अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

धरती के लिए

जब-जब घिरता हूँ,
सवालों के घेरे में।
तब-तब झुक जाता हूँ,
धरती के सम शीतोष्ण फ़र्श पर।

 

जब-जब कोई प्रश्न पूछता है,
गगन के रहस्य से,
सहज गरदन झुक जाती है,
धरती के उत्तर आगोश में।

 

आकाश तो अपने,
भार पर अथाह रुका है।
और धरती स्मरण करा देती है,
मुझे अपने भार का।

 

आकाश ने छीना,
मेरा अस्तित्व।
जब-जब मैंने देखना चाहा,
गरदन मेरी टूट गयी।

 

बस धरती ने मुझे,
आश्रय दिया है निःस्वार्थ।
कहीं एक जगह खड़े होकर,
अपने आप को टटोल सकूँ।

 

मैं कल्पना नहीं करना चाहता,
असीमित गगन के सैलाब में।
वहाँ मेरा ज़मीर गुम हो जाता है।

 

उसके हृदय के सापेक्ष,
न मेरी औक़ात है,
और न मेरी क्षमता।
क्योंकि धरती ,
मेरे हिस्से की पहचान दे चुकी है।

 

मैंने घबराहट में,
स्थिर होना,
धरती से सीखा है।

 

मैंने कितनी चोट पर,
धूल जमानी,
धरती की धूल से मिटानी चाही है।

 

मैंने अपनी औक़ात को,
धरती के एक कोने में पसरा पाया है।
मैंने अपने दर्द को चलाना,
धरती पर क़दमों की भाँति चलाना चाहा है।

 

मैंने अपने आप को भुलाना,
धरती के एक टुकड़े में,
विस्मरण करना चाहा है।

 

और लोग कहते हैं,
मैं गरदन झुका कर क्यों चलता हूँ?

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

नज़्म

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं