अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

दो क़दम

हम जब भी मिले..
बड़ी-बड़ी इमारतों के बड़े शहर में मिले...
जहाँ दो क़दम के फ़ासले भी
–मीलों के सफ़र होते हैं!
हम जब भी मिले...
ज़िंदगी की भागम-भाग में मिले
माथे पर खिंची लकीरों की शिकन तक जल गई..
मैं तुम्हें देखती रह गई..
तुम मुझे देखते रह गए..
और यह ज़िंदगी सन्नाटे में गुज़र गई!
 
मैं चाहती तो थी तुम्हें गाँव की उस 
पगडंडी तक ले जाना..
जहाँ से तुम्हारे पास आने के लिए 
हर रास्ता सही होता है
मेरे घर के सामने कनेर के पीले-पीले फूल 
ढकिया भर-भर के गिरते थे!
उन्हें चुन-चुनकर सिर्फ़ तुम्हारे लिए ही 
सजाना चाहती थी!
तुम्हें याद तो होगा?
मैंने तुम्हें पहाड़ी वादियों में देखा था..
ऐसे वक़्त में
जब आगजनी पहाड़ों पे 
हर शाम हुआ करती थी..
और उसी बीच
जब एक दिन पहली बार तुम्हें देखा...
तो तपती हुई दोपहरी और
झुलसती झाड़ियाँ ....
सब शीतल हो गयीं
अगर मैं कभी तुम्हें ले जा सकी तो
ले जाऊँगी..
अपने कॉलेज के पीछे दूर तक फैले आम के बग़ीचे में
और वहाँ के सबसे पवित्र कहे जाने वाले तालाब पर
फिर  उसके किनारे के मंदिर की
सीढ़ियों पर
सीढ़ियों पर बड़े इत्मीनान से बैठेंगे हम दोनों
जहाँ गुलमोहर के फूल झर झर कर
गिरते हैं।
अबकी देखना हम ऐसे मिलेंगे जैसे अब तक नहीं मिले
और ये याद रखना!
हम मिलेंगे
मिलेंगे  ज़रूर...

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं