दर्द जो सहा मैंने
समीक्षा | पुस्तक समीक्षा डॉ. एम. वेंकटेश्वर21 Feb 2019
भारतीय मुस्लिम परिवार में जन्मी स्त्री के शोषण और संघर्ष की आत्मकथा
पुस्तक : दर्द जो सहा मैंने (आत्मकथा)
लेखिका : आशा आपराद
मूल - मराठी, हिंदी अनुवाद : आशा आपराद
प्रथम संस्करण : 2013
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रा लि
1 बी नेताजी सुभाष मार्ग, दरिया गंज
नई दिल्ली - 110002
पृष्ठ : 276, मूल्य : 495/-
"दर्द जो सहा मैंने" आशा आपराद की प्रसिद्ध मराठी आत्मकथा "भोगले जे दु:ख त्याला" अनूदित संस्करण है। प्रस्तुत महिला आत्मकथा अनेक अर्थों में हिंदी लेखिकाओं की आत्मकथा से नितांत भिन्न है। आशा आपराद महाराष्ट्र में कोल्हापुर की निवासी हैं। बाल्यावस्था से ही वे अपने ही परिवार में माता के अत्याचारपूर्ण व्यवहार और यातनाओं से पीड़ित और प्रताड़ित होने के बावजूद स्वयं को इन अत्याचारों से मुक्त करने का बीड़ा उठाया। उन्होंने शोषण और उत्पीड़न से मुक्ति का मार्ग स्वयं तलाशा और आख़िर उन्होंने स्वतन्त्रता और आत्म निर्भरता का लक्ष्य प्राप्त किया। उन्होंने कठिनतम स्थितियों में एम.ए., बी.एड. और एम. फिल की शिक्षा पूरी की। आज वे एक सक्षम प्राध्यापिका हैं। महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्षरत हैं। अनेक सामाजिक संगठनों से जुड़ी हुई हैं।
"दर्द जो सहा मैंने" आशा आपराद की आत्मकथा है। एक भारतीय मुस्लिम परिवार में जन्मी ऐसी स्त्री की गाथा जिसने बचपन से ही स्वयं को संघर्षों के बीच पाया। संघर्षों से जूझते हुए जिस प्रकार से लेखिका ने शिक्षा प्राप्त की, परिवार का पालन-पोषण किया, अपने घर का सपना साकार किया - यही इस आत्मकथा का मूल कथ्य है। निश्चित रूप से यह आत्मकथा आज की उत्पीड़ित स्त्री को पारिवारिक और सामाजिक यातनाओं से मुक्ति दिलाने में संप्रेरक सिद्ध होगा।
अपनी माँ के ही अन्यायपूर्ण अत्याचारों से लेखिका जो यातनाएँ झेलनी पड़ीं उन्हें पढ़कर पाठकों का विचलित होना सहज है। साथ ही पिता का स्नेहिल सहारा लेखिका के तपते रेतीले जीवन सfर में मरुद्यान की शीतलता प्रदान करता रहा। पिता ही के संबल से लेखिका अपने अकेले जीवन संघर्ष को एक निश्चित मुक़ाम तक पहुँचाने में सफल होती हैं। "दर्द जो सहा मैंने" - सुख-दु:ख, मिलन-विछोह और अभाव-उपलब्धि के धागों से बुनी यह एक अविस्मरणीय आत्मकथा है। आत्मकथा का शीर्षक ही लेखिका के दुःख-दर्द और संघर्ष को मुखरित करता है। लेखिका का यह आत्मकथ्य दृष्टव्य है - "मेरी क़िताब सिर्फ़ 'मेरी' नहीं, तो प्रातिनिधिक स्वरूप की है, ऐसा मैं मानती हूँ। हमारा देश तो स्वतंत्र हुआ लेकिन यहाँ का इंसान 'ग़ुलामी' में जी रहा है। अगर यह सच न होता तो आज भी औरतों को, पिछड़े वर्ग को, ग़रीब वर्ग को अधिकार और न्याय के लिए बरसों तक झगड़ना पड़ता क्या? आज भी स्त्रियों पर अनंत अत्याचार होते हैं। दहेज के लिए आज भी कितनों को जलना पड़ता है। बेटी पैदा होने से पहले ही उसे गर्भ में 'मारने का' तंत्र विकसित हो गया है। मैं चाहती हूँ, जो स्त्री -पुरुष ग़ुलामी का दर्द, अन्याय सह रहे हैं, शोषित हैं, अत्याचार में झुलस रहे हैं, उन सबको अत्याचार के विरोध में लड़ने की, मुक़ाबला करने की शक्ति प्राप्त हो।"
आशा आपराद बचपन से एक अभिशप्त पुत्री के रूप में अपनी माँ के हाथों निरंतर उत्पीड़ित होती रहीं। परिवार, माँ और अपने माहौल से लेखिका में बचपन से ही वितृष्णा का भाव विकसित हुआ। उनके और उनके परिवार में जो भी कुछ बुरा घटता रहा, चाहे वह इंसानी हो या कुदरती उसके लिए 'माँ' आशा को ही ज़िम्मेदार मानती गई। सिर्फ़ वही ज़िम्मेदार मानकर ही वह चुप न रही, उसकी सज़ा भी आशा को उम्र भर देती रही। आशा उम्र भर उन ग़ुनाहों की सज़ा भुगतती रही जिसे उसने कभी किया ही नहीं था।
लेखिका की ज़िंदगी की दास्तान उस माँ के छल-कपट से भरी हुई है जो उसी की माँ है। उसकी सगी माँ। यही इस आत्मकथा की विडम्बना है।
लेखिका के शब्दों में - "मेरी माँ की बहुत सारी गंदी आदतों में से एक आदत थी हर चीज़ गिरवी रखने की। कभी बर्तन, कभी गहने, कभी पिताजी की शादी में सर पर बाँधा हुआ 'साफा', कभी मंगलसूत्र, न जाने और क्या-क्या! आगे चलकर तो उसने मेरी ज़िंदगी, मेरे सारे अरमान अपने लिए अपने पास गिरवी रख लिए। मैं हर गिरवी चीज़ छुड़ाकर लेती गई - और तो और, अपनी गिरवी रखी ज़िंदगी छुड़ाने में मेरी पूरी ज़िंदगी बीत गई।" यह आत्मकथा उसी संघर्ष की करुण दास्तान है।
जैसे ही लेखिका के पिताजी गुज़र गए, माँ तो मालकिन बन बैठी। आशा की जीवन की डोर 'माँ' ने अपने हाथों में ले थाम लिया। आशा की पढ़ाई बंद कर दी। उसका स्कूल से रिश्ता तोड़ दिया गया और परिवार की ज़रूरतों की गाड़ी में बैल की तरह उसे बाँध दिया गया।
आशा आपराद जीवन के हर मोड़ और पड़ाव पर अपने आप को ढूँढने की कोशिश करती हैं। लेखिका अपने अस्तित्व को पाने के लिए जीवन भर प्रयास करती हैं। लेखिका स्वयं को धर्म, रूढ़ि, रीति-रिवाज़, परंपरा जैसे अनेक पत्थरों से बनी दीवारों के कारागार में अपने आप को क़ैद पाती हैं। इस क़ैद से छुटकारे के प्रयास का विधिवत वर्णन से भारी है यह आत्मकथा। जीवन के प्रति उत्कट प्रेम ही लेखिका को जुझारू बनाता है। उसकी जिजीविषा उसे समाज, परिवार और अपनी अत्याचारी माँ से लोहा लेने का साहस प्रदान करती है। लेखिका हर उस दीवार को तोड़ना चाहती है जो औरत को उससे जीने का अधिकार छीन लेता चाहता है।
आशा नहीं चाहती की वह रूढ़ियों और धार्मिक तथा सामाजिक नियमों और बंधनों की कट्टरता के कीचड़ में फँसकर वह ख़त्म हो जाए। वह हर हाल में जीना चाहती है। वह जीना चाहती है अपने लिए, अपने बच्चों के लिए, उनके भविष्य और सपनों के लिए क्योंकि वह ज़िंदगी से बेहद प्यार करती है। जीवन के प्रति यही प्यार और जुनून उसे संघर्ष करने का साहस और धैर्य देता है। उसकी ऊर्जा का स्रोत अगर कहीं था तो ज़िंदगी के प्रति उत्कट प्रेम में। आशा आपराद को उस आसमान की तलाश थी जहाँ वह पूरी तरह मुक्त होकर उड़ान भर सके।
मराठी से हिंदी में अनुवाद स्वयं लेखिका आशा आपराद ने किया है जो अपने मराठी आस्वाद के कारण एक विशेष पाठकीय अनुभव प्रदान करता है।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
"कही-अनकही" पुस्तक समीक्षा - आचार्य श्रीनाथ प्रसाद द्विवेदी
पुस्तक समीक्षा | आशा बर्मनसमीक्ष्य पुस्तक: कही-अनकही लेखिका: आशा बर्मन…
'गीत अपने ही सुनें' का प्रेम-सौंदर्य
पुस्तक समीक्षा | डॉ. अवनीश सिंह चौहानपुस्तक: गीत अपने ही सुनें …
सरोज राम मिश्रा के प्रेमी-मन की कविताएँ: तेरी रूह से गुज़रते हुए
पुस्तक समीक्षा | विजय कुमार तिवारीसमीक्षित कृति: तेरी रूह से गुज़रते हुए (कविता…
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
शोध निबन्ध
पुस्तक समीक्षा
- अबलाओं का इन्साफ़ - स्फुरना देवी
- चूड़ी बाज़ार में लड़की
- थर्ड जेंडर : हिंदी कहानियाँ
- दर्द जो सहा मैंने
- नवजागरण के परिप्रेक्ष्य में रवीन्द्रनाथ ठाकुर का कालजयी उपन्यास "गोरा"
- नहर में बहती लाशें
- पुरुष तन में फंसा मेरा नारी मन : मानोबी बंद्योपाध्याय
- प्रेमचंद की कहानियों का कालक्रमानुसार अध्ययन
- फरिश्ते निकले - नारी शोषण का वीभत्स आख्यान
- फाइटर की डायरी : मैत्रेयी पुष्पा
- शव काटने वाला आदमी
- साक्षी है पीपल
- स्त्री जीवन के भोगे हुए यथार्थ की कहानी : 'नदी'
साहित्यिक आलेख
- अज्ञेय कृत "शेखर - एक जीवनी" का पुनर्पाठ
- कृष्णा सोबती हशमत के जामे में
- छायावाद के सौ वर्ष
- निराला की साहित्य साधना और डॉ. रामविलास शर्मा
- पुरुष के जीवन में स्त्री की पात्रता
- प्रवासी कथा साहित्य में स्त्री जीवन की अंतर कथा
- प्रवासी कथा साहित्य में स्त्री जीवन की अंतर कथा
- भारतीय साहित्य में अनुवाद की भूमिका
- भारतीय सिनेमा को तेलुगु फिल्मों का प्रदेय
- मुक्तिबोध की काव्य चेतना
- मुड़-मुड़के देखता हूँ... ... और राजेन्द्र यादव
- विश्व के महान कहानीकार : अंतोन चेखव
- वैश्वीकरण के परिदृश्य में अनुवाद की भूमिका
- सामयिक चुनौतियों के संदर्भ में नई सदी के हिंदी उपन्यास
- स्वप्न और आत्म संघर्ष की आत्माभिव्यक्ति : "अँधेरे में"
- हिंदी कथा-साहित्य में किन्नर स्वर
सिनेमा और साहित्य
- अंतर्राष्ट्रीय रंगमंच और सिनेमा के चहेते कलाकार सईद जाफ़री की स्मृति में
- अपराजेय कथाशिल्पी शरतचंद्र और देवदास
- अमेरिकी माफ़िया और अंडरवर्ल्ड पर आधारित उपन्यास: गॉड फ़ादर (The Godfather)
- इंग्लैंड के महान उपन्यासकार चार्ल्स डिकेंस की अमर कृति "ग्रेट एक्सपेक्टेशन्स"
- एमिली ब्राँटे का कालजयी उपन्यास : वुदरिंग हाइट्स
- ऑस्कर वाईल्ड कृत महान औपन्यासिक कृति : पिक्चर ऑफ़ डोरिएन ग्रे
- खेतिहर समुदायों के विस्थापन की त्रासदी : जॉन स्टाईनबैक की अमर कृति "ग्रेप्स ऑफ़ राथ"
- गॉन विथ द विद - एक कालजयी उपन्यास और सिनेमा
- चीन के कृषक जीवन की त्रासदी
- टॉलस्टाय की 'अन्ना केरेनिना' : कालजयी उपन्यास और अमर फिल्म
- डी एच लॉरेंस की विश्वविख्यात औपन्यासिक कृति : लेडी चैटरलीज़ लवर
- तेलुगु की सर्वकालिक लोकप्रिय पौराणिक फ़िल्म ‘मायाबजार‘
- दासप्रथा का प्रथम क्रांतिकारी विद्रोही - ‘स्पार्टाकस’
- द्वितीय महायुद्ध में नस्लवादी हिंसा का दस्तावेज़ : शिन्ड्लर्स लिस्ट
- फ्रांसीसी राज्य क्रान्ति और यूरोपीय नवजागरण की अंतरकथा : ए टेल ऑफ़ टू सिटीज़
- बेन-हर (BEN-HUR) - रोम का साम्राज्यवाद और सूली पर ईसा मसीह का करुण अंत
- बोरिस पास्टरनाक की अमर कृति 'डॉ. ज़िवागो'
- भारतीय सिनेमा और रवीन्द्रनाथ टैगोर
- भारतीय सिनेमा में 'समांतर' और 'नई लहर (न्यू वेव)' सिनेमा का स्वरूप
- भूमंडलीकरण और हिन्दी सिनेमा
- युद्धबंदी सैनिकों के स्वाभिमान और राष्ट्रप्रेम की अनूठी कहानी : "द ब्रिज ऑन द रिवर क्वाई"
- विश्व कथा साहित्य की अनमोल धरोहर "ले मिज़रेबल्स"
- विश्व की महान औपन्यासिक कृति ‘वार एंड पीस‘ (युद्ध और शांति)
- शॉर्लट ब्रांटे की अमर कथाकृति : जेन एयर
- स्त्री जीवन की त्रासदी "टेस - ऑफ द ड्यूबरविल"
- फ़्योदोर दोस्तोयेव्स्की की अमर औपन्यासिक कृति "द ब्रदर्स कारामाज़ोव"
यात्रा-संस्मरण
अनूदित कहानी
सामाजिक आलेख
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं