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देश-दुनिया के 'सवाल' और पत्रकारिता के 'सरोकार'

समीक्षित पुस्तक : सवाल और सरोकार 
लेखक : ऋषभदेव शर्मा 
प्रकाशक : परिलेख प्रकाशन, नजीबाबाद 
वितरक : श्रीसाहिती प्रकाशन, हैदराबाद/ मो. 9849986346. 
संस्करण : 2020
पृष्ठ : 128 
मूल्य : रु 140/- 


समाचार पत्रों में सभी पृष्ठों का अपना-अपना महत्व होता है। पाठक अपनी रुचि के अनुरूप समाचार पत्र पढ़ता है। कुछ लोग आरंभ से लेकर अंत तक पढ़ जाते हैं, कुछ लोग खेल पृष्ठ पढ़ते हैं, तो कुछ लोग संपादकीय पृष्ठ। संपादकीय पृष्ठ अन्य पृष्ठों से अलग दिखाई देता है। इसका अलग महत्व है क्योंकि संपादकीय उस समाचार पत्र के ‘विज़न’ को रेखांकित करता है। ध्यान देने की बात है कि दैनिक समाचार पत्रों का संपादकीय समसामयिक विषयों पर केंद्रित रहता है। संक्षिप्तता संपादकीय का मुख्य गुण है। आदर्श संपादकीय उसे माना जाता है, जिसकी शब्द सीमा लगभग 300-600 शब्दों के बीच हो। संक्षिप्तता के चक्कर में तथ्यों को छोड़ना नहीं चाहिए। ऐसे ही 60 संक्षिप्त, सारगर्भित एवं रोचक समसामयिक संपादकीयों को ऋषभदेव शर्मा (1957) की सद्य: प्रकाशित पुस्तक ‘सवाल और सरोकार’ (2020) में देखा जा सकता है। 

प्रसिद्ध तेवरीकार, कवि, आलोचक और पत्रकार ऋषभदेव शर्मा की दैनिक संपादकीय टिप्पणियाँ पिछले कुछ वर्षों में काफ़ी लोकप्रिय होकर कई अलग-अलग संकलनों के रूप में आ चुकी हैं। ऋषभदेव शर्मा के संपादकीयों में कहीं भी उबाऊपन नहीं होता। पठनीयता उनका विशेष गुण है। समाचार पत्र में प्रकाशित संपादकीय को पढ़ने और पुस्तकाकार प्रकाशित संपादकीय को पढ़ने का अनुभव अलग-अलग होता है। क्योंकि अब ये तात्कालिकता की सीमा पारकर अपनी उत्तरजीविता सिद्ध करते हैं। इससे पहले प्रकाशित उनके संपादकीयों के दो संकलन ‘संपादकीयम्’ (2019) और ‘समकाल से मुठभेड़’ (2019) की काफ़ी चर्चा हुई है। उसी क्रम में ‘सवाल और सरोकार’ उनकी रोचक और चुटीली समसामयिक टिप्पणियों का तीसरा संग्रह है। वैसे ऑनलाइन तो उनके और भी दो संपादकीय-संकलन उपलब्ध हैं। अस्तु!

‘सवाल और सरोकार’ में अगस्त 2019 से दिसंबर 2019 के बीच समसामयिक विषयों पर लिखी टिप्पणियाँ संगृहीत हैं। इस पुस्तक की भूमिका में प्रो. गोपाल शर्मा ने यह स्पष्ट किया है कि ‘देश-दुनिया के सरोकारों को सवाल-जवाब की शक्ल देते हुए प्रस्तुत करना भी संपादकीय का दायित्व है।‘ इन संपादकीय टिप्पणियों में सामाजिक से लेकर राजनैतिक, सांस्कृतिक, दार्शनिक और आर्थिक सवालों तक पर गंभीर विमर्श निहित है। इस विमर्श को लेखक ने कुल आठ खंडों में सहेजा है। इन खंडों के शीर्षक ध्यान आकृष्ट करते हैं – सियासत की बिसात, फ़िरदौस बर रूये ज़मीं अस्त, अगल-बगल, लोक बनाम तंत्र, मंडी की मार बुरी, समाज : आज, पृथ्वी की पुकार तथा प्रलय की छाया। ये शीर्षक लेखक के सरोकारों, पैनी दृष्टि और लोकमंगल भावना को दर्शाते हैं। 

सामाजिक कुरीतियों, दार्शनिक कट्टरपन, राजनैतिक पैंतरेबाज़ी, आतंकी हमलों जैसी तमाम घटनाओं और युद्ध की विभीषिका से लेखक का मन विचलित हो उठता है और वे आक्रोश से भर जाते हैं। उनका यह आक्रोश उनकी तेवरियों में तो मुखरित है ही, इन संपादकीयों में भी देखा जा सकता है। ऋषभदेव शर्मा भारत सरकार के इंटेलीजेंस ब्यूरो के ख़ुफ़िया अधिकारी रह चुके हैं। उन्होंने भारत-पाक सीमा पर अपनी नियुक्ति के दौरान सुरक्षाकर्मियों और सैनिकों के जीवन को भी नज़दीक से देखा है। अतः जम्मू-कश्मीर के बारामूला ज़िले में जो आतंकवादी हमला हुआ था, उसके विरुद्ध आवाज़ उठाते हुए वे सभी को चेताते हैं कि ‘आतंकी चोरी छिपे वारदातें करते हैं और बिलों में छिप जाते हैं। ऐसे में सुरक्षा बलों को अतिरिक्त सावधानी बरतनी होगी।‘ (पृ 103)। वे यह कहने में संकोच नहीं करते कि ‘कश्मीर घाटी से सुरक्षा बलों को हटाने की माँग करने वाले हमारे नेताओं को इन हालात के प्रति भी सचेत होना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकने के चक्कर में वे अनजाने में आतंकियों को सहारा दे बैठें!’ (पृ 104) 

पत्रकार के रूप में एक ज़िम्मेदार नागरिक का कर्तव्य निर्वाह करते हुए ऋषभदेव शर्मा ने बहुत बार समकालीन राजनीति की दुखती रगों पर भी उँगली रखी है। वे सवाल उठाते हैं कि ‘क्यों नहीं पार्टियाँ अपने उच्छृंखल सदस्यों को तुरंत दंडित करतीं?’ इसका स्पष्टीकरण भी वे ख़ुद ही करते हैं यह कहकर कि ‘नहीं करतीं, क्योंकि इन बिगड़े बच्चों की बिगड़ी हरकतें भी पार्टी को चर्चा में बनाए रखने की नीति हो सकती है!’ (पृ 10)। लेखक यह कहकर चुटकी लेते हैं कि ‘कोई छोटी-सी पाठशाला होती तो ऐसे बच्चों को कभी का निष्कासित कर दिया जाता और सदा के लिए एडमिशन पर रोक लगा दी जाती। लेकिन देश की सबसे बड़ी पंचायत को पंगु बनाने वालों के ख़िलाफ़ ऐसी कोई कार्रवाई नहीं हो सकती? ज़्यादा से ज़्यादा आप उन्हें मार्शलों की मदद से बाहर खदेड़ सकते हैं। पर इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है? बिगड़े बच्चे अगली घंटी बजते ही फिर क्लास में आ धमकेंगे और मास्टर जी की नाक में दम करेंगे!’ (पृ 10)। लेखक जहाँ राजनैतिक पैंतरेबाज़ी और आतंक के विरुद्ध आक्रोश व्यक्त करते हुए दिखाई देते हैं, वहीं चिंदी-चिंदी होते पर्यावरण के प्रति चिंतित भी। अनेक स्थलों पर व्यंग्य और भाषा का खिलंदड़ापन पाठक को देर तक कभी कचोटता, तो कभी गुदगुदाता है।

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि इन 60 छोटी-छोटी सारगर्भित टिप्पणियों में देश और दुनिया के प्रति लेखक की चिंता और गंभीर चिंतन द्रष्टव्य है। 

समीक्षक:
गुर्रमकोंडा नीरजा,
सह संपादक- ‘स्रवंति’,
असिस्टेंट प्रोफेसर, 
उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, 
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद- 500004.

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