृत रूप से विचार किया गया है। सुन्दरदास पर विचार करने से पहले लेखक ने इसी अध्याय में दादूपंथ के महत्वपूर्ण संतों के विषय में संक्षिप्त किंतु महत्वपूर्ण जानकारी प्रस्तुत की है। इसके अंतर्गत लेखक ने ‘बखना’ और ‘मोहन दफ्तरी’ के महत्व को भी रेखांकित किया है, जो अत्यंत महत्वपूर्ण है, जिनके विषय में बहुत कम बातचीत की जाती है।

सुन्दरदास का नाम सर्वाधिक सुशिक्षित संत के रूप में लिया जाता है। इन्हें इस पंथ में ‘दूसरे शंकराचार्य के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है।' ये बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। ये अच्छे कवि के साथ गायक और वीणावादक भी थे। इनके विषय में 'भक्तमाल' में विस्तार से बताया गया है। लेखक ने इनके देशाटन और तीर्थाटन की प्रवृत्ति को प्रमुखता से व्यक्त किया है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ ग्रंथ में इनकी प्रशंसा की है। इनके छोटे-बड़े अनेक ग्रंथ हैं। इन सब में से ‘सुन्दर विलास’ ही सबसे अधिक प्रसिद्ध है। इसमें कवित्त, सवैये अधिक हैं तथा इसकी रचना काव्य पद्धति से होने के कारण अन्य संतों की रचना से भिन्न दिखाई देती है।

इनका देशाटन संबंधी ग्रंथ ‘दशों दिशा के दोहे’ नाम से प्राप्त होता है, जिसमें पद्य में योजनापूर्वक यात्रा वृत्तांत सुन्दरदास ने लिखा है। पद्य में यात्रा वृत्तांत लिखने वाले ये पहले साहित्यकार हैं, जिसकी प्रशंसा साहित्य जगत के प्रमुख विद्वानों ने की है। लेखक ने इसके महत्व के विषय में प्रस्तुत पुस्तक में विस्तार से विचार किया है। सुन्दरदास की एक अन्य महत्वपूर्ण रचना ‘ज्ञान समुद्र’ है, जिसकी भाषा ब्रज है। इसमें इन्होंने सरस ब्रजभाषा में दर्शन के गूढ़ विषयों की चर्चा की है। यह ग्रंथ गुरु और शिष्य के संवाद के रूप में लिखा गया है। शिष्य गुरु से विभिन्न विषयों के बारे में प्रश्न करता है। गुरु अलग-अलग छंदों में उसका उत्तर देता है। यह इस दृष्टि से बहुत ही अनूठा ग्रंथ है। इसके अलावा भी सुन्दरदास के महत्वपूर्ण ग्रंथों का विवेचन विश्लेषण लेखक द्वारा इस पुस्तक में किया गया है, जो अन्यत्र देखने को नहीं मिलता है। ‘वेद विचार’ और ‘सांख्य को अंग’ आदि पर प्रामाणिक विवेचन यहाँ किया गया है।

लेखक ने सुन्दरदास के विभिन्न ग्रंथों के विवेचन-विश्लेषण के उपरांत यह निष्कर्ष दिया है कि, “सुन्दरदास के साहित्य का पाठ करने पर यह ध्यान में आता है कि इस निर्गुण कवि के भीतर सगुण के तत्व यत्र-तत्र अनायास उपस्थित होते हैं।'' ये वर्णाश्रम और वर्ण व्यवस्था की चर्चा अपने-अपने धर्म में बाँधे रखने के संदर्भ में करते हैं। वे इसके लिए पशु का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि खुले होने पर वह इधर-उधर भागता है। जब उसे खूँटे से बाँध दिया जाता है तो वह स्थिर रहता है। वैसे ही वेद की विधियाँ अपने-अपने धर्म और कर्म में रहने की एक व्यवस्था है–

‘‘बरणाश्रम बंधेज करि, अपने अपने धर्म।
ब्राह्मण क्षत्रिय बैश्य पुनि, शूद्र दिढाये कर्म॥’’

इस पंथ के एक अन्य महत्वपूर्ण संत निश्चलदास जी हैं, जिनके विषय में प्रस्तुत पुस्तक में विस्तृत रूप से विचार किया गया है। इनसे संबंधित प्रामाणिक जानकारी प्रस्तुत पुस्तक में दी गई है। ये इस पंथ के बहुत ही विद्वान संत हैं। ये नियमित रूप से दादूवाणी का पाठ और वेदांत का अध्ययन किया करते थे। इनके ग्रंथ ‘विचार सागर’ और ‘वृत्ति प्रभाकर’ के रूप में प्राप्त होते हैं, जिसका इनके शिष्यों ने व्यापक प्रचार-प्रसार किया। निश्चलदास ने अपने ग्रंथ में दर्शन विषयक चर्चाएँ अधिक की हैं, इन्होंने जनभाषा में वेदांत को प्रस्तुत करने का महत्वपूर्ण कार्य किया। इस कारण से उस कालखंड में इनकी बहुत ख्याति थी। दादूपंथ में निश्चलदास जी का महत्वपूर्ण स्थान है।

इसके अलावा प्रस्तुत पुस्तक में दादूवाणी, जगजीवनदास की वाणी, रज्जब वाणी , सुन्दरदास की रचनाओं के अंतर्गत इन संतों की वाणियों का उत्कृष्ट संग्रह किया गया है, जो इन संतों को समझने में, इनके विचारों को समझने में बहुत हद तक उपयोगी है। लेखक ने प्रस्तुत पुस्तक में स्वीकार किया है कि दादूपंथ के शिखर संतों का निर्धारण करना कोई सरल कार्य नहीं है। क्योंकि इस पंथ में विद्वान संतों की एक लंबी परंपरा है, जिनमें गरीबदास, जयतराम, जगन्नाथदास, गोपालदास, बखना, वाजिन्द, प्रहलाददास और जनगोपाल जैसे महत्वपूर्ण संत हैं।

प्रस्तुत पुस्तक संत साहित्य को ही नहीं बल्कि पूरे भक्ति साहित्य को समझने की एक नवीन दृष्टि प्रदान करती है। अब तक भक्ति साहित्य को विभिन्न खाँचों में बाँटकर पढ़ा, समझा और समझाया जाता रहा है। निर्गुण-सगुण, ज्ञानमार्गी- प्रेममार्गी, राममार्गी-कृष्णमार्गी, शैव-शाक्त आदि न जाने कितने खांचों में संत भक्त कवि बँटे हुए हैं। इसे लेकर विद्वान भी बँटे हुए हैं और इनका अनुसरण कर समाज भी बँटा हुआ है। अपने-अपने पक्ष को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए आपसी संघर्ष भी है। संतों और भक्तों को पढ़कर ऐसा क़तई नहीं लगता कि ये किसी भी प्रकार के सामाजिक टकराव के समर्थक थे। प्रस्तुत पुस्तक में लेखक ने संत साहित्य के उद्देश्य को व्यक्त करते हुए लिखा है कि “समता और सामाजिक समरसता का विचार संत साहित्य का मूल प्रतिपाद्य है। जीवन को सुखी, संपन्न और स्वस्थ बनाने का विचार संतों ने दिया। इनका चिंतन इस लोक से पलायन का नहीं है, लोक जीवन को सुखमय रखते हुए परलोक की प्राप्ति का अवश्य है। लौकिक जीवन का उत्कर्ष और पारलौकिक जीवन की प्राप्ति दोनों की चिंता का साहित्य भक्ति साहित्य है।” भक्ति साहित्य के अंतर्गत सगुण और निर्गुण दोनों ही आ जाते हैं। अतः किसी भी भक्तिकालीन संत या भक्त कवि के काव्य को देख लीजिए, उनमें विरोध की जगह विभिन्न पक्षों में सामंजस्य के तत्व अधिक मिलेंगे।

संतों ने लौकिक जीवन को या इस लोक को सुखमय बनाने का कोरा उपदेश मात्र ही नहीं दिया है। इन्होंने अपने कर्म एवं वाणी दोनों में सामंजस्य स्थापित किया है। यह आज के समय के संतों को भी आईना दिखाता है, जो संतई को ही धंधा बना लेते हैं। लोगों के द्वारा दिए गये दान-दक्षिणा पर ही निर्भर रहते हैं, “कविता और साधुता श्रमजीविता के साथ कैसे चलती है, इसे देखना हो तो दादूपंथ में शिक्षित संतों और सेवकों को देखकर समझा जा सकता है।” इस पंथ के संतों ने सुनियोजित तरीक़े से अन्य संतों की वाणियों को संगृहीत किया और सुरक्षित रखा। संत साहित्य को समृद्धि प्रदान करने में इन संतों का महत्वपूर्ण योगदान है।

प्रस्तुत पुस्तक में लेखक ने एक बहुत महत्वपूर्ण बात कही है, वह यह कि– “भक्तिकाल हिंदी साहित्य के इतिहास का स्वर्णयुग है तो कुछ प्रसिद्ध और चर्चित कवियों के कारण ही नहीं, इसे स्वर्णयुग बनाने में इन अल्पख्यात कवियों की बहुत बड़ी भूमिका है।” जिनकी भूमिका का पूरी तरह से मूल्यांकन होना अभी बाक़ी है। इस दृष्टि से भी यह पुस्तक अत्यंत ही महत्वपूर्ण है। यह पुस्तक इन अल्पख्यात संतों की रचनाओं को साहित्य के केंद्र में लाती है, साथ ही इनके माध्यम से भक्ति साहित्य के विषय में लेखक द्वारा किया गया विश्लेषण, भक्ति साहित्य को समझने के लिए एक नवीन और निष्पक्ष दृष्टि प्रदान करती है।

 डॉ. विजय मणि त्रिपाठी
असिस्टेंट प्रोफेसर आत्माराम सनातन धर्म महाविद्यालय
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
 

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