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दम तोड़ती मानवता के गाल पर तमाचा है: 'पुस्तक पैसा बोलता है’


समीक्षित पुस्तक: पैसा बोलता है
रचनाकार: गंगा प्रसाद त्रिपाठी'मासूम'
संस्करण: प्रथम
प्रकाशक: विश्व साहित्य प्रकाशन प्रयागराज
मूल्य: 100 रु.

 
 
पिछले दिनों मैं संगम नगरी प्रयागराज की साहित्यिक यात्रा पर था। प्रयागराज के सुप्रिसिद्ध कवियों, शायरों से मुलाक़ात हुई। इस दौरान देश के युवा कुशल व्यंग्यकार गंगा प्रसाद त्रिपाठी 'मासूम' द्वारा विरचित काव्य कृति 'पैसा बोलता है' प्राप्त हुई। काव्य संग्रह का सघन अध्ययन करने के पश्चात मैंने पाया कि उक्त काव्य संग्रह में अंधी दौड़ में शामिल, गिरावट के आख़िरी पायदान पर खड़ी गिरती हुई आदमीयत और मानव जीवन के विविध प्रसंगों को स्वयं में सँजोए गीत, ग़ज़ल, व्यंग्य, मुक्तक, कविता सहित कुल 32 एक से बढ़कर एक रचनाएँ हैं। गंगा प्रसाद त्रिपाठी'मासूम' की कृतियाँ क्रमश: दूसरी आज़ादी, ठण्डा होता शहर, आम आदमी बोल रहा हूँ शीघ्र पाठकों के हाथ में होगी। 

पुस्तक 'पैसा बोलता है’ ने मुझसे जो संवाद किया उसने मेरे अंतस को झकझोर के रख दिया। व्यंग्यकार ने इस संग्रह में व्यवस्था में मौजूद हर वृत्ति पर कटाक्ष किए हैं और ज्वलंत मुद्दों को गहरे तक छुआ है। किसान आत्महत्या कर रहा है। मज़दूर दो वक़्त की रोटी के लिए मर रहा। जीवन में अनेक पीड़ाओं से गुज़रते हुए आम आदमी की व्यथा को उकेरा है। वहीं नक़्क़ाशी काट रहे सियासतदारों को आमजन के प्रति असंवेदनहीनता को रचनाकार द्वारा बेहद तरीक़े और सलीक़े से व्यक्त किया गया है। मानवता मरणासन्न अवस्था में है किसी के आँसू और दर्द से लोगों का वास्ता नहीं है। लोग निज स्वार्थ सिद्धि में ही तल्लीन हैं। समाज सेवक का चोला धारण कर जो लोग राजनीति में आकर हिन्दुस्तान का बेड़ागर्क कर रहे हैं। उनके लिए पैसा सर्वोपरि हो गया है। मज़हब और दीन-हीन, भिक्षु, विकलांग, उपेक्षित, शोषित जनों को ऐसे राजनीतिक जन सदैव हाशिए पर देखते रहने के आदी हैं। तथाकथित नेताओं को, जो घोटालों में आकंठ डूबे हैं, इस पुस्तक के माध्यम से व्यंग्यकार ने उनके हृदय को भेदकर आईना दिखाया है और सवाल किया है कि क्या इसीलिए मंगल पांडे ने सीने पर गोली खाई थी। झाँसी की रानी ने लहू बहाया था, चंद्रशेखर ने प्राण लुटाये थे, लालाजी ने लाठी खा प्राण गँवाये थे। वहीं रचनाकार ने कोख में मारी जा रही बेटियों के दर्द को उकेरा है; दहेज़ की बलि वेदी पर चढ़ती बहुओं की व्यथा पढ़कर मन द्रवित हो उठा। मोबाइल, इंटरनेट में खोई पीढ़ी लहू के रिश्ते को दरकिनार कर रही है। रचनाकार ने युवा पीढ़ी से माँ-बाप के त्याग, समर्पण को जीवनपर्यन्त न भूलने की बात कही है। 

रचनाकार गंगा प्रसाद त्रिपाठी 'मासूम' ने जिस तरह से अपने लेखन में व्यंग्य के साथ जीवन की झंझावातों का वर्णन किया है। जिसके लिए बधाई के पात्र हैं।

काव्य संग्रह में गागर में सागर भरने का काम किया है। रचनाकार को शुभकामनाएँ देता हूँ कि आप यूँ ही अपने लेखनी के माध्यम से देश, समाज को नित नई दिशा देते रहें। आपके आगामी काव्य संग्रहों का पाठकों को बेसब्री से इंतज़ार है।
 
पुस्तक समीक्षक
आशीष तिवारी निर्मल
लालगाँव रीवा म.प्र.

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