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डायरी का पन्ना – 007 : दुखी पति

एक मशहूर कहावत है कि “दूसरे की थाली में परोसा हुआ बैंगन भी लड्डू लगता है”। अपना जीवन तो हम सब जीते ही हैं लेकिन दूसरे की ज़िन्दगी में झाँक कर और उसे जी कर ही असलियत का पता चलता है। इस कड़ी में अलग अलग पेशों के लोगों के जीवन पर आधारित जीने का प्रयास किया है।

 

पचास साल से भी ऊपर हुई हमारी शादी के बाद लगातार श्रीमतीजी के यह वचन कि “आप हमेशा बेकार के कामों में उलझे रहते हो और जनाब के पास मेरे लिये एक मिनट का समय भी नहीं है,” ने मुझे बहुत परेशान कर रक्खा था। कभी-कभी तो ये प्रवचन एक दिन में दस-दस बार सुनने को मिलते थे। 

जैसे पत्थर पर रस्सी को बार-बार घिसा जाये तो पत्थर पर भी निशान पड़ जाते हैं, उसी तरह रोज़-रोज़ की यह चकल्लस सुनते-सुनते अब मुझे भी अपने आप पर थोड़ा शक होने लगा था कि मैं वाक़ई में लापरवाह पतियों की कैटगरी में आ गया हूँ और शादी के मण्डप में जो सात वचन दिये थे उनका ठीक तरह से पालन नहीं कर रहा हूँ। कई बार सोचा भी कि कहीं यह उमर का तक़ाज़ा तो नहीं है। ऐसा भी हो सकता है कि वक़्त के साथ-साथ मैं कुछ ज़्यादा ही सनकी होता जा रहा हूँ।

रविवार का दिन था और श्रीमतीजी की सहेलियों की किट्टी पार्टी आज हमारे घर पर थी। एकाएक फ़्लू होने के कारण हमारी ’हैल्प’ अनु काम पर न आ सकी। अब क्या किया जाये? परेशान श्रीमती जी ने मुझ से कहा कि अगर मैं स्नैक्स और खाना सर्व करने में उनकी मदद कर दूँ तो बहुत अच्छा होगा। श्रीमती के कहे अनुसार मैंने खाने का सारा सामान फ़ैमिली रूम में सजा दिया। सब सहेलियों ने व्यंजनों और भोजन को बड़े आनन्द से खाया। यही नहीं; मेरे ही सामने सब ने मेरी तुलना अपने अपने पतियों से की और “को-ऑप्रेटिव हस्बैण्ड” कहकर उन सब को दस में से दो-दो नंबर देते हुये मुझे ग्यारह नंबर दिये। ये सब सुनकर मुझे तो ऐसा लगा जैसे आज मेरी लॉटरी निकल गई है। 

खाने के बाद सब सहेलियाँ लिविंग रूम में चली गयीं और आराम से सोफ़े पर विराजमान हो गयीं। इधर सब को दिखाने के लिये मैं भी अपनी स्टडी में जाता हुआ नज़र आया लेकिन मेरा इरादा तो कुछ और ही था। मैं फ़ैमिली रूम और लिविंग रूम के बीच लगे भरी पर्दे के पीछे छुपकर सब की बातें सुनना चाहता था और वहीं कुर्सी डाल कर बैठ गया। थोड़ी देर हँसी-मज़ाक और ताश की गेम चली। फिर बातों का सिलसिला शुरू हुआ। संयोग की बात है कि आज का टॉपिक “पतियों” पर ही था। हँसी-मज़ाक के माहौल में सब ने अपनी-अपनी व्यथा सुनानाी शुरू कर दी थी। चोरी से छुपकर बातों को सुनकर बहुत मज़ा भी आ रहा था और साथ-साथ यह भी अहसास हो रहा था कि मैं ही इस दुनिया में अकेला पति नहीं हूँ जिसकी पत्नी को अपने पति से कोई शिकायत न हो। यह बात अलग है कि कहीं शिकायत ज़्यादा थी और कहीं कम; लेकिन थी ज़रूर।  

शशि वर्मा का कहना था कि उनके पति बहुत भुलक्कड़ हैं। कैसा भी मौसम हो, वो बाहर जाते हुये अपने साथ छाता हमेशा रखते हैं। लेकिन कई बार ऐसा भी हुआ है कि बारिश पड़ने पर सिर से पैर तक भीगे हुये घर में दाख़िल होते हैं और कहने लगते कि ’लगता है शायद छाता तो मैं घर पर ही भूल गया था’। बात केवल छाते की ही नहीं है मेरी बहनों– सब्ज़ी लेने जायेंगे तो झोला होते हुये भी घर आकर शिकायत करेंगे कि ’झोला तो मैं घर ही भूल गया था’। अभी कल ही बाल कटवाने गये तो जेब में वॉलेट होते हुये भी घर आकर कहने लगे कि ’लो अपना वॉलेट तो मैं घर पर ही भूल गया, वो तो अच्छा हुआ कि खन्ना साहब मिल गये थे। उन से पैसे लेकर नाई का भुगतान किया’। उनकी इस आदत से तो मैं बहुत परेशान हूँ।

डेज़ी माथुर को शिकायत थी कि उनके पति का हैण्डराइटिंग अपने आप में अनोखा है। अपनी समज में तो शॉपिंग लिस्ट बहुत क़ायदे से बनाते हैं, लेकिन मटर लिखाओ तो बटर ले आते हैं, राईस की जगह आईस आ जाती है, मँगाया था साल्ट ले आते हैं माल्ट का डिब्बा, मँगाई थी टी (चाय) और ले आये पी (मटर)। कई बार मैं ने कहा कि लिस्ट मैं बना देती हूँ। यह बात भी उन को मंज़ूर नहीं है। पता चला कि दफ़्तर में इनका स्टाफ़ इनकी इस ख़ासियत से बहुत परेशान है और विशेष तौर पर इनकी सैक्रेटरी रूपा चतुर्वेदी। अब आप ही बतायें कि ऐसे में मैं क्या करूँ?

किशोरी रावत को शिकायत थी कि जब से उसके पति डॉ. शंकर सिंह रावत फ़िलास्फ़ी डिपार्टमैण्ट के हैड बने हैं, वो तो एक दम “ऐब्सैंट माईन्डिड प्रोफ़ैसर” बन गये हैं। न जाने कौन से बहिश्त में रहते हैं। हमेशा खोये-खोये से अपने में ही मस्त रहना तो इनकी आदत बन गई है। कभी-कभी तो मालूम नहीं कहाँ से कहाँ पहुँच जाते हैं। हालाँकि मुझे यह सब कहते हुए झिझक भी हो रही है लेकिन, क्या करूँ? आज मौक़ा मिला है तो दिल का बोझ हलका कर रही हूँ। अब कल की ही बात लेलो। शंकर अपनी स्टडी से सोने के लिये काफ़ी देर से आये। शायद दो बजे होंगे। अगले दिन क़रीब आठ बजे जब मैंने उन्हें जगाया तो लगा कि साहब शरीर से तो इस धरती पर हैं लेकिन दिमाग़ कहीं दूसरे ही प्लैनेट पर है। हड़बड़ा कर आँखें खोलीं और  मेरी तरफ़ बड़े ग़ौर से देखते हुये घूर कर बोले ’अरे किशोरी, तुम अपने मायके गई हुई थी। कब आई वहाँ से?’ ऐसे में अब आप ही बताओ कि इनसे क्या उम्मीद की जा सकती है!

हमारी श्रीमतीजी को मुझ से यह शिकायत थी कि मैं हमेशा उनका जन्मदिन और शादी की सालगिरह भूल जाता हूँ। उनका यह भी कहना था कि मैं अपना अधिक समय कम्प्यूटर के साथ बिताता हूँ और उनकी ओर कम ध्यान देता हूँ। हालात इस हद तक हाथों से बाहर निकल चुके हैं कि मेरे प्यारे कम्प्यूटर को कलमुँहा कम्प्यूटर कहकर यह अपनी “सौत” समझने लगी हैं।

इस बात का मुझे एहसास है कि चोरी से किसी की बातें सुनना बहुत ग़लत है। लेकिन अशवत्थामा की तरह से मेरे माथे पर जो एक कलँक का ठप्पा लगा हुआ था उसे भी तो दूर करना था। ज़ाहिर है कि मैं शशि वर्मा, डेज़ी माथुर और किशोरी रावत का दुख तो दूर नहीं कर सकता था पर अपने घर में तो सुख शान्ति का माहौल बनाने की कोशिश तो कर सकता हूं। श्रीमतीजी ने जो सौत वाली बात कही थी वो मेरे सीने में कटार की तरह से चुभ गई। पटरानी की शिकायतों को ध्यान में रखते हुये मैं ने गांठ बाँध ली और उन्हें आश्वासन दिया कि हमेशा उनका जन्मदिन और शादी की तारीख याद रखूंगा। जहां तक ध्यान न देने वाली बात है, उन से कह दिया है कि जैसे ही आप सीटी बजायेंगी बन्दा दौड़ता हुआ हाज़िर हो जायेगा। उन्हें ये आश्वासन भी दिला दिया कि सौत से घबराने की कोई ज़रूरत नहीं। उस से यह ख़ादिम सिर्फ़ रात को ही अपनी स्टडी में अकेले मिलेगा।

एक मियान में दो तलवारों को रखने की चुनौती अब मेरे जीवन का लक्ष्य बन गई थी।
 

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