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देवी नागरानी रचित 'और गंगा बहती रही' का समाजशास्त्रीय निचोड़

कथा संग्रह: और गंगा बहती रही
अनुवादक/लेखिका: देवी नागरानी
संस्करण: 2017
मूल्य: 270
पन्ने: 112      
प्रकाशक: स्नेह्वेर्धन प्रकाशक, डॉ.एल.वी. तावरे, ८६३ सदाशिव पेठ, महात्मा फुले सभाग्रहमागे, पुणे ४११०३० , 
ईमेल: snehaltawre@gmail.com

स्व. श्री जीवतराम सेतपाल जी, ने ‘प्रोत्साहन’ के संपादकीय में लिखा है– “लघुकथा आनंद की बौछार है, बरसात नहीं, होंठों की मुस्कान है, हँसी या ठहाका नहीं, यह मधुर गुदगुदी है, खुजली नहीं। लघुकथा फुलझड़ी है बम नहीं।” उपरोक्त कथन देवी नागरानी रचित “और गंगा बहती रही”, सिन्धी लघुकथाओं के हिन्दी अनुवाद की अनमोल पुस्तक, के दौरान उनके समीक्षाधीन विवेचना में पढ़ने को मिला। वास्तव में कोई भी लघुकथा को उसके आकार के आधार पर मूल्यांकन करना उचित नहीं है। लघुकथाएँ काव्य सरी के ज़ेवरात पहने रहती हैं। जिससे उनकी सुन्दरता तो बनी रहती है पर कहीं भी उनकी सारगर्भितता परिधि को कम नहीं करती, ज्यों का त्यों लक्ष्य भेदने में सार्थकता प्राप्त करती है। विदुषी लेखिका द्वारा सतत रचनात्मक्ता में लिप्त रहना उपरोक्त पुस्तक का एक और साक्ष्य है। बहुभाषी लेखिका एक साथ सिन्धी, हिन्दी, अंग्रेज़ी के अलावा तेलुगू, मराठी, उर्दू में क़लम चलाना पाठकों को अचम्भित अवश्य करता है। खैर यहाँ मुझे उनकी सिन्धी लघु कथाओं का हिन्दी अनुवाद की समीक्षा का दायित्व सौंपा गया है तो राह न भटक कर उनकी कथाओं पर प्रकाश डाल रही हूँ।

क्योंकि देवी जी का सिन्धी व हिन्दी भाषा पर समानाधिकार है और मैं स्वयं दोनों भाषाओं पर यदा-कदा क़लम चलाती रहती हूँ और उनकी कुछ कथाओं को मैंने दोनों भाषाओं में पढ़ा है, इसलिए कथाओं की आत्मा अवलोकित कर स्तम्भित हो जाती हूँ। उनका एक-एक अनूदित शब्द मानो नयी मौलिकता का जामा पहना हुआ है। मुझे स्वयं अगर कुछ पढ़ने को मन करता है और उपन्यास, कथा, कविता व लघुकथा में चुनाव करना पड़े, तो मैं सबसे पहले लघुकथा ही पढ़ती हूँ। एक तो कम समय में लेखक की मंशा का ज्ञान हो जाता है दूसरा समाज की सकारात्मक या नकारात्मक सोच ज्ञात हो जाती है। जैसे समय की दरकार कथा में बेटा बाप से साथ खाना न खाने का शिकवा शिकायत नहीं करता, बल्कि पापा से दस डॉलर माँग लेता है ताकि उसके पास पहले के इकत्रित 15 डॉलर में मिला कर पापा को दे और उस एक घंटे के हिसाब से पापा की 25 डॉलर की कमाई पापा को देकर, उनसे एक दिन साथ खाना खाने का सपना पूरा कर सके। बिना किसी रुदन के आसानी से बात कहने वाला वो बालक, कितना सहज व साकार होकर अपनी बात कहता है। दूसरी ओर इसी संकलन में रिश्ते कथा का एक और रंग अन्दर तक कचोट कर रख देता है। माँ-बाप पाई-पाई जोड़ बेटे को पढ़ने के इस उम्मीद से विदेश तो भेजते हैं कि पढ़कर अफ़सर बन घर लौटेगा और घर की बगिया लहलहायेगी। पर वहीं उसी बेटे द्वारा फिरंगी से विवाह के फोटो देखकर हृदय को सदमा लगना माँ बाप के लिए काफ़ी है और वही बेटा माँ बाप की सेवा करना तो दूर, उनसे सेवा लेने की बात कहे, तो कब तक ऐसे बेटे की राह ताकी जा सकती है। सीने पर पत्थर रख कर माँ बाप भी तीर्थयात्रा कहकर उसे न आने का फ़रमान जारी कर देते हैं। रिश्तों के ही ताने-बाने में बुनी एक और लघुकथा अहसास तो एक अलग फ़्लेवर लिये हुए है। केटी 12 साल की बाला ट्यूशन पढ़कर रोज़ नानी के साथ लौटती है। एक दिन नानी न आकर उसकी बड़ी बहन उसे लेने आती है। टीचर पूछ बैठती है कि तुम्हारी नानी नहीं आयी? तो बहन कहती है उसकी नानी का मुझे नहीं मालूम? अगला टीचर का प्रश्न था कि इसे कहाँ ले जाओगी? वह कहती है “इसके माँ के घर” और “तुम?” “मैं अपनी माँ के घर जाऊँगी।” दोनों बहनें होकर भी अलग-अलग नानियाँ व अलग अलग माँयें? समाधन तब मिलता है जब वो कहती है, "क्योंकि मैं अपनी मम्मी के पास रहती हूँ, और मेरे पापा केटी की मम्मी के साथ।"

ऐसे जवाब सुनकर कौन कहता है भावनाओं को ठेस नहीं लगती? कौन कहता है रिश्तों का महत्व नहीं है ? पर जो रिश्ते बेमतलब के हों, उनका न होना ही बेहतर है। ये पुरुष का दोगलापन नहीं तो क्या है। इसी तरह एक और कहानी दावत भी इसी संकलन का अंश है। जिसमें होस्ट को केवल कवियत्री का कैमरा चाहिये जिसे वो अपनी काव्य गोष्ठी की तस्वीरें खींच वाह-वाही लूट सके। पर कवियत्री को कैसे कहे कि आपका कैमरा चाहिये? सो उसे निवेदन करके काव्य गोष्ठी में आमंत्रित किया जाता है और अगले वाक्य में कैमरा लाने की बात कहकर अपनी मंशा ज़ाहिर की जाती है। पत्थर दिल कथा के ये अंश किसे नहीं रुला पायेंगे? "जाकर उनसे कह दो यहाँ कोई उनका बेटा-वेटा नहीं रहता। जिस ग़ुरबत में उन्होंने मुझे पाला-पोसा, उसकी संकरी गली की बदबू से निकल कर अब मैं आज़ाद आकाश का पंछी हो गया हूँ। मैं किसी रिश्ते-विश्ते को नहीं मानता। पैसा ही मेरा भगवान है। अगर उन्हें ज़रूरत हो तो कुछ उन्हें भी दे सकता हूँ जो शायद उनकी पत्नि की जान बचा पायेगा . . .! और उसके आगे ख़ामोशियों के सन्नाटे से घिरा दीनानाथ कुछ भी न सुन पाया। बस लड़खड़ाते क़दमों से वापस लौटा, जैसे किसी पत्थर दिल से उनकी मुलाक़ात हुई हो। दीनानाथ बेटे से पैसे माँगने नहीं बल्कि अपनी मरण शय्या पर पड़ी पत्नि की बेटे को देखने की अन्तिम इच्छा पूरी करने बेटे के द्वार पर गया था। ग़रीबी में पला बेटा धन की चमक देख कर विक्षिप्तता में घिर चुका था।

इसी तरह की विक्षिप्तता के दर्शन भिक्षा कहानी में भी होते है। देवेन्द्र नारायण बेमन से ज़मीन में पटककर भिक्षा देता है और समयाभाव का कहकर अपना अंहकार दर्शाता है। पर कहते हैं न समय बलवान होता है। वह भिक्षु बालक समय के करवट लेते ही नौजवान प्रतिष्ठावान सभ्रान्त बन चुका था। उधर देवेन्द्र नारायण पर समय की मार पड़ी और भिक्षुरूप में उसी के दरवाज़े जाता है जिसे कभी उछाल कर भिक्षा मिलती थी। पर अनुभूतियाँ सिखाती हैं कि सभ्रान्तता नहीं छोड़नी चाहिये और वह गिरते पात्र पर निवेदन करता है "मान्यवर आप कृपया अपना पात्र सीधा रखें ताकि मैं आपकी सेवा कर पाऊँ।" नौजवान की विनम्र आवाज़ ने देवेन्द्र नारायण के हृदय में करुणा भर दी और साथ में दीनता भी. नौजवान ने उनके भावों को पहचानते हुए विनम्र भाव कहा – "हम तो वही है मान्यवर बस स्थान बदल गए है और यह परिवर्तन भी एक नियम है जो हमें स्वीकारना है, इस भिक्षा की तरह न हमारा कुछ है, न आपका ही कुछ है। बस लेने वाले हाथ कभी देने वाले बन जाते हैं।”

अब पुस्तक का टाइटल कथा जो काफ़ी मार्मिकता से भरा हुआ है उस पर आती हूँ। टाइटल से ऐसा लगता है कि कोई तीर्थ स्थान या गंगा मैय्या की महिमा का वर्णन होगा। पर लाचारी, हीनता और बेकारी की त्रिकोणीय व्यथा में अश्रुधारा को गंगा जी का नाम दिया गया है। रोज़-रोज़ रोज़गार पाने की लालसा ने रामप्रसाद को लाचार कर दिया था। ज़िन्दगी का जाम उसके हिस्से में कुछ ऐसा आया, कि न तो वह उसे पी सका, न निगल सका, न थूक सका। नीलकंठ सा हो गया था मानो! घर की चाकरी करते-करते एक अनजान हीन भावना उसे भीतर ही भीतर कचोटती रहती थी। वह नौकरी की तलाश में थक हारकर निकम्मा-होकर अब घर के कामों में पत्नी का हाथ बँटाने में लगा रहता। मरता क्या न करता?

पत्नि सुधा भी रोज़-रोज़ बाप से पैसे माँग-माँग कर हार सी गयी थी। बिना किसी दुर्भावना के शर्म से अपने डूबने की बात कह दी और फिर से बाप घर पैसे लाने की बात करके सामान के साथ जाने ही लगी तो, पति ने कहा मैं गंगा जी से नहाकर आता हूँ, तुम मेरे लौटने के बाद जाना। पति तो गंगा नहाने गया और लौटा ही नहीं और सुधा की लाचारी की गंगा जीवन भर बहती रही।

संकलन की सभी ८० कथाओं पर तो पैन चलाना संभव नहीं है सो अन्तिम कथा की बात कह अपने क़लम को विराम दूँगी।

