अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

डर

’’साँप! साँप!’’

गर्मी की झुलसती दुपहरी में साँय-साँय चलती लू के मध्य बेला का चीत्कार उतना ही निर्बल था जितना पर्वतीय वन में बसे घर से प्रातः उठता धुआँ हुआ करता है। गगन रक्तिम करने के प्रयास में संलग्न सूर्य, उन्हें आँचल की छाँव में ढँकने को विकल ऊदे-ऊदे बादल, और इस नित्य की अठखेल के रसास्वादन में मग्न ऊँचे-ऊँचे वृक्ष - इस सौन्दर्य से अभिभूत आम दृष्टि धुँए की सहमी बल खाती क्षीण रेखा पर भला कहाँ टिक पाती है?

लू के थपेड़ों का गर्जन बेला के चीत्कार पर भारी अवश्य था, पर उतना भी नहीं कि ढक्कन को सुनाई ही न दे। "काम का न काज का, दुश्मन अनाज का" कहावत ढक्कन पर चरितार्थ होती थी। लिख लोढ़ा पढ़ पत्थर ढक्कन क़ायदे से लफ़ंगई भी नहीं कर पाता था। उसकी माँ दिन चढ़ते ही घर-घर बर्तन मलने निकल पड़ती। कोठरी में गर्मी असह्य होती जाती, और मध्याह्न होते न होते ढक्कन को बाहर निकलने पर विवश कर देती। नित्य की भाँति आज भी वह बूढ़े बरगद की छाया में आसीन मुहल्ले के कूड़ेदान से उत्खनित खाद्य सामग्री के निरीक्षण, चयन एवं भोग में व्यस्त था कि बेला का चीत्कार उसके कान के पर्दों पर सुरसुरी-सी मचा गया।

बेला की कोठरी दूर न थी। ढक्कन पलक झपकते बेला के द्वार पर पहुँच गया।

"कहाँ है साँप? दिखाओ!" ढक्कन ने इतने मनोविश्वास से कहा मानो बेला आदेश प्राप्त करते ही साँप थाल में सजा कर प्रस्तुत कर देगी।

भय से कातर स्वर में बेला ने इंगित किया, "वहाँ!"

ढक्कन की दृष्टि बेला की अपेक्षा कहीं और देखने से विद्रोह कर उठी। अविवाहित बेला का तीस वर्षीय अनुपातहीन शरीर ढक्कन के लिए अप्सरा की सजीव प्रतिमा से कम न था। सर्प के अप्रत्याशित आगमन से व्याकुल बेला के तन पर ग्रीष्म का प्रकोप सहनीय करने के प्रयोजन से धारित महीन वस्त्र अस्त-व्यस्त हो चुका था। गर्मी और भय के सम्मिलित आक्रमण से प्रबल स्वेद प्रवाह में आपादमस्तक संतृप्त बेला के उतार-चढ़ाव पर चिपका वस्त्र उसके तन को ढाँप कम, उजागर अधिक, कर रहा था।

बेला को एकटक निहारता ढक्कन अनमना-सा बोला, "वहाँ कहाँ?"

बेला ने झुकते हुए कहा, "अरे वहाँ, अभी-अभी उस छेद में जाकर छुप गया है।"

बेला के झुकने से ढक्कन को मानो दिव्य दर्शन हो गए। उसे लगा कि बाहुपाश में लेते ही भीरू बेला का भय जाता रहेगा। वह इस सद्विचार को वास्तविकता का जामा पहनाने बढ़ा ही था कि उसकी माँ, मैना, आ धमकी। मैना देखने में जितनी भयंकर थी, उतनी ही कर्कशा थी। जब भी बोलती, लगता लोहे की छड़ पर आरी चलाई जा रही हो।

मैना फटकारने लगी, "ई तू इहाँ भरतमिलाप का कर रहा है रे? साँप का बेला के सरीर पे चिपका है कि जोंक जैसा खींच के बाहर निकाल लेगा? चल दूर हट!"

