अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

दलबदलू

सुरेश को आगे की पढ़ाई करने के लिये हॉस्टल गये अभी साल भी नहीं गुज़रा था कि पिता का पत्र मिला कि बेटे तुम कुछ दिन की छुट्टी ले कर घर आ जाओ तुम्हारी माँ तुम्हें बहुत याद करती है। उसकी तबीयत भी ठीक नहीं रहती है। सुरेश ने सोचा ज़रूर माँ की तबीयत कुछ ज़्यादा ही ख़राब होगी। नहीं तो पापा ऐसा नहीं लिखते। उसने तुरन्त हफ़्ते की छ्ट्टी ली और घर आ गया।

माँ सचमुच कुछ अधिक ही बीमार थी, लेकिन बेटे को देखते ही तुरन्त उठ बैठी। जैसे बेटे का दर्शन माँ के लिये संजीविनी बन गया। हफ़्ते बाद सुरेश माँ के ठीक होने पर हॉस्टल लौट आया।

अब वह शादी-शुदा है। बाप भी बन गया। फिर भी माँ के प्रति उसके प्यार में परिवर्तन नहीं आया। पिता के गुज़र जाने के बाद उसने माँ को गाँव से अपने पास ही बुला लिया। माँ का बेटे के पास आना था कि सुरेश और उसकी पत्नी में रोज़ खटपट चलने लगी। पत्नी ताक में रहती कैसे इस बला को घर से निकाला जाया। रोज़ कोई न कोई कहानी घड़कर पति को सुनाती। पति चुपचाप सुनता रहता। एक दिन तो हद हो गई। माँ को रात में प्यास लगी उसने फ्रिज खोल कर ठंडा पानी निकाल कर क्या पी लिया घर में जैसे तूफ़ान आ गया।

सुरेश के काम से लौटने पर चाय नाश्ता परोसते समय पत्नी बोली, "तुम्हारी माँ का पेट है कि कुआँ दिन भर खा कर भी नहीं भरता रात को भी उठ-उठ कर खाती रहती है।"

"कभी तो घर आने पर दो मिनिट आराम करने दिया करो। आते ही शुरू हो जाती हो। माँ क्या सोचेंगी?" सुरेश ने सख्ती से कहा।

माँ को सुनाने के लिये ही बहू ने बात ज़रा ज़ोर से कही थी ताकि माँ को सुन जाये।

"मैंने कुछ ग़लत तो नहीं कहा," पत्नी तुनक कर बोली।

पास बैठी माँ ताड़ गई। बोली, "कुछ खाने को नहीं उठी थी बेटे, गला खुश्क हो रहा था सोचा नींबू पानी पी लूँ। ठंडा पानी लिया था तेरे फ्रिज से। खाया तो कुछ नहीं।"

बेटे के दिल को भी ठेस लगी। वह कुछ नहीं कह सका पत्नी के आगे क्या बोलता। ख़ामोश रहा।

पूरी जिन्दगी तो पत्नी के साथ काटनी है। किसी नेता की तरह फ़ायदे वाले पक्ष में चला गया।
माँ की सफ़ाई उसे शर्मिंदा तो कर गई, लेकिन ज़ुबान पर जैसे ताला लग गया हो।

माँ दिल पर लगी इस बात से सारा दिन बुखार में पड़ी छटपटाती रही।

दूसरे दिन भी शाम को घर आने पर बेटे ने न माँ से बात की, ना हाल पूछा।

वहाँ रहने का कोई मतलब नहीं अब। माँ ने गाँव लौटने का फ़ैसला कर लिया। बेटे को बता दिया। बेटे ने एक बार भी नहीं कहा, मत जाओ माँ गाँव में अकेली कैसे रहोगी? वह तो दल बदलू हो चुका था।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

होम सुवेदी 2020/10/10 03:55 PM

बहुत अच्छी। आज समाज का हालात यही है।

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

कविता - हाइकु

लघुकथा

चोका

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं