दिल ढूँढ़ता है
काव्य साहित्य | कविता सन्तोष कुमार प्रसाद4 May 2016
सब कुछ तो है
पर क्या है जो मुझे
बैचेन करते हैं, परेशान करते हैं
कोयल की मीठी बोली,
पक्षियों की चहचाहट
मुझे आकर्षित तो करते हैं
पर क्षण भर के लिए -
फिर मन उदास हो जाता है
बच्चों की किलकारी,
पत्नी का बच्चों पर चिल्लाना
पर कुछ तो है जो नहीं है
सब तो है
जंगल के बीचों-बीच…
छोटी सी कालोनी
शांत वातावरण,
बहती हवा
जंगलों के झुरमुट से आती आवाज़ें
घर में टीवी की भड़काउ साउंड
पर शायद मैं ढूँढता हूँ,
अपने बचपन को
आँख-मिचौली खेलता हुआ बचपन
घर के सामने का स्कूल,
स्कूल में लड़ता-पड़ता बचपन
माँ का चिल्लाना,
माँ का प्यार करना
माँ की आँचल में छिपता बचपन
पर आज सिर्फ यादें….
अर्थ की कितनी ताक़त,
आज घर से दूर,
घर के लिए कर रहे है काम
पर याद तो आती है
मुझको मेरा घर मेरा गाँव
ढूँढता हूँ वही फ़ुरसत के दिन
जेब में पैसे न थे
पर जोश भरपूर था
भागा दौड़ी…
क्रिकेट का मैच और
पसीने से भीगा शरीर
तालियाँ बजाते लड़के लड़कियाँ और
धूप में हमारे लाल लाल गाल...
आज सब कुछ तो है पर -
कुछ तो है जो नहीं है....!
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