बेला सकपकाई, उसे कुछ होश आया। वस्त्र सम्हालते हुए बोली, "चाची, साँप उस छेद में घुस गया है।"

मैना को पीछे से देखने पर दरियाई घोड़े का आभास होता था। मैना बिल को देखने अकस्मात झुकी तो उसका वृहद पाश ऊर्ध्व दिशा में दुगने वेग से विस्थापित हुआ, और उसी क्रम में ढक्कन को असंतुलित करता गया। ढक्कन ने बेला का सहारा न लिया होता तो उसके धराशाई होने में लेशमात्र भी संदेह न था। इधर ढक्कन बेला से चिपका खड़ा था, और उधर मैना की भद्दी-भद्दी गालियाँ गुंजायमान हो रही थीं।

लू से सुरक्षा के लिए सिर और कानों पर लाल अंगोछा लपेटे साइकिल सवार शिक्षक कमलानन्द त्रिपाठी के मन में मैना के अपशब्द घोष का निनाद घोर उत्सुकता व्याप्त कर गया। चालीस वर्षीय त्रिपाठीजी की शिक्षण के अतिरिक्त हर विषय में दिलचस्पी थी। कोठरी के भीतर तीन से अधिक व्यक्तियों के लिए स्थान न था, सो वे द्वार के समीप साइकिल टिका कर गरजे, "कौन है जो इतनी गन्दी-गन्दी गालियाँ बक रहा है?"

मैना का मन तृप्त नहीं हुआ था। वह गालियाँ बकती रही। ढक्कन अकारण दंडप्राप्ति में विश्वास नहीं रखता था, सो बेला से चिपका खड़ा रहा। बेला पहले ही भयाक्रांत थी, ढक्कन का आकस्मिक सामीप्य उसे और अस्थिर कर गया। उसने जवाब दिया, "घर में साँप निकला है।"

त्रिपाठीजी के लिए सर्पमर्दन की यह विधि सर्वथा अनूठी थी। उन्हें लगा, संभवतः साँप कुंडली मारे गालियों से वैसे ही सम्मोहित हो रहा हो जैसे सँपेरे की बीन से होता है। तभी स्मरण हुआ, सर्प तो वधिर होता है! वह बीन की ध्वनि से नहीं वरन सँपेरे की गतिविधि से आकृष्ट होता है। उन्होंने कोठरी के भीतर झाँकते हुए निःशुल्क ज्ञान वितरित किया, "अरी गँवार! साँप को कान नहीं होता है। तेरी गाली सुन कर भागेगा नहीं।"

मैना ने श्वास लेने के लिए अपशब्द प्रवचन तनिक बंद किया था। त्रिपाठीजी के शब्द सुनते ही आगबबूला मैना ने पहले ढक्कन पर, तत्पश्चात बेला पर, एवं अंत में पुनः ढक्कन पर पादुका प्रहार किया, "अरे साँप को कान नहीं होता होगा, लेकिन दो पैर के साँप को तो जरूरे होता है। हम घर से बाहर का निकलते हैं, रासलीला चालू हो जाती है।"

यदि पादुका की इहलीला समाप्त न हो गई होती तो मैना पादुका प्रहार कदाचित जारी रखती।

त्रिपाठीजी विद्यार्थियों को पीटने के कर्त्तव्य से कभी विमुख नहीं होते थे। इससे कक्षा में अनुशासन तो रहता ही था, साथ ही उनका मन भी उत्फुल्ल रहता था। उन्होंने कोठरी में अश्लील प्रसंग में संलग्न व्यक्तियों को दंडित करना अपना परम नैतिक कर्त्तव्य समझा।

"चलो, बाहर निकलो! लाज शरम नहीं है तुमको?" त्रिपाठीजी ने ललकारा।

ढक्कन, और ढक्कन के पीछे-पीछे मैना बाहर निकली। विद्युतप्रवाह सदृश चपलता से ढक्कन एवं मैना को एक-एक झापड़ रसीद करते हुए त्रिपाठीजी ने दुत्कारा, "रासलीला करने से पहले उमर नहीं देखी? वो तुम्हारी माँ की उमर की है और वो तुम्हारे बेटे की उमर का है!"

मैना पलभर को हतप्रभ हुई, तत्पश्चात त्रिपाठीजी के मस्तक पर दूसरी पादुका से प्रहार करते हुए चिल्लाने लगी, "साले बेशरम हरामी कुत्ते ..." उसका प्रलाप पाँच मिनट अनवरत चलता रहा, किंतु इन चार शब्दों के पर्यान्त का व्याख्यान लेखन मर्यादा के विरुद्ध होगा। उसकी पादुका त्रिपाठीजी के सिर पर पड़-पड़ कर छिन्न-भिन्न हो गई।

