दो बात प्रेम की
काव्य साहित्य | कविता विमला भंडारी9 Dec 2014
तुम मुझसे सीख सकते हो तो
सीख लो
दो बात प्रेम की
तुम मुझसे ले सकते हो तो
ले लो
इबादतें अपनेपन की
बरसों से जो भी सहेजा है
सौरभ उसकी मिलती रहे तुम्हें
गाहे-ब-गाहे
पुकारते रहे हो तुम मुझे
जागते भी/नींद में बुदबुदाते भी
आदत सी बन गई हूँ मैं तुम्हारी
सुनो!
मैं डूब रही हूँ
नहीं बचूँगी अब शेष
ज़रूरतें होंगी
जब मेरी
मेरे विदा होने के साथ
छाया ये लुट जायेगी
ज़रूरत हूँ मैं तुम्हारी
सुनो, तुम मुझसे सीख सकते हो तो
सीख लो
दो बात प्रेम की
बचा लो मुझे
वर्ना तुम भी मिट जाओगे
मुझे मिटाते मिटाते
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