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दलित-वैचारिकी में गाँधी विरोध - क्या तथ्य, क्या कुतर्क

कथा क्रम /अप्रैल-जून 2005/ में मूलचंद सोनकर का लेख ‘दलित-वैचारिकी में गाँधी विरोध- कितना अनुसरण कितनी सिद्धांतखोरी’ निश्चित रूप से लेखक के व्यापक अध्ययन, उच्चस्तरीय विद्वता एवं तार्किकता का जीवंत प्रमाण है। यह लेख लेखक की ’ऐतिहासिक तथ्यों’ के माध्यम से समझाने वाली योग्यता के कारण साधारण बुद्धि के घोर गाँधीवादियों तक को गाँधी के विरुद्ध हृदयपरिवर्तन कर देने की क्षमता रखता है। ऐसे गहन लेख को सरसरी निगाह से पढ़ने पर एक खतरा अवश्य रहता है कि ‘बिटवीन दी लाइन्स’ लिखी हुईं बातें ध्यान में आने से छूट जातीं हैं और पाठक तथ्यों के बजाय लेखक की विद्वत्ता से अधिक प्रभावित हो जाता है। मैं पाठक को यह स्मरण कराना चाहता हूँ कि विद्वता एवं तार्किकता से प्रस्तुत प्रत्येक बात सत्य नहीं होती है – विशेषतः तब जब विद्वान लेखक अपने पूर्वाग्रह को स्थापित करने मात्र के उद्देश्य से लिख रहा हो।

मूलचंद सोनकर ने अपने ल्रेख के प्रत्येक उपशीर्षक में कतिपय सूत्रवाक्य दिये हैं। मैं उनकी ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा। ‘दलित समस्या पर गाँधी के विचार- ढोंग या योगदान’ उपर्शीर्षक में सूत्रवाक्य हैं :

‘इसमें कोई दो राय नहीं कि वर्ण-व्यवस्था का सिद्धांत इस देश के समाज का सबसे घृणित, वीभत्स एवं आततायी चेहरा रहा है..................... वास्तविकता तो यह है कि यदि इस देश में अंग्रेज़ों का राज्य स्थापित न हुआ होता और उन्होने कानून सम्मत समानता पर आधारित शासन प्रणाली न अपनाई होती तो दलित आंदोलन जैसी किसी बीज की कल्पना की ही नहीं जा सकती थी.................मिशनरियों की समानता के दृष्टिकोण ने ही वंचितों को असमानता एवं शोषण का अर्थ भी समझाया होगा, इसमें संशय नहीं होना चाहिये................ अंग्रेजी शासन के विरुद्ध चलाया गया राष्ट्रीय आंदोलन प्रकारांतर में दलितों, आदिवासियों को शाश्वत पराधीन बनाये रखने का ही आंदोलन था........................ऐसी स्थिति में गाँधी के सामने एक ही विकल्प था कि वह दलित एवं आदिवासियों को भी अपने आंदोलन में जोड़कर उन्हे हिंदू धर्म की घुट्टी पिलाकर ठगें..............गाँधी का यह कदम भी राजनीति से प्रेरित था जिसका अंतिम उद्देश्य वर्ण-व्यवस्था को अक्षुण्ण रखते हुए इनकी यथास्थिति बनाये रखना था’

वास्तविकता को समझने के लिये पाठकों द्वारा इन सूत्रवाक्यों की मीमांसा सच्चाई, निष्पक्षता, एवं देश-काल की कसौटी पर किया जाना आवश्यक है। इसमें संदेह नहीं कि जन्मजात जाति-प्रथा का निहित उद्देश्य शोषण एवं अत्याचार था, जो किसी सभ्य समाज के लिये घृणा एवं लज्जा की बात है। यह भी सत्य है कि ईसाई मिशनरियों ने आदिवासियों में शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किया है।

परंतु यह परीक्षण का विषय है कि इस कारण इस देश के उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के महान समाज सुधारकों को गरियाना एवं अंग्रेज़ों और ईसाइयों को महिमामंडित करना कहाँ तक तथ्याधारित है। यह विचारणीय है कि यदि अंग्रेज इतने कानूनपरस्त एवं समतावादी थे तो उन्हें अपने एकछत्र शासन के दौरान दलितों को उसी प्रकार के कानूनी अधिकार, जैसे आज प्रदत्त हैं, देने से कौन रोक सकता था?

भारतीय समाज के अत्याचारों और ईसाइयों के समानता के दृष्टिकोण के विषय में लेखक के मत को भी वैश्विक इतिहास, देश, एवं काल के परिपेक्ष्य में परखना होगा। क्या लेखक महोदय ने इन तथ्यों पर ध्यान दिेया है किः-

1. प्रथम और द्वितीय सहस्राब्दि में ईसाईं लोग घोड़ों पर बैठकर अफ्रीका में मनुष्यों को उसी प्रकार दौड़ाकर पकड़ते थे जैसे खेद्दा के दौरान हाथी पकड़े जाते ह और फिर उन्हें इतनी मजबूती से जहाज की जंज़ीरों में जकड़ देते थे जैसे जानवर जकड़े जाते हैं; और उन्नीसवीं सदी और उसके उपरांत तक भी अमेरिका के कईं राज्यों में ये काले लोग अपने परिवार पर अथवा जीवन पर केवल उतना ही अधिकार रखते थे जितना बकरी-गाय अपने पर रखतीं हैं; यह तब भी था जब कि अधिकतर काले लोग स्वयं ईसाई धर्म अपना चुके थे?

2. ईसाइयों द्वारा शासित दक्षिणी अफ्रीका में अभी हाल तक काले लोगों /ईसाइयों समेत/ की सामाजिक एवं राजनैतिक स्थिति उतनी खराब थी जितनी भारत के दलितों की कम ही रही है?

3. ईसाइयों द्वारा अपने ही घर्म के ‘धार्मिक’ विरोधियों को आग में जलवा देने की सजा तीन-चार सौ साल पहले तक दी जाती रही है?
4. हिटलर, जिसने साठ लाख निरपराध यहूदियों केा नृशंसता से मरवाया था, एक ईसाई था?

5. गुलाम बनाना और उन्हें खरीदना-बेचना हिंदुओं के बजाय ईसाइयों और मुस्लिमों में प्रचलित रहा है?

जिस काल में वर्णव्यवस्था बनी और फली-फूली, उस काल में आज की तरह मानवाधिकारवादी सोच शायद ही किसी समाज, देश या धर्म में रही हो। विख्यात इतिहासकार ए. एल. बाशम, जो हिंदू नहीं था, ने अपनी पुस्तक ‘द वंडर दैट वाज इंडिया’ में लिखा है कि अपने काल के सापेक्ष भारतीय समाज संसार के अन्य समाजों की तुलना में कहीं कम क्रूर और अधिक सहनशील रहा है। हाँ, यह अवश्य है कि अट्ठारहवीं, उन्नीसवीं एवं बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में जब यूरोप के अधिकतर स्वतंत्र देशों/परंतु यूरोपियनों द्वारा कब्जा किये देशों में नहीं/में मानवाधिकारों की सोच पल्लवित एवं क्रियान्वित हो रही थी, भारत पर विदेशियों एवं विधर्मियों का कब्जा होने के कारण हिंदू धर्मावलम्बियों की सोच एवं उनका दर्शन ऋणात्मक एवं कुंठित ही बने रहे।

मुसलमानों और अंग्रेजों केा हिंदुओं में यह ऋणात्मक सोच एवं जातिगत असमानता बनाये रखकर अपना राज चलाने में और धर्मप्रसार कराने में बड़ी सुविधा थी, अतः वे इस असमानता को कम करने के बजाय सवर्णों को राजे महाराजे का पद देकर अन्य जातियों पर अपना क्रूर नियंत्रण उनके माध्यम से रखते थे। अंग्रेजों ने तो इस हथियार से स्वयं को पाक-साफ साबित करने की कला में महारत हासिल कर ली थी। अंग्रेज यदि आदिवासियों के इतने ही हमदर्द थे, तो उनकी सरकार ने नागालैंड, मीज़ोरम, उड़ीसा, आंध्र आदि के आदिवासी क्षेत्रों में सरकारी स्कूल खोलकर सेकुलर शिक्षा का प्रचार प्रसार क्यों नहीं किया? शिक्षा को मिशनरियों द्वारा धर्मपरिवर्तन का माध्यम क्यों बनाया? सत्य तो यह है कि हिंदू धर्म /इस्लाम अथवा ईसाई धर्म नहीं/अपनी आलोचना एवं अपने में सुधार की इतनी खुली छूट देता है कि यदि भारत परतंत्र न रहा होता, तो सदियों पहले हिंदू धर्म वर्णव्यवस्था के चंगुल से छूट गया होता।

यहाँ यह प्रश्न किया जा सकता है कि गत 58 वर्ष की स्वतंत्रता के दौरान हिंदू धर्म वर्णव्यवस्था क्यों समाप्त नहीं कर सका है?

यद्यपि पुरानपंथियों एवं धार्मिक गुरुओं का स्वार्थ एवं उनकी रूढ़वादिता इसका एक महत्वपूर्ण कारण है, तथापि उतने ही महत्व का कारण यह भी है कि जातियों का अस्तित्व दलित एवं पिछड़े वर्ग में उभरे शक्तिशाली राजनैतिक एवं अधिकारी वर्ग के स्वार्थसाधन का माध्यम बन गया है; और यह वर्ग जाति-व्यवस्था की समाप्ति में एवं वास्तविक रूप में निर्बल व्यक्तियों के उत्थान में अपने स्वार्थों पर कुठाराधात होने का खतरा देख रहा है। यह शक्तिशाली वर्ग जानता है कि आरक्षण के माध्यम से की जा रही राजनीति में इसका वर्चस्व तभी तक है जब तक हिंदू समाज जातियों में बंटा रहेगा और इस वर्ग का भला इसी में है कि आरक्षण के द्वारा प्राप्त लाभ दलितों में पैदा हुए यह नव-ब्राह्मण आपस में बाँट लें और उन लाभों को नीचे के स्तर के परिवारों में न पहुँचने दें, क्योंकि यदि आरक्षण का लाभ निम्न-स्तर के दलित को मिलने लगा तो शीघ्र ही दलितों का उत्थान हो जायेगा और वह स्थिति आ जायेगी जो आरक्षण व्यवस्था की समाप्ति का कारक होगी।

मूलचन्द सोनकर का मत है कि अंग्रेजी शासन के विरुद्ध चलाया गया राष्ट्रीय स्वतंत्रता का आंदोलन दलितों, आदिवासियों को शाश्वत पराधीन बनाये रखने का आंदोलन था। राष्ट्रीय स्वतंत्रता के आंदोलन को कार्यविधि के अनुसार मुख्यतः तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है- गाँधी जी का शांतिपूर्ण सत्याग्रह जो दुराग्रही के हृदयपरिवर्तन पर विश्वास रखता था; आजाद, भगतसिंह आदि का अंग्रेजी सत्ता की ईंट से ईंट बजाकर उन्हें देश छोड़ने हेतु विवश करने का मार्ग; एवं सुभाषचंद्र बोस का देशी-विदेशी फौज की सहायता से अंग्रेजों को युद्ध में पराजित कर स्वतंत्रता प्राप्त करनें का मार्ग।

स्वतंत्रता आंदोलन की इन सभी धाराओं के अधिकांश नेता सवर्ण हिंदू अथवा मुस्लिम थे और इस तरह लेखक का आरोप सुभाष, भगतसिंह, अशफाकुल्ला, आजाद, जिन्ना, गाँधी, नेहरू, जयप्रकाश आदि सभी पर है कि उन्होने दलितों को शाश्वत पराधीन बनाये रखने के निहित उद्देश्य से स्वतंत्रता आंदोलन में कूदकर अपने सुख-चैन एवं अपने प्राणों की आहुति दी थी। किसी भी निष्पक्ष विचारक- चाहे वह दलित वर्ग का ही हो- को इस आरोप में निहित असत्य एवं कृतघ्नता को स्पष्ट करने की मुझे आवश्यकता नहीं है।

लेखक के मतानुसार गाँधी जी का दलितों को स्वतंत्रता आंदोलन में जोड़ने का उद्देश्य उन्हें हिंदू धर्म की घुट्टी पिलाकर ठगना था। इससे लगता है कि सोनकर जी को गाँधी जी से तब शिकायत नहीं होती, यदि गाँधी जी ने दलितों को स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ने के बजाय उनकी दयनीय यथास्थिति में छोड़ दिया होता। यदि गाँधी जी ने ऐसा किया होता तो आज सोनकर जी इस योग्य भी नहीं होते कि अपनी कुंठा को प्रकाशित करवा पाते। सोनकर जी को यह तो ज्ञात ही होगा कि अस्पृश्यता मिटाने और दलितों की सामाजिक स्थि सुधारने हेतु गाँधी ने मिन बस्तियों में जाकर अपने व अपनी पत्नी के हाथों से मैला सफाई के जो कार्य किये, उनकी मिसाल इतिहास- अम्बेडकराइट्स सहित- में मिलना कीठन है। यदि यह मान भी लिया जावे कि विवशतावश अथवा दलितों को ठगने के उद्देश्य से सवर्णों /गाँधी सहित/ ने उन्हें साथ लिया, तो स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात ऐसी कौन सी मजबूरी थी जिसके कारण संविधान और कानूनों में दलितों को न केवल समानता वरन् कम योग्य होने पर भी वरीयता का अधिकार दिया गया। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय अम्बेडकर का प्रभाव-क्षेत्र महाराष्ट्र के बाहर था ही कितना? सम्पूर्ण राजनैतिक व्योम में सवर्णों का वर्चस्व था और वे चाहते तो ऐसा संविधान पारित करा सकते थे कि दलितों को वरीयता मिलना तो दूर समानता तक के अधिकार से वंचित कर दिया जाता।

 ‘वर्ण-व्यवस्था और गाँधी’ उपशीर्षक में सोनकर जी के सूत्रवाक्य हैं,

‘हिंदू धर्म न केवल असमानता का धर्म है अपितु सिद्धांत के दिग्भ्रमिता का भी धर्म है।...........स्वयं गाँधी भी धर्म-भीरु थे फिर अस्पृश्यता को पाप कहने के पीछे क्या निहितार्थ थे?.........गाँधी देश में रामराज्य स्थापित करने के पक्षधर थे जो उनकी लोकतंत्र विरोधी राजशाही प्रवृत्ति का ही द्योतक है’

यह सत्य है कि हिंदू समाज में असमानता है और हिंदुओं की दिनचर्या में सिद्धांतहीनता है। परंतु विद्वान लेखक को इतना तो ज्ञात ही होगा कि हिंदू धर्म में दलितों को विवाह करने की वर्जना और उन्हें जानवरों की तरह नीलाम किये जाने की प्रथा कभी नहीं रही, जो लेखक द्वारा प्रशंसित ईसाई धर्म में सदियों तक प्रचलित थी। अन्य धर्मों की प्रधानता वाले देशों का इतिहास भी बहुत अच्छा नहीं है। बौद्ध बाहुल्य देशों यथा चीन में साम्यवाद के नाम पर हुए नरसंहार, श्रीलंका में किये जाने वाले नरसंहार, और जापान के तानाशाहों की बर्बरता से लेखक अनभिज्ञ नहीं होगा। सुन्नी शासित देशों में हिंदू धर्मावलम्बियों के अतिरिक्त शियों, अहमदियों, कुर्दों आदि के प्रति नृशंसता की प्रतिदिन घटित होने वालीं घटनायें लेखक के किस मापदंड के अनुसार समानता की द्योतक हैं। वास्तविकता यह हे कि सभी धर्म अंध-आस्था पर आधारित हैं जिनमें तर्कपूर्ण सत्य का स्थान या तो प्रतिद्वंद्वी के रूप में है, नहीं तो गौण है। बहुईश्वरीय मान्यता के कारण हिंदू धर्म में इतना लचीलापन अवश्य है कि कोई हिंदू ईसाइयों अथवा मुस्लिमों की तरह यह मानने को बाध्य नहीं है कि ‘गाड’ अथवा ‘अल्लाह’ को न मानने वाले का उद्धार सम्भव ही नहीं है और ऐसे लोगों का ‘हेल’ अथवा ‘दोजख़’ में झोंका जाना तय है; और ऐसे व्यक्ति को अपने धर्म में लाकर उसका उद्धार करना पुण्य का काम है।

गाँधी जी धर्मभीरु अवश्य थे- मानवधर्म-भीरु; अतः उन्होने अस्पृश्यता को पाप कहा। क्या सोनकर जी चाहते हैं कि गाँधी जी को अस्पृश्यता को पुण्य कहना चाहिये था? गाँधी जी ने अस्पृश्यता को पाप न केवल कहा, वरन मलिन बस्तियों में रहने वालों को गले लगाकर अपने जीवन में उस सिद्धांत को उतारा भी। दलित समस्या का झंडा उठाने वाले और गाँधी को षडयंत्रकारी कहने वाले किस नेता ने ऐसा किया है?

यह सच है कि गाँधी जी देश में रामराज स्थापित करना चाहते थे, परंतु ाँधी जी, जिनके नेतृत्व में देश स्वतंत्र हुआ एवं जनतंत्र स्थापित हुआ, को कोई सिरफिरा ही राजशाही का पक्षधर कह सकता है। विश्व के अधिकतर देश गाँधी को विश्व के अनेक देशों में जनतांत्रिक स्वतंत्रता आंदोलन का पथ-प्रदर्शक मानते हैं। सोनकर जी यदि रामराज शब्द का व्यापक अर्थ समझने के उपरांत ही गाँधी जी की मान्यताओं में षडयंत्र ढूँढें, तभी वह अपने को और दलितों को ऐतिहासिक एवं सामाजिक सत्य सही रूप में समझाने में सफल होंगे।

 ‘धर्म और गाँधी’ उपशीर्षक का सूत्रवाक्य है ‘किसी मंजे हुए शातिर धर्माचार्य की तरह......................... दलितों को मिले कम्यूनल एवार्ड के विरोध में अपने आमरण अनशन की घोषणा को गाँधी ने ईश्वरीय आदेश कहा था।’ गाँधी जी के निकट सम्पर्क में आये हुए देशी-विदेशी सभी व्यक्तियों का मत है कि वह मानवतावादी, समन्वयवादी एवं हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, दलित आदि सभी को मिलाकर चलने वाले व्यक्ति थे। उनके जीवन का उद्देश्य सभी को एकसूत्र में पिरोये रखकर स्वतंत्रता दिलाना था और उनके इसी प्रयास के कारण उनकी हत्या भी हुईं थी। कम्यूनल एवार्ड का विरोध कर गाँधी जी ने देश को दो के बजाय तीन हिस्सों में बंटने देने की सम्भावना से बचाने का कार्य किया था, जो कतिपय व्यक्तियों के स्वार्थ से टकराता था। ऐसे व्यक्ति यदि गाँधी जी को षडयंत्रकारी एवं ठग कहते हैं तो आश्चर्य नहीं होना चाहिये।

‘गेंद तो दलितों के ही पाले में’ उपशीर्षक का सूत्रवाक्य है ‘यदि दलित प्रतिनिधि किसी ऐसी पार्टी, जिसे वे समझते हैं कि दलितों के हितों की रक्षा नहीं कर सकेगी, के टिकट पर चुनाव लड़ने से इन्कार कर दें, तो क्या वह पार्टी कभी सत्ता का मुँह देख सकती है?’ इस सुझाव में दो कैच हैं जिन्हें समझना एवं स्पष्ट किया जाना आवश्यक है। पहला है दलित हित की परिभाषा का। आज अधिकांश दलित नेता दलित हित का अर्थ लगा रहे हैं कि देशहित को ताक पर रखकर भ्रष्टाचरण द्वारा धन दौलत इकट्ठी करो, और लुटेरों, माफियाओं और सवर्णों के जातिवादी नेताओं को अपने में मिलाकर चुनाव जीतो- बसपा द्वारा ब्राह्मण सम्मेलनों का आयोजन इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। दूसरा कैच आरक्षण से सम्बंधित है- सरकारी नौकरियों में आरक्षण का लाभ दलितों में उदय हुए नव-ब्राह्मणों तक सीमित रह गया है और दलितों में वास्तविक रूप से निर्धन एवं साधनहीन को आरक्षण का लाभ नहीं मिल रहा है? परंतु कोईं दलित बुद्धिजीवी अथवा दलित नेता इस दलित हित के मुद्दे को उठाना नहीं चाहता है क्योंकि एक तो इससे उसके स्वयं के हितों पर कुठाराघात होगा और दूसरे दलितों में शक्तिशाली वर्ग को नाराज कर उसे अपनी बौद्धिकता की ख्याति अथवा नेतागीरी खतरे में थोड़े ही डालनी है?

आज का युग छिछोरों एवं छिछोरेपन के वर्चस्व का युग है। उत्तर प्रदेश में एक दल ने सत्ता में होने पर नकलची परीक्षार्थियों पर रोक लगाने के लिये कानून बनाया, स्व-केंद्र परीक्षा पद्धति को बदल दिया और छात्रों का उपद्रव रोकने हेतु छात्र संघ समाप्त कर दिये, तो दूसरे दल ने सत्ता में आते ही उपर्युक्त सभी शासनादेश वापस लेकर पढ़ाई लिखाई से मतलब न रखने वाले छात्र नेताओं की वाहवाही लूट ली। कतिपय दलित बुद्धिजीवी भी दलित हित में कोई ठोस कार्य करने अथवा जनहितकारी सुझाव देने का दुरूह मार्ग अपनाने के बजाय अपनी विद्वत्ता एवं दलितप्रियता का सिक्का जमाने हेतु गाँधी, नेहरू जैसे समस्त विश्व ें मान्य मानवतावादियों एवं समाज-सुधारकों को षडयंत्रकारी, ठग जैसी असत्य एवं असभ्य गाली देना आसान पाते हैं। कोई भी निर्मल मन का व्यक्ति यह समझ सकता है कि गाँधी जी ने सवर्णों का हृदय-परिवर्तन कर समस्त समाज को साथ रखने की बात अपने स्वभाव, विश्वास एवं सिद्धांतों के अनुरूप ही कही थी। उन्होंने तो मुसलमानों द्वारा देश का बटवारा करवा लेने और अपने क्षेत्र में हिंदुओं की भयंकर मारकाट करने के बाद भी हिंदुस्तान में बचे मुसलमानों की रक्षा हेतु अपने जीवन की आहुति दे दी थी।

यह प्रवृत्ति न तो उचित है और न उच्च कि अम्बेडकर पर बड़प्पन लादने के लिये गाँधी को गाली दी जावे। इसके बजाय अम्बेडकर के अपने बड़प्पन को प्रचारित प्रसारित करना श्रेयस्कर होगा। सम्पूर्ण विश्व में बीसवीं सदी के श्रेष्ठतम मानव के रूप में ख्यातिप्राप्त महामानव को कुतर्कों के आधार पर गरियाने से स्वयं अपना स्तर घटेगा एवं समाज में कटुता बढ़ेगी।

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