त्रिपाठीजी की अवस्था दयनीय थी। उनका अंगोछा भूमि की शोभा बढ़ा रहा था, मस्तक धूलधूसरित था, मुँह रुँआसा था, कुर्ता फटने को था। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि उनसे इतनी बड़ी भूल हो कैसे गई। कोठरी के द्वार से बेला कभी उन्हें पिटते देखती, और कभी सर्प के बिल पर दृष्टि गड़ा देती। सर्प यदि उसकी दृष्टि बचा कर बिल से बाहर निकल आता तो अनर्थ घटना अवश्यंभावी था।

कोलाहल बंद खिड़की-दरवाज़ों को चीरता घर-घर पहुँच गया। खिड़की-दरवाज़े खुलने लगे। बालकनी में खड़े टिंकू के हर्ष की सीमा न थी, "मम्मी, ये तो मास्साब पिट रहे हैं!"

"हैं, तेरा मास्टर पिट रिया है? चल-चल, नीचे जा कर देखें!"

टिंकू एवं उसकी माता के समान अन्य लोग भी घटनास्थल पर एकत्रित होने लगे।

"क्या हुआ मास्साब?" टिंकू ने इस प्रसन्नता से पूछा मानो उसे पाँचवी के स्थान पर दसवीं उत्तीर्ण घोषित कर दिया गया हो।

"अरे होगा क्या? देख नहीं रहे हो घर में साँप निकला है? पढ़ाई-लिखाई साढ़े बाइस बेफजूल अललटप्पो करते रहते हो। क्या हुआ, क्या हुआ ... हुँह!" मास्टरजी चिड़चिड़ाए।

"घर में साँप निकलो है तो थारी चम्पी क्यों हो रई है मास्साब? आप क्या साँप के सगेवाले हो?" टिंकू की माता ने प्रश्न किया।

"हैं? ये मास्टर है? और, मास्टर हो कर ऐसे करतब करता है कि औरतें इसे पीटती हैं? छीः छीः छीः छीः ... क्या जमाना आ गया है! ऐसे मास्टर से बच्चे क्या सीखेंगे?" श्रीमती शर्मा ने धीमे स्वर में कहा।

"ओ तो हाय ई। आधा से जादा टीचर बौदमाइश होता है, पाजी, कौथाकार होता है । शूनिए। जौब हामाड़ा भाई आगड़ा में था तौब ..." श्रीमती गांगुली कहने लगीं।

"आपका भाई आगरे में था? पागल था क्या?" श्रीमती शर्मा ने संदेह व्यक्त किया।

"की जे बाजे कौथा, बौलो तो? आगड़ा में केया शौमौश्तो जौन पागोल ही होता हाय? एतना बौड़ो ताजमोहोल त्योरी किया, ओ केया पागोल था? एँह?" श्रीमती गांगुली आहत एवं कुपित हो गईं।

"पागल तो था ही। मकबरा बनाया और नाम दे दिया महल!"

"ताजमहल मक़बरा नहीं है। वह हिंदुओं द्वारा निर्मित मन्दिर है।" भेद भरे स्वर में रहस्योद्घाटन करते हुए म्हात्रे साहब प्रासंगिक आपदा के समाधान को तत्पर हुए। "कैसा साँप है? नाग है, अजगर है, करैत है, धामिन है, क्या है?"

"हम पूरा साँप कहाँ देख पाए हैं? ऊ छेद में घुस रहा था। जब तक हम देख पाते खाली पुँछिए बाहर था, एत्ता सा," बेला ने उँगली के पोर से इंगित किया।

"छेद? छेद कहाँ है?" म्हात्रे साहब ने चतुर्दिक दृष्टिपात किया, मानो छेद भीड़ में उपस्थित किसी व्यक्ति का नाम हो।

"छेद इहाँ है!" बेला ने कोठरी के अंदर जा कर कहा।

लुंगी एवं सैंडो गंजी में गोलमटोल म्हात्रे साहब गेंद सदृश लुढ़कते कोठरी के अंदर पुहँच गए। कोठरी का द्वार म्हात्रे साहब की महाकाया से अवरुद्ध हो गया। उनकी अर्द्धांगिनी द्वार के बाहर खड़ी हो गईं।

"छेद कहाँ है?" म्हात्रे साहब ने जिज्ञासा पुनः व्यक्त की। बेला ने भूमि एवं दीवार की संपर्क स्थली पर विद्यमान रुपए के सिक्के बराबर छित्र की ओर इंगित किया।

