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दिनकर की कविताओं में उनका जीवन संघर्ष

हिंदी में छायावाद के पतन के बाद जिस स्वच्छंदतावाद की नींव पड़ी दिनकर उसके सबसे बड़े कवि थे। दिनकर का गद्य और पद्य दोनों में समान अधिकार था। उनका अपना शब्द भंडार और कविता की अपनी शैली थी दिनकर अपनी शैली से पहचाने जाते हैं।

दिनकर का सारा जीवन संघर्ष में बीता। वह नौकरी, पैसे, और जीवन यापन के लिए जद्दोजेहद करते रहे। उन पर परिवार की पूरी ज़िम्मेवारी थी। उनके जीवन के हालात ने कम उम्र में ही उनको अनुभवी बना दिया था। उन्हें इस बात का मलाल था कि जिस सरकारी सत्ता के ख़िलाफ़ वह लिख रहे हैं, उसी ब्रिटिश शासक की नौकरी भी कर रहे हैं पर दिनकर मजबूर थे। सिर्फ़ कविता लिखकर उनकी ज़िंदगी नहीं चल सकती थी। नौकरी उनकी मजबूरी थी पर वह नौकरी अपनी रूह को मार कर कर रहे थे।

दिनकर के बचपन पर अगर नज़र डालें तो बारो के सरकारी मिडिल स्कूल से उनकी शिक्षा शुरू हुई। उस वक़्त उनके पाँव में चप्पल नहीं होती थी। मोकामा घाट के स्कूल में जब आठवीं में उनका नामांकन हुआ तो सिमरिया से मोकामा तक पैदल चलना उनकी नियति थी। 1928 में उन्होंने मैट्रिक किया यही वह समय था जब साइमन कमीशन के ख़िलाफ़ पूरे देश में संघर्ष चल रहा था। किशोर दिनकर भी इसमें शामिल हो गये। इसी समय उन्होंने आँग्रेज़ों के ख़िलाफ़ कुछ कविताएँ लिखीं, पर सरकार के कोप से बचने के लिए उन्होंने अपना नाम बदल लिया। दिनकर के घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। वह नौकरी की तलाश में थे। 1933 में एक सरकारी विद्यालय में उन्हें नौकरी मिली। 1934 में राजस्व विभाग में नौकरी मिली। इसी समय उन्होंने एक कवि सम्मेलन में शिरकत की। सरकार ने इस पर उन्हें नोटिश भेजा और पूछा के मंच पर सरकार के ख़िलाफ़ कविताएँ क्यों पढ़ी गईं? 1935 में दिनकर का पहला कविता संग्रह रेणुका का प्रकाशन हुआ उनकी प्रसिद्ध कविता 'मेरे नगपति मेरे विशाल' इसी में है उनकी पहली कीर्ति रेणुका महात्मा गाँधी तक पहुँच गई। जिसका नतीजा यह हुआ कि सरकार ने दिनकर के पीछे जासूस लगा दिया। विजेंद्र नारायण सिंह ने लिखा है कि रेणुका के प्रकाशन से सरकार चौंक गई थी। सरकार ने रेणुका का अंग्रेज़ी अनुवाद कराया, और उसके बाद दिनकर से पूछा आपने सरकार विरोधी कविताएँ क्यों लिखीं?1जवाब में दिनकर ने लिखा यह सरकार विरोधी कविताएँ नहीं है बल्कि देशभक्ति की कविताएँ हैं। मन्मथ नाथ गुप्त ने लिखा है कि दिनकर को चेतावनी दी गई कि वह खतरनाक पत्रों और व्यक्तियों के संपर्क से बचें।2

वास्तव में देखा जाए तो दिनकर अपने पहले कविता संकलन रेणुका से ही देश की दुर्दशा का ख़ाका खींचते हैं इसमें ब्रिटिश शासकों के प्रति भी उनका ग़ुस्सा झलकता है कवि की कुछ पंक्तियाँ देखने योग्य हैं –

उस पुण्य भूमि पर आज भी
रे आन   पड़ा संकट कराल
व्याकुल तेरे सुत  तड़प रहे
डस रहे चतुर्दिक विविध व्याल
           मेरे नगपति मेरे विशाल

X     X     X

शिशु मचलेंगे दूध देख जननी उनकी बहलाएँगी 
मैं फाड़ूँगी हृदय लाज से आँख नहीं रो पाएँगी 

X     X     X

सृजन बीच संसार छिपा कैसे बतलाऊँ परदेशी
सरल कंठ से विषम राग में कैस गाऊँ परदेसी

दिनकर का मन गुलाम हिंदुस्तान को आज़ाद करने के लिए छटपटा रहा था। वह ब्रिटिश सरकार की नौकरी में थे जैसे प्रेमचंद ने अपना नाम धनपत राय छोड़ दिया था वैसे ही दिनकर भी अमिताभ नाम से सरकार विरोधी कविताएँ लिखने लगे। 1935 से 1940 तक सिर्फ़ पाँच वर्षों में दिनकर के चार काव्य संकलन प्रकाशित हुए। यह कविताएँ कहीं ना कहीं सत्ता के ख़िलाफ़ थीं। अँग्रेज़ सरकार ने चार साल में उनके बाइस तबादले किए। यह ऐसी स्थितियाँ थी के दिनकर नौकरी छोड़ देना चाहते थे पर उनके एक मित्र की यह बात उन्हें भा गई कि त्यागपत्र देने की अपेक्षा बरतरफ़ हो जाना ज़्यादा श्रेष्ठ है। फिर एक ऐसा भी वक़्त आया कि दिनकर को लगने लगा कि अँग्रेज़ की नौकरी करते हुए उनकी कविता की आग ठंडी पड़ रही है। तब उन्होंने लिखा–

आगे पहाड़ को पा घटा रुकी हुई है
बलपुंज केसरी की ग्रीवा झुकी हुई है3

दिनकर उस वक़्त बहुत कठिन मानसिक स्थिति से गुज़र रहे थे, लेकिन देश के वीरों का उत्साहवर्द्धन वैसी परिस्थितियों में भी करते रहे–

वह प्रदीप जो दिख रहा है झिलमिल दूर नहीं है
थक कर बैठ गए क्यों भाई मंजिल दूर नहीं है

अगर ग़रीबी दिनकर की मजबूरी नहीं होती तो उनकी कविता और भी अधिक सशक्त रूप में हमारे सामने आती। डॉ. नगेंद्र ने हिंदी साहित्य का इतिहास में लिखा है कि दिनकर में आरंभ से ही अपने को अपने परिवेश से जोड़ने की तड़प दिखाई देती है।4 दिनकर की एक पंक्ति भी है जिसमें उनकी बेकली, बेचैनी, और विवशता साफ़-साफ़ दिखलाई पड़ती है–

विनय मान मुझको जाने दो
शेष गीत छिपकर गाने  दो 

पर अधिक दिनों तक दिनकर छुपकर नहीं गा सके और मजबूरी तथा लाचारी के बावजूद अँग्रेज़ों की चाकरी छोड़ दी। माखनलाल चतुर्वेदी ने दिनकर की आलोचना करते हुए लिखा था 'हमारे राष्ट्रीय कवि चांदी के टुकड़ों पर बिकते हैं'। असल में यहाँ उन परिस्थितियों को भी देखना ज़रूरी है जिन स्थितियों में पलकर दिनकर नौकरी कर रहे थे उन्होंने 'तकदीर का बंटवारा' शीर्षक एक कविता लिखी थी जिसमें इन्हीं स्थितियों का ज़िंदा जावेद वर्णन है–

वह बदनसीब इस ज्वाला में
आदर्श   तुम्हारा जलता है
समझाएँ    कैसे तुम्हें कि 
भारतवर्ष तुम्हारा जलता है

दिनकर का कुरुक्षेत्र 1946 में छप कर आया। कुरुक्षेत्र की कई पंक्तियों में महाभारत के पात्र दुर्योधन नहीं बोलते, बल्कि दिनकर अपनी व्यथा कथा कहते हैं–

धर्म स्नेह दोनों प्यारे थे
बड़ा कठिन निर्णय था
अतः एक को देह, दूसरे
को दे दिया हृदय था5

देश को आज़ादी मिली। भारत स्वतंत्र और फिर गणतंत्र घोषित हुआ, पर वह सिंहासन जनता को नहीं मिला जिसके लिए दिनकर ने लिखा था – 'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है' दिनकर नेहरू के मित्र थे पर आज़ादी के साथ जो उन्होंने सपना देखा था वह पूरा नहीं हुआ। उन्हें आज़ादी के बाद की दिल्ली तनिक नहीं भाई और उन्होंने लिखा–

दिल्ली में तो है खूब ज्योति की चहल-पहल
पर भटक  रहा   सारा  देश   अँधेरे में

दिनकर एक ऐसा देश चाहते थे जहाँ मजदूरों को उसका हक़ और मजबूरों को पूरी सुरक्षा मिले। कोई व्यक्ति भूखा या नंगा न रहे। उनकी फ़िक्र ये थी– जेठ हो कि पूस हमारे कृषकों को आराम नहीं है और वह सत्ताधीशों ललकारते हुए यह भी कह देते हैं–

चिंता हो क्यों तुम्हें गांव के जलने से
दिल्ली में रोटियाँ कम नहीं होती  हैं 

फिर वह इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि–

यह पाप उन्हीं का हमको मार गया है
भारत अपने घर   में ही हार गया है

कवि रामधारी सिंह दिनकर देखते हैं कि आज़ादी के नाम पर सिर्फ़ सत्ता का परिवर्तन हुआ और फिर सत्ता और व्यवस्था के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ बुलंद करते हैं–

मखमल के पर्दों के   बाहर फूलों के उस पार
ज्यों का त्यों है खरा आज भी मरघट सा संसार

वास्तव में दिनकर उत्साह ऊर्जा उमंग और उत्सव के कवि हैं उनमें प्रतिरोध की जो भावना है वह कालांतर में सिर्फ़ मुक्तिबोध में दिखलाई पड़ती है। उन पर शोध करने वाले डॉक्टर दिवाकर का मानना है कि उनके जीवन और कविता का अंत नहीं है।6 

कहना न होगा कि दिनकर हिंदी ज़ुबान के वह कवि हैं, जिनपर हिन्दी कविता ख़ुद नाज़ करती है। समूची हिंदी पट्टी में शायद ही दो चार व्यक्ति भी ऐसे मिलें जिन्हें दिनकर की दो-चार पंक्तियाँ याद न हों। 

  1. दिनकर, विजेंद्र नारायण सिंह, पृष्ठ -13
  2. रामधारी सिंह दिनकर, मन्मथ नाथ गुप्त, पृष्ठ- 16
  3. आग की भीख, दिनकर, पृष्ठ- 09
  4. हिन्दी साहित्य का इतिहास, नगेन्द्र, पृष्ठ -620
  5. कुरुक्षेत्र, दिनकर, पृष्ठ -46
  6. दिनकरनामा, डॉ. दिवाकर, पृष्ठ 12

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