धरती के लिए
काव्य साहित्य | कविता राहुलदेव गौतम1 Oct 2019
जब-जब घिरता हूँ,
सवालों के घेरे में।
तब-तब झुक जाता हूँ,
धरती के सम शीतोष्ण फ़र्श पर।
जब-जब कोई प्रश्न पूछता है,
गगन के रहस्य से,
सहज गरदन झुक जाती है,
धरती के उत्तर आगोश में।
आकाश तो अपने,
भार पर अथाह रुका है।
और धरती स्मरण करा देती है,
मुझे अपने भार का।
आकाश ने छीना,
मेरा अस्तित्व।
जब-जब मैंने देखना चाहा,
गरदन मेरी टूट गयी।
बस धरती ने मुझे,
आश्रय दिया है निःस्वार्थ।
कहीं एक जगह खड़े होकर,
अपने आप को टटोल सकूँ।
मैं कल्पना नहीं करना चाहता,
असीमित गगन के सैलाब में।
वहाँ मेरा ज़मीर गुम हो जाता है।
उसके हृदय के सापेक्ष,
न मेरी औक़ात है,
और न मेरी क्षमता।
क्योंकि धरती ,
मेरे हिस्से की पहचान दे चुकी है।
मैंने घबराहट में,
स्थिर होना,
धरती से सीखा है।
मैंने कितनी चोट पर,
धूल जमानी,
धरती की धूल से मिटानी चाही है।
मैंने अपनी औक़ात को,
धरती के एक कोने में पसरा पाया है।
मैंने अपने दर्द को चलाना,
धरती पर क़दमों की भाँति चलाना चाहा है।
मैंने अपने आप को भुलाना,
धरती के एक टुकड़े में,
विस्मरण करना चाहा है।
और लोग कहते हैं,
मैं गरदन झुका कर क्यों चलता हूँ?
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
"पहर को “पिघलना” नहीं सिखाया तुमने
कविता | पूनम चन्द्रा ’मनु’सदियों से एक करवट ही बैठा है ... बस बर्फ…
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- अनसुलझे
- अनुभव
- अन्तहीन
- अपनी-अपनी जगह
- अब लौट जाना
- आँखों में शाम
- आईना साफ़ है
- आज की बात
- उदास आईना
- एक छोटा सा कारवां
- एक तरफ़ा सच
- एक तस्वीर
- एक पुत्र का विलाप
- कल की शाम
- काँच के शब्द
- काश मेरे लिए कोई कृष्ण होता
- कुछ छूट रहा है
- गेहूँ और मैं
- चौबीस घंटे में
- छोटा सा सच
- जलजले
- जीवन इधर भी है
- जीवन बड़ा रचनाकार है
- टूटी हुई डोर
- ठहराव
- तुम्हारा एहसान
- दर्द की टकराहट
- दीवार
- दीवारों में क़ैद दर्द
- धरती के लिए
- धारा न० 302
- पत्नी की मृत्यु के बाद
- पीड़ा रे पीड़ा
- फोबिया
- बेचैन आवाज़
- भूख और जज़्बा
- मनुष्यत्व
- मशाल
- मुक्त
- मुक्ति
- मेरा गुनाह
- मैं अख़बार हूँ!
- मैं डरता हूँ
- मैं दोषी कब था
- मैं दोषी हूँ?
- रास्ते
- रिश्ता
- वह चाँद आने वाला है
- विवशता
- शब्द और राजनीति
- शब्दों का आईना
- संवेदना
- सच चबाकर कहता हूँ
- सच बनाम वह आदमी
- सच भी कभी झूठ था
- सफ़र (राहुलदेव गौतम)
- हादसे अभी ज़िन्दा हैं
- ख़ामोश हसरतें
- ख़्यालों का समन्दर
- ज़ंजीर से बाहर
- ज़िन्दा रहूँगा
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं
{{user_name}} {{date_added}}
{{comment}}