"ओह, ये है!" म्हात्रे साहब उकड़ूँ बैठ छित्र के निरीक्षण में व्यस्त हो गए। लेकिन जब आधे से अधिक ध्यान संतुलन बनाए रखने पर हो, तो निरीक्षण भला क्या होगा? थोड़ी ही देर में म्हात्रे साहब पालथी मार कर विराजमान हो गए।

"एक परात में दूध ले आओ!" उन्होंने आज्ञा दी।

"परात में क्यों? कटोरे में क्यों नहीं?" श्रीमती म्हात्रे का आग्रह था।

"कटोरा खाली है या भरा, साँप को कैसे मालूम चलेगा? परात में दूध देखेगा तो आएगा पीने।"

"तुमने इतनी बार छेद में ताकझाँक की, क्या तुमको साँप दिखाई पड़ा?"

"नहीं!"

"तो फिर साँप को परात कैसे दिखेगी?"

"हूँ! साँप छेद के मुँह पर तो नहीं है। ऐसा करते हैं, छेद में घासलेट भर कर आग लगा देते हैं।"

"और साँप अगर आँख बचा कर छेद से बाहर निकल कर कोठरी में कहीं और छुपा होगा तो? अभी छेद में रहता है। जब छेद से बास आएगी तो बाहर ही रहने लगेगा। गर्मी में आग लगने का खतरा अलग है।"

म्हात्रे साहब बोले, "साँप कहीं भी छुपा हो, बीन की तान सुन के बरोबर सामने आएगा। वो नागिन फिल्म में तन डोले मन डोले की रिकॉर्डिंग के टाइम स्टुडियो में साँप आ गया था। कल्याणजी भाई ने मस्त बीन बजाई थी, जबकि म्यूझिक हेमन्त कुमार का था। क्या जमाना था, कितना भाईचारा था!"

म्हात्रे साहब ने दीर्घ श्वास ली, एक नथुने को अँगूठे से दबाया, और दूसरे नथुने से बीन की ध्वनि निकालने को अग्रसर हुए। उनकी नासिका तंत्र से उत्पन्न कोलाहल ने बूढ़े बरगद की छाँव सुस्ताते कूकुर समूह को ऐसा उद्वेलित किया कि प्रत्युत्तर में उन्होंने श्वान विलाप कीर्तन आरम्भ कर दिया। म्हात्रे साहब तो क्षणमात्र में हाँफते-हाँफते शांत हो गए, किंतु कीर्तन कुछ देर चलता रहा।

श्रीमती म्हात्रे ने चिंता व्यक्त की, "ये तुम्हारे बस का काम नहीं है। लुंगी सम्हालो और उठ जाओ। इतनी देर से बैठे हो, साँप लुंगी में न घुस जाए कहीं!"

भीड़ देख मटमैली ख़ाकी वर्दी में डंडा पटकता एक सिपाही आ धमका। "काहे का मजमा लगा है?"

वयस्क चुप रहे। टिंकू बोला, "कोठरी में साँप निकला है।"

सिपाही ने फिर पूछा, "कहाँ?"

टिंकू ने फिर कहा, "कोठरी में।"

सिपाही बोला, "वहीं बाहरे घूम रहा है कि मार दिया?"

एक सज्जन बोले, "आप अन्दर जा कर क्यों नहीं देखते?"

सिपाही ने हुंकार भरी तथा डंडा खटखटाता कोठरी में घुसा। बेला पर दृष्टि पड़ते ही सर्पभय पर अर्थलौलुप्य हावी हो गया। सिपाही ने बेला को दो बार आपादमस्तक घूरा, डंडे से बर्तनों को छेड़ा, और रौब से बोला, "तू अकेली रहती है?"

बेला ने सहमते हुए उत्तर दिया, "हूँ।"

सिपाही ने आदेश दिया, "तुझे थाने चलना होगा। चल!"

बेला सकपकाई, "थाने?"

इससे पहले कि वह आगे कुछ बोल पाती, लोटा थाली गिलास झनझनाते हुए गिरे। सर्प की एक झलक पाते ही सिपाही कूद कर कोठरी से बाहर हो गया। बेला चिल्लाई, "साँप! साँप!" बर्तनों के पीछे रेंगता साँप एक बार फिर दृष्टि से ओझल हो गया।

बाहर हड़कंप मच गया। भीड़ द्वार से इतना हट कर पुनः एकत्रित हुई कि साँप क्या, जंगली भैसा भी आराम से निकल जाता। कोठरी के बाहर दस-बारह लोग, और अंदर बेला। सिपाही बोला, "बड़ा डेन्जर साँप लगता है। बहुत जहरीला।"

किसी ने कहा, "मैंने बहुत साँप मारे हैं। छोटे से ले कर बड़े तक। इतने जहरीले कि उनकी साँस भी छू जाए तो मौत तय है।"

एक अन्य सज्जन का मत था, "मैंने भी इतने साँप मारे हैं कि मत पूछिए! एक डंडा मिल जाए तो ..."

एक महिला बोली, "वो क्या है, सिपहिया के पास तो डंडा हइए है। ले लीजिए उससे।"

सिपाही डंडा बढ़ाने लगा। सर्पमर्दन विशेषज्ञ तरस खाते हुए बोले, "अरे नहीं नहीं, ये तो बेकार डंडा है। इससे नहीं होगा। साँप मारने का डंडा स्पेशल होता है।"

महिला ने भीतर झाँका। बेला बर्तनों को ग़ौर से ताक रही थी, वस्त्रों पर उसका ध्यान न था।

सिर को आँचल से ढ़ँकती महिला बुदबुदाई, "कैसी बेसरम है? गर्मी है त का दरवज्जा खोल के लंगटे खड़ी हो जाएगी?"

मिसेज गांगुली बोलीं, "ऐकला ड़ाहती है।"

महिला फिर बुदबुदाई, "बदचलन होगी। देख नहीं रहीं, कैसा बेढंगा सरीर है?"

मिसेज गांगुली ने हामी भरी, "जौड़ूड़। जाने दो भाई, हामको केया!"

एक अन्य स्वर उभरा, "हैलो ... जी सर ... जी सर ... जी हाँ, कस्टम ऑफ़िस से ही बोल रहा हूँ ... मलहोत्रा साहब अभी लंच कर के वापस नहीं आए हैं ... जी ... जी ... जी ... थैंक्यू सर!"

बेला ध्यान से दो भगोनों के मध्य देख रही थी। उसे पुनः एक हलचल दिखी, पर इस बार वह शांत रही। उसके मुख पर दृढ़ निश्चय प्रतिबिंबित था।

किसी ने कहा, "वो दिखा! अरे, इसी समय मोबाइल की बैटरी लो होनी थी, वरना फ़िल्म उतारता।" भीड़ के पैर यथास्थान जमे रहे, किंतु सिर द्वार के निकट हो गए। निस्तब्धता वयाप्त हो गई।

बेला की समस्त इंद्रियाँ सर्प पर केन्द्रित थीं। वह तड़ित चपलता से झपटी। दूसरे ही क्षण उसकी दाईं मुट्ठी से ग़ज़ भर लम्बा साँप लटक रहा था। मुट्ठी से तनिक ऊपर सर्पमुख से जिह्वा लपलपा रही थी, मुट्ठी के नीचे लटका शेष शरीर बेला से लिपटने की चेष्टा में था। भीड़ ने सामूहिक निश्वास ली।

बेला कुशल सर्प प्रहस्तक की भाँति न सर्प को निकट आने दे रही थी, न मुट्ठी ढीली कर रही थी, एवं न ही सर्प से दृष्टि हटा रही थी। इसी मुद्रा में उसने बायाँ हाथ बढ़ा कर आले पर रखी पानी के लिए बीस लिटर वाली प्लास्टिक की बोतल उठाई और तीव्र गति से साँप के मुँह को उसके अंदर घुसा दिया। मुट्ठी की पकड़ किंचित हल्की होते ही साँप बोतल के अंदर घुसने लगा। बेला ने बोतल भूमि पर रखी, साँप के शेष शरीर को बोतल में गिराया, और आनन-फ़ानन में बोतल पर पहले ढक्कन लगाया, तत्पश्चात बोतल के मुख पर कपड़ा बाँधने लगी। साँप बोतल के अन्दर शिथिल पड़ा था।

भीड़ ने ताली बजाई, पर बेला ने सिर उठा कर देखा तक नहीं। वह बोतल को अपने से बहुत दूर कैसे भेजे, इसी सोच में मग्न थी। उसे साँप से बहुत डर जो लगता था।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी

लघुकथा

साहित्यिक आलेख

नाटक

किशोर साहित्य कहानी

हास्य-व्यंग्य कविता

कविता

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

एकांकी

विडियो

ऑडियो

उपलब्ध नहीं

लेखक की पुस्तकें

  1. उसने लिखा था