दंगा
शायरी | नज़्म ज्योति मिश्रा15 Apr 2020 (अंक: 154, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
बात किस दौर की करें, नहीं समझ आता,
सुकूं के दौर की करें? नहीं समझ आता॥
अमन के लिए लड़ रहे यहाँ सभी अपने,
मगर किस अमन के लिए, नहीं समझ आता॥
फूलों की तरह, पत्थर का इस्तेमाल किया,
घायलों की सजी बारात, नहीं समझ आता॥
लगी है आग, जेहन-ओ-जिगर में सबके यूँ,
क्रूरता की हदें सब पार, नहीं समझ आता॥
लहू की क़ीमतें बाज़ार में, गिर गईं शायद!
सारा शहर है लहूलुहान, नहीं समझ आता॥
शागिर्द बन के जो फिरते हैं हुक्मरानों के,
अक़्ल से हैं ये बेज़बान, नहीं समझ आता॥
हुजूम के ईमान पर, ये तअ'ज्जुब कैसा,
हर सू ख़ंजर के हैं निशान, नहीं समझ आता॥
फ़साद में सुलग रहा है, ज़माना सारा,
शोलों का होगा क्या अन्जाम, नहीं समझ आता॥
अब पोथियों के सारे ज्ञान, भुला दो "ज्योति",
'एक पिता के सब संतान,' नहीं समझ आता॥
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