कथित संकलन की अन्तिम कथा अलौकिक स्पर्श तो एक अलौकिक फ़्लेवर ली हुई कथा है। इसमें कैसे करिश्माई चमत्कार होते हैं, यह बानगी बता कर देवी जी ने कथा को भोग लगा दिया है। मेरे निजी अनुभूतियों से मैंने जाना है कि नेक, सच्ची व शुद्धाचार आत्माओं के साथ करिश्मे होते रहते हैं। मुझे भी ऐसे चमत्कारी करिश्मों का अनुभव है। तेज़ आँधी तूफ़ान, भयंकर बारिश, सूना रास्ता, दूर तक इन्सानी पौध के दुर्लभ दर्शन के बीच मेरी कार, जो मैं स्वयं चला रही थी, अचानक उस भंयकर अँधियारी शाम में चलते-चलते रुक गयी। ऊपर से आलम ये कि फ़ोन भी घर भूल गयी। रास्ते पर कोई दूर तक वाहन तक नहीं नज़र आ रहा था। पर फिर भी न जाने क्यों दिल ज़रा नहीं घबड़ाहट से डरा। बारिश के कारण कार से बाहर भी नहीं आ सकती थी। पर न जाने कैसे ईश्वर आदेश से गायत्री मंत्र गुनगुनाती छाते के साथ कार के बाहर आयी, जैसे ही बोनेट के पास खड़ी हुई, तो एक बहुत ही साधारण से कपड़ों में एक देवतुल्य फ़रिश्ता वीरान में सामने आया और कार का बोनेट खोलने को कहा। दो मिनटों में न जाने उसने कौन सी विद्या का उपयोग किया और कार चल पड़ी। स्तभित सी मैं पूछे बिना न रह पायी कि कौन हो? बोला सब्ज़ी बेचता हूँ, कभी ड्राइवर का काम करता था और जिस अनजाने दिशा से आया, उसी दिशा में तुरन्त अदृश्य हो गया। बिना कुछ पैसे लिये उसका चले जाना मुझे पूर्व के कई ऐसे करिश्मों की याद दिला गया।

देवी जी की उस कथा में भी एक ऐसी महिला बर्फ़ घर की फ़ैक्ट्री में बंद हो जाती है। पर उसके सद्‌व्यवहार के चलते दरबान को उसकी याद आती है और बरफ़ के बीच बंद महिला को सुरक्षित निकाल कर बचा लिया जाता है। पूछने पर उसने बताया कि फ़ैक्ट्री में साल काम करते 35 उन अनेक कारीगरों के बीच वह एक ही थी जो सुबह आने पर उसे 'गुडमॉर्निंग' कहती और जाते वक्त 'गुड बॉय'। बाक़ी और तो उसे यूँ नज़र अंदाज़ करते जैसे उसका वहाँ कोई अस्तित्व ही नहीं था। 

"आज सुबह आपने 'गुड मॉर्निंग' से अभिवादन तो किया और अब तक 'गुड बॉय कल मिलते हैं’ मैंने नहीं सुना। सोचा फेरा लगा आऊँ कहीं आप काम में व्यस्त तो नहीं।”

यह कथा-व्यथा नहीं एक संपूर्ण विश्वास का दस्तावेज़ है! नेकी और सद्व्यवहार कभी ज़ाया नहीं जाते, वरदान बन कर लौटते हैं।
वैसे तो किसी समीक्षात्मक विवेचना में सापेक्षात्मकता के साथ आलोचनात्मक विवेचना की भी व्याख्या की जाती है, पर यहाँ मुझे केवल नेट से ली गयी उनकी कथाओं के लेखकों का लुप्तप्राय नाम थोड़ा खटकता है, के साथ इतनी सी बात कहूँगी।

सिंधी, हिन्दी, गुरमुखी, उर्दू, तेलुगू, मराठी, व अंग्रेज़ी भाषाज्ञात्री देवी जी, इस 80 की आयु में भी इतनी साहित्य साधना में तल्लीन, को मैं नमन करती हूँ। एक साथ इतनी भाषाओं में उनका क़लम चलाना, उन्हें सन्त विनोबा भावे के बाद उनको महान सा बनाता है। भावे जी जिन्हे एक साथ इतनी सारी भारतीय क्षेत्रीय भाषाओं का ज्ञाता माना जाता था और हिन्दी,अंग्रेज़ी, संस्कृत आदि की धारा प्रवाहिकता तो सर्वविदित है। देवी जी का भी सात भाषाओं का ज्ञान बड़ी बात है।

मैं देवी जी को हार्दिक शुभकामनाएँ उनके उच्चतम स्वास्थ्य, दीर्घ आयु, लम्बी साहित्यिक साधना के लिये देती हूँ, ताकि हम और ऐसे समृद्ध साहित्य का पाठन कर सकें।

डॉ. ध्रुव तनवानी 
2/75, मोराबादी, राँची
Email-tanvanid@yahoo.co.in

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