अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

दहेज़

"बाक़ी सब तो ठीक है। लड़की भी पसंद कर ली है हमने। अब ज़रा मान-सम्मान की बात भी कर ली जाए तो बेहतर होगा," लड़के के पिता ने नपे-तुले शब्दों में अपनी फ़रमाइशें रखनी शुरू कीं।

"वैसे तो हमारा परिवार बहुत बड़ा है। सभी का स्वागत-सत्कार और सम्मान होना चाहिए जी। आपकी भी लड़की है, वैसे आप तो बिन माँगे ही सब कुछ देंगे ही। फिर भी लेने-देने की बात स्पष्ट हो तो अच्छा है," इस बार लड़के की माँ ने अपनी बात रखी।

"जी बिल्कुल सही कहा आपने। हम तो सिर्फ़ दे ही रहे हैं।  पहले तो लड़की और ऊपर से पढ़ी-लिखी। जो आपके परिवार की मान-प्रतिष्ठा में वृद्धि ही करेगी और कई पीढ़ियों तक शिक्षा रूपी धन से आपके परिवार को समृद्ध भी करती रहेगी। अब आप बताइये, लड़के के रूप में आप क्या दे रहे हैं?" लड़की की माँ ने बड़े गर्व से अपनी बेटी के सिर पर हाथ फेरते हुए लड़के वालों से प्रश्न पूछा।

अब की बार लड़केवाले चुप थे।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

पाण्डेय सरिता 2021/06/27 10:51 AM

बहुत बढ़िया

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

पुस्तक समीक्षा

लघुकथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं