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दीवारों की अहमियत

दीवार शब्द सुनते ही पता नहीं क्यों दिल बैठने सा लगता है; अजीब-अजीब से ख़यालात दिल में आने लगते हैं। लगता है सारी मनहूसियत दीवारों के खड़े होने से ही आती है। हमें लगता है कि यह बाप-दादाओं से मिली शिक्षा का असर है, जो दीवारों को अब तक अवरोधक के रूप में देखती आई है। जबकि वैज्ञानिक दृष्टि रखने के कारण हमें बख़ूबी पता है कि दीवारें बड़ी काम की होती हैं। इनके बग़ैर कहाँ-किसका काम चला है आज तक? अब आप यह मत पूछियेगा कि विज्ञान की डिग्री आपने कहाँ से ली? परसेंटेज क्या रहा, वग़ैरह-वग़ैरह। तो भाई मेरा आग्रह यह है कि ऐसे नितांत व्यक्तिगत सवाल मुझसे तो क्या किसी से भी नहीं पूछे जाने चाहिए। ये सवाल नहीं आक्षेप हैं जो हौसला तोड़ देते हैं। भई, विज्ञान विषय और वैज्ञानिक दृष्टि में अंतर है। पढ़ाई मैंने ज़रूर की है, ये अलग बात है कि हम विज्ञान में कोई "एंटायर डिग्री" नहीं ले पाए। वैसे कुछ जानकार लोग बताते हैं कि यह विशेष टाइप की "एंटायर डिग्री" सिर्फ़ और सिर्फ़ पोलिटिकल साइंस में ही होती है, जिसे गिने-चुने लोग ही हासिल कर पाते हैं। और रही बात नम्बरों की तो मैंने उसकी चाहत ही कब की?? "जो मिल गया उसी को मुक़द्दर समझ लिया" वाले मूलमंत्र के साथ खुलकर पढ़ाई की। चूँकि समय का अभाव कभी रहा नहीं, सो कक्षा और उनके उत्तीर्ण-वर्ष के अंतराल बढ़ते ही रहे। पढ़ाई तो डूबकर के ही की, मगर उत्प्लावन बल ने हमारा साथ न दिया। मुक़द्दर तो जो था, सो था ही, लेकिन हमें लग रहा है कि बात कुछ और भी थी। बिलकुल परवीन शाकिर की नज़्म की तरह। उन्होंने कहीं कहा भी है - "फूलों का बिखरना तो मुक़द्दर ही था लेकिन, कुछ इसमें हवाओं की सियासत भी बहुत थी"।

ख़ैर छोड़िए इन सब बातों को। हम तो भटक गए विषय से; ठीक देश के विकास की तरह!! दरअसल आत्मविज्ञापन के लोभ के चलते आदमी अपने मन की बात मौक़ा पाकर कहीं न कहीं जड़ ही देता है।

 हाँ, तो बात चल रही थी दीवारों की। ये दीवारें बड़ी काम की होती हैं। अगर दीवारें न हों तो छत किस पर टिकेगी? घर कैसे बनेंगे? इसके अलावा दीवारें न होतीं तो हम कैसे जान पाते कि "दीवारों के भी कान होते हैं" और हम कैसे जान पाते कि गोपनीयता बनाए रखने के लिए हमें हमेशा खुसुर-फुसुर करके ही बतियाना चाहिए। अगर दीवारें न होतीं, तो पड़ोसी के घर का आँखों देखा हाल जानने के लिए हम किसके सहारे लटककर के ताका-झाँकी करते?? हम भारतीय अपने पड़ोसी को उसके हाल पर नहीं छोड़ सकते। अगर लोक-लाज के चक्कर में हम किसी के फटे में अपनी टाँग न अड़ा पाए, तो इसका मतलब यह नहीं कि हम तटस्थता-प्रिय लोग हैं। पड़ोस में रहकर, पड़ोस का हाल न जाने, कम-से-कम ऐसी तटस्थता हमें स्वीकार नहीं।

दीवारें हमारी चेतना का विस्तार हैं; ये हमारे जिज्ञासु मन को कल्पना के पँख देतीं हैं!! दीवार न हो, तो दीवार के उस पार क्या हो रहा है, यह जानने की इच्छा ही ख़त्म हो जाए!! दीवार ही है, जो उस पार की जिज्ञासा को ज़िंदा रक्खे है। हरिवंश राय बच्चन जी को भी "उस पार" की चिंता बहुत बेचैन किये रहती थी। वह कहते हैं, "इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!"

इस तरह दीवारें हमारी सृजनात्मकता के विकास और विस्तार की मुख्य हेतु हैं।

मेरे भाई, जब इश्क़ नाकाम हो जाता है, तो यही दीवारें सर पटकने के काम आती हैं। इसलिए दीवारें बहुत ज़रूरी हैं। इसके अलावा, होशियार लोग आपस में दीवारें खड़ी करके अपना काम निकाल लेते हैं। यह प्रविधि वैसे तो हर गाँव, क़स्बे और शहरों में पाई जाती है पर इसका प्रभावी और बहुलता से उपयोग राजनीति के क्षेत्र में होता है। नेतागण इस प्रविधि में विशेष दक्षता रखते हैं। 

दीवार के विविध रूप हैं। दीवारों का चुनाव, उद्देश्य की प्रकृति के अनुसार किया जाता है। अब जैसे कि ये रहनुमा लोग मज़हब की दीवार खड़ी करके नफ़रत की फसल बो लेते हैं, जिसकी कटाई वो अपने हिसाब से मौक़ा देखकर के करते रहते हैं। चुनावी माहौल में मज़हबी दीवारें वोट-बैंक के बिखराव को रोकने का काम करती हैं।

निश्चित रूप से दीवारें हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं। पूर्व में दीवारों के बारे में जितना अनाप-शनाप कहा गया है, वह दीवारों को बदनाम करने के लिए कहा गया। हमारे राजनीतिक नेतृत्व ने समाज के इस पारंपरिक मिथ को तोड़ दिया है। राजनीतिक नेतृत्व के एजेंडे में दीवारों को उठाना और गिराना हमेशा से मुख्य विषय के रूप में रहा। नेतृत्व के द्वारा कई बार दीवारें गिराईं ही इसलिए गईं ताकि नई दीवारें उठाई जा सकें।

ज्ञात हो कि दीवारों पर आए तमाम शोधपत्र हमारे राजनीतिक नेतृत्व के मनोमस्तिष्क की ही अभिनव उपज हैं। दीवारों के कृतित्व को देखते हुए अब दीवारों के प्रति सहज ही श्रद्धाभाव उमड़ आता है। हमारे यहाँ नेताओं द्वारा दीवारों पर बहुत काम किया गया है। यहाँ तक कि इनके चुनाव प्रचार की शुरूआत ही दीवारों पर क्रांतिधर्मी नारों के लिखने से होती है। दीवारें चुनावी घोषणाओं से पटी रहती हैं। 

इसके अतिरिक्त सरकारी योजनाओं के बारे में आमजन को जानकारी देने के लिए दीवारें लेख-पटल के रूप में काम आ रहीं हैं। कहने का मतलब, अब वह दिन दूर नहीं, जब पेपरलेस टेक्नोलॉजी अपने पूरे शबाब के साथ दीवारों पर उतर आएगी। हालाँकि इस खोज के असली हक़दार गली-मोहल्ले के वे लौंडे-लपाड़े हैं, जिन्होंने अपनी लेखकीय प्रतिभा और प्रेम संदेशों का लोकार्पण करने की गरज से दीवारों को अपना कार्यक्षेत्र बनाया। इसके अलावा थूकने और लघुशंका के लिए तो भारतीय दीवारें पहले से ही पूरे विश्व में जानी जाती रहीं हैं। हमारे यहाँ दीवारों के रंग-रोगन की समस्या नहीं, क्योंकि हम भारतीय लगभग 5-6 फुट की ऊँचाई तक तो ऐसे ही गुटखा और पान से थूक-थूककर रंग देते हैं। हालाँकि फिर भी लोग शौक़िया तौर पर दीवारें पेंट करवाते हैं। यह विशुद्ध मनी वेस्टेज है। उनको अगर पेंट करवाना है, तो करवाएँगे ही पर बचत के प्वाइंट ऑफ़ व्यू से, कम से कम उन्हें शुरुआती ऊँचाई के 5-6 फुट थूकने वालों के लिए छोड़ देना चाहिए। इसके साथ ही हमें गर्व है कि हम अपनी दूसरी नितांत वैयक्तिक गतिविधि को भी वैश्विक पहचान दिलाने में कामयाब हुए हैं। हमारे गाँव में ही पड़ोस में रहने वाले एक भाईसाहब ने अपनी ज़िंदगी में गली की दीवार की एक जगह-विशेष को कभी सूखने न दिया। उनकी देखा-देखी गली के कुछ कुत्ते भी उस ख़ास जगह को उसी प्रक्रिया के लिए आरक्षित समझ निश्चिंत भाव से दीवार को गीला करते रहे। इस नमी ने दराजों में उग रहे न जाने कितने पौधों को यूँ ही जीवन दे दिया। इस लोक विधा ने पर्यावरणीय संतुलन को साधने में हमारी कितनी मदद की है, हम बता नहीं सकते। इसके अतिरिक्त टॉयलेट पर ख़र्च होने वाली एक बड़ी राष्ट्रीय पूँजी को बचा करके हमने प्रकारांतर से अपनी अर्थव्यवस्था को मज़बूत किया है।

इधर दीवारों पर नित नए शोध हो रहें हैं। दीवारों ने हमेशा अपनी उपयोगिता सिद्ध की है। इधर दीवारों के एक अभिनव प्रयोग ने दिल को ख़ुश कर दिया। अभी हाल में एक महत्वपूर्ण अतिथि के आगमन पर हमने दीवार का बहुत सकारात्मक उपयोग किया। अतिथि के ज़ेहन में भारत की अच्छी तस्वीर पेश करने के इरादे से हमने गन्दी झुग्गी-झोपड़ियों को रातों-रात दीवार खड़ी करके ढक दिया। इस तरह अब ये दीवारें ग़रीबी ढकने के भी काम आने लगीं; और ग़रीबी से भी ज़्यादा ग़रीबों को ढकने के काम!! क्योंकि ग़रीबी तो नासमझ होती है, उस बेचारी को क्या कहें, पर ये मुए ग़रीब तो पैदाइशी हठी होते हैं, जो मौक़ा-बेमौक़ा नहीं देखते और सर उठाए किसी के भी सामने अपनी ग़रीबी का नुमाया करने चले आते हैं। अब बताइये, ऐसे में, दीवार न बनाएँ तो क्या करें??

ये दीवारें घर के आँगन में पड़े उस परदे की तरह है, जो बची-खुची बचाये रखती हैं। भई,अपनी इज़्ज़त अपने हाथ!! कोई भी समझदार आदमी अपने घर की इज़्ज़त सरेआम नहीं उछाल सकता। और फिर ग़रीबी कोई दस-पन्द्रह दिन में ख़त्म होने वाली चीज़ तो है नहीं और न ही आप इतनी जल्दी ग़रीबों का भाग्य बदल सकते हैं। जो चीज़ें पिछले 70 सालों में नहीं बदलीं वो यकायक बदल भी कैसे सकती हैं? ऐसे में मेहमान की निगाह से अपनी ग़रीबी को छुपाने के लिए तात्कालिक विकल्प के रूप में दीवार एक बेहतर विकल्प है। यही वज़ह है कि दीवार की उपयोगिता दिनानुदिन बढ़ती ही जा रही है। दीवार का सम्मोहन हमेशा से रहा है। अपने शुरुआती दौर के आदर्शवादी झोंके में जब मैं दीवार के अखिल भारतीय स्वरूप को समझ न पाया था, दीवार की तौहीन में एक तुकबंदी कर दी थी- "लोग दीवारें खड़ी करके मकान बना लेते हैं, मेरे दिल के मकां में कोई दीवार नहीं है" आज मैं उसी तुकबंदी को दीवार के सम्मान में ख़ारिज करता हूँ।
 

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