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दर्द-ए-हास्य कवि-सम्मेलन

आज मेरी उदासी का कारण है हास्य कवि सम्मेलन। मेरा मतलब है- अखिल भारतीय हास्य कवि सम्मेलन। जबसे लौटा हूँ कवियों की काव्य कलाएँ मुँह चिढ़ा रही हैं। उनकी पंक्तियाँ कान में गरम तेल की तरह जलन पैदा कर रही हैं। आयोजक की कलाएँ बल्कि कवियों से अच्छी लग रही थीं। मुहल्ले के गणमान्य श्रोता जिस तरह से मैनेज किये हुए थे, वैसे ही मंचीय कवि भी मैनेज ही थे। पर आयोजक की भूमिका ऐसी कि मुँह में पान और गुटके के सिवा और किसी काम के लिए उन्हें नहीं खोलना पड़ा।

सम्मेलन चूँकि अखिल भारतीय के बैनर तले था, इसलिए मुहल्ले के सभी बाल-गोपाल और स्त्री-पुरुष सपरिवार आमंत्रित किये गये थे। यह आमंत्रण एक तरह से धमकी की तरह भी था। क्योंकि आयोजक सत्तापक्ष के रंगदारी नेता थे। वार्ड पार्षद होते हुए मुख्यमंत्री तक पहुँच रखनेवालों में उनकी गिनती आदरणीय ढंग से होती है। राजनीतिक भाषा में उन्हें "रूट पोल्टिक्स" का सेवक माना जाता है। इसलिए जनता की मूलभूत सुविधाएँ जैसे-बिजली-पानी, सड़क-सफ़ाई आदि उन्हीं की कृपा पर निर्भर थी। इसलिए वे जो कुछ कह देते थे वही सही मान लेने का पारंपरिक आदर्श उस मुहल्ले में वर्षों से चल रहा है।

सम्मेलन चूँकि अखिल भारतीय स्तर का था, इसलिए स्थानीय श्रोताओं को हास्य रस में डुबोने के लिए पड़ोस सहित पड़ोसी गाँव-नगर के रचनाकारों को आमंत्रित किया गया था। अखिल भारतीय का यह नवीन मानक स्वरूप वर्षों से सिर्फ़ यहीं पर नहीं चल रहा है। इस गाँव की रीति ही ऐसी है कि यहाँ जो कुछ भी आयोजित होता है, उसे अखिल भारतीय ही कहा जाने लगा है। शायद इसलिए कि हमारी भारतीयता शायद अब अपने-गाँव-नगर से लेकर घर-परिवार में सीमित होने लगी है।

हाँ, तो समय से तीन घंटे पहले ही सभी तथाकथित अखिल भारतीय कविगण पूजा पंडाल में पधार चुके थे। समय दुर्गा-नवरात्रि का होने से देवी दर्शन के लिए पैदल यात्रियों के लिए जिस पंडाल में नाश्ता-पानी की व्यवस्था थी, उसी के एक कोने में स्थापित मंच पर अखिल भारतीय हास्य कवि सम्मेलन का बैनर लहरा रहा था। व्यवस्थापक जी का तर्क यह था कि यदि श्रोताओं की कमी होगी तो दर्शनार्थी गण उसकी भरपाई कर लेंगे। सम्मेलन के दौरान यह बात प्रत्यक्ष प्रमाणित भी हो रही थी। कुछ भक्तों ने पंडाल में जलपान करने के बाद ही ठान लिया कि अब बिना हास्य कवि सम्मेलन सुने-देखे देवी दर्शन को प्रस्थान भी नहीं करेंगे। भक्तों को अपनी भक्ति का प्रत्यक्ष फल तो मिलता हुआ तब मालूम हुआ जब एक ही पंडाल में उन्हें अखिल भारतीय कवियों के साथ भोजन भी करने का मौक़ा मिला। क्योंकि कवियों के साथ जो एक कवयित्री थीं वे किसी भी देवी से कम सुसज्जित नहीं थीं। और इतने क़रीब से उनके दर्शन करने की भक्ति शायद आज ही सफल हो रही थी। पंडाल में बने देहाती व्यंजनों से भरपूर पेट-पूजा करने और कराने के बाद आयोजक जी ने कवि सम्मेलन प्रारंभ करने के लिए धमकी भरा संकेत दिया। इस संकेत में यह बात भी शामिल थी कि ज़्यादा देर हुई तो स्थानीय श्रोता तो टरक ही सकते हैं, स्थानीय कवियों की भी संख्या बढ़ सकती है।

अचानक संचालक माईक पर दिखे। वेश-भूषा और सीने पर चिपकाये एक स्टिकर से ही उनकी पहचान एक राजनीतिक सेवक के रूप में हो रही थी। हास्य रस यहीं से शुरू हुआ। लगभग पंद्रह से बीस किलो के उस संचालक ने अपना परिचय वीर रस के कवि के रूप में दिया। ध्यान दिलाना है कि मंच पर पंखे की व्यवस्था शायद इसीलिए नहीं थी कि संचालक कहीं उड़ न जाएँ। उनकी क़द-काठी को देखते हुए एक हास्य रस के श्रोता ने ईश्वरीय कला की प्रशंसा करते हुए कमेंट किया कि इनको देखने से साबित हो रहा है कि कम मटेरियल में भी किस तरह अच्छी दीवार, खड़ी की जा सकती है। यहाँ बता दूँ कि यह श्रोता सरकारी ठेकेदार था। संचालक ने कवियों को मंच पर बुलाना शुरू किया तो एक-एक करके ऐसे मंचासीन हुए जैसे कोई अपने जीवन में पहली बार प्रतिष्ठा पाकर धन्य होता है। सीने तने हुए और चेहरे पर मुस्कान ऐसी, जैसे किसी ने कभी अपनी पत्नी की फटकार नहीं खाई हो। न ही उनकी पड़ोसन के साथ के प्रेम संबंध की किसी को जानकारी हो। पर अधिकांश के चेहरे तो मंच पर बैठते ही इसलिए उड़ गए कि मंच पर कवियित्री एक ही थी, जिसके अगल-बगल दो लोग ही बैठ सकते थे। और यह सौभाग्य उसी को मिला जिसको संचालक जी ने पहले बुलाया। श्रोताओं ने हास्य रस का आनन्द यहाँ भी लिया। क्योंकि शृंगार रस के साथ काव्य मंचों पर पहुँचने वाले स्वप्नदर्शी कवियों के लिए अब यह मंच करुण रस का आदर्श रूप धारण करने लगा था।

पहले जिस युवा रचनाकार को हास्य कविता पाठ के लिए माईक पर बुलाया गया उसका अखिल भारतीय परिचय यह था कि वह आयोजक जी का साला नहीं, ससुराल का पार्टी कार्यकर्ता था। उसी की कृपा से आयोजक जी ने एक पढ़ी-लिखी लड़की को मंगलसूत्र पहनाने का सौभाग्य प्राप्त किया था। वरना वह लड़की एक विरोधी दल के खेमें में सुहागरात मनाने के लिए ज़िद्द कर रही थी। इस प्रकार आयोजक जी आज इस आयोजन के बहाने एक भार से आभारी भी हो रहे थे। इस युवा रचनाकार ने कविता तो शृंगार रस की सुनाई, पर उससे करुण रस टपक रहे थे। पर श्रोताओं की समझदारी ऐसी कि वे उसे हास्य रस का आनन्द लेकर सुन रहे थे। संचालक ने श्रोताओं की इस समझदारी के लिए मंच की ओर से आभार प्रकट किया जिस पर प्रतिक्रियात्मक आवाज़ में हास्य रस की ताली भी बजी। 

दूसरे नंबर के जिस कवि को माईक ने सँभाला वे बच्चनजी के मधुशाला की याद दिला रहे थे। माईक के यदि हाथ होते तो उनके मुँह के पान-फव्वारे को धोने के बहाने किसी तालाब में जाकर डूब मरता। बिहार की सरकारी शराब बंदी को राजनीतिक हथकंडा बताते हुए जब इन्होंने आयोजक जी की पार्टी की प्रशंसा करते हुए एक घटिया चुटकुला सुनाया तो एक मंचासीन चम्मचाई कविराज ने अपने स्थान से उठ कर उन्हें माला भी पहना दी। श्रोतागणों ने इसे अच्छी रचना का प्रमाण देते हुए जब ताली बजा दी तब कवि अपने असली मूड में आ गये और माईक पर पान के फव्वारे छोड़ते हुए उसे ऐसे झकझोरे कि वह नीचे गिर गया। यहाँ पर बिना कविता के ही हास्य रस प्रवाहित हुआ।

तीसरे कविराज खानदानी वीर रस के अवतार बतलाये गये। क्योंकि उनके पिताजी अपने ज़माने के ख़तरनाक लड़ाकू पहलवान थे। ग्रामीण अखाड़े की मिट्टी से लड़ते-लड़ते गाँव के लोगों से मुक़दमा लड़े और अंत में जिस बीमारी से लड़ते हुए वीर गति को प्राप्त हुए थे, उसे देहाती भाषा में ‘रखनी’ कहा जाता है। इसी बीमारी से कविराज जन्मे थे। सभी श्रोता उनका खानदानी परिचय जानते थे। इसलिए संचालक को परिचय देने की ज़रूरत नहीं पड़ी। इस कविराज ने पाकिस्तान को दुनिया को सबसे ख़तरनाक मुल्क बताते हुए अपनी कविता से ही उड़ाने का दावा किया। मुट्ठी बाँधकर जब नाटकीय अंदाज़ में इनका काव्यपाठ चल रहा था, उस समय श्रोता हास्य नाटक का आनन्द लेकर कविता सुन रहे थे। तभी श्रोताओं के बीच बैठा उनका पड़ोसी चिल्लाया कि जब उनके घर में चूहा दौड़ता है तब उसे मारने के लिए मुहल्ले के बच्चे बुलाए जाते हैं।

अगले नंबर पर जिसको श्रोतागण सुनने के लिए मजबूर थे, वे इस मंच के सबसे महँगे कवि थे। लगभग आधा घंटा तक फ़ेसबुकिया चुटकुले सुनाने के बाद जब वे अपने सतही गीतों की औक़ात पर उतर आये तब श्रोतागण नहीं समझ पा रहे थे कि हास्य कविता और चुटकुले में क्या अंतर है। वैसे राष्ट्रभक्ति के नाम पर जो काव्यपाठ इन्होंने किया उसे सुनकर निकट भविष्य में देश को एक युद्ध झेलने का संकेत मिल रहा था, जिसकी कल्पना से श्रोता काँपने लगे थे। वैसे कुछ बेरोज़गार नवजवान श्रोता जो सेना मे भरती नहीं हो पाये थे देश के लिए अपनी जान देने के लिए नारे लगाने लगे थे। यह बात अलग थी कि उनमें से एक भी नवजवान उस समय किसी बूढ़े दादाजी को वहीं पर बैठने के लिए अपनी कुर्सी भी देने के लिए तैयार नहीं था। एक नवजवान तो इतना जोश में आ गया कि तीन कुर्सियाँ ही तोड़ दीं। उसकी इस राष्ट्रीय हरकत के लिए आयोजन समिति के एक नवजवान ने उसे सिर्फ़ तीन जूते मारकर उसका स्वागत किया। सम्मेलन का यह प्रसंग हास्य-रस से सराबोर था।

मंच पर कुल नौ कविराज बिराजे थे, जो काव्य मंडल में नौ ग्रहों की तरह लग रहे थे। इनमें एक कवयित्री भी थीं, जो शनि ग्रह की तरह ख़तरनाक लग रही थीं। इनका आदर करना सबका धर्म था। पूज्य परंपरा की इस रचनाकारी ग्रह का माईक के सामने खड़ा होना ही काव्यरस था। मंच सहित श्रोतागण धन्य हुए उनके दर्शनमात्र से ही। तीन बार अपने लंबे बालों को कंधे से झटका देने के बाद उन्होंने जिस विरह राग को गाया उसे सुनने के बाद एक साथ कई लोगों को उनके प्रति सहानुभूति होने लगी थी। कवयित्रीजी के निजी जीवन की शृंगारिक कविता को करुण रस में लोग इसलिए दुखी होकर सुन रहे थे कि उनका एक-एक अंग एक-एक शृंगारिक महाकाव्य के प्लॉट की तरह था। उनकी इसी काव्य-कला के लिए शायद उन्हें आमंत्रित भी किया गया था। पर सारा पंडाल इस बात से सचमुच दुखी हो गया जब संचालक जी ने बताया कि इस प्लॉट की रजिस्ट्री हो चुकी है।

मंचासीन कवियों ने सबसे ज़्यादा अपने चुटकुलों से हँसाने का प्रयास किया, श्रोता इसे ही हास्य कविता समझ कर तालियाँ बजा रहे थे। सम्मेलन के बाद जब श्रोता चले गये तब वीर रस के राष्ट्रीय कवि अपने लिफ़ाफ़े का वज़न कम देखकर एक बार फिर से वीर रस में आ गए। कवयित्री जी इसलिए दोबारा करुण रस में आ गईं कि पंडाल के किनारे एक कुतिया उनकी जूती ले जाकर उसके वीभत्स रस का स्वाद ले रही थी। इस दुर्घटना से दुखी आयोजन समिति के कुछ उत्साही नवजवान कुतिया का खानदान ख़त्म करने के लिए उसकी नसबंदी कराने के लिए किसी वेटनरी डॉक्टर की तलाश करने लगे थे। पर संचालकजी का दुख इस बात को लेकर था कि कवयित्रीजी को होटल में छोड़ने के लिए उन्हें साथ नहीं भेजा गया। मैं इसलिए दुखी था कि हास्य कवि सम्मेलन का बैनर मुझे ठेंगा दिखा रहा था।
 

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