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डॉक्टर यादव, जैसा कि मैंने उन्हें जाना

’इन्दीवर’ विमोचन के अवसर पर रचना पाठ करते हुए डॉ. शिवनन्दन सिंह यादव

 

२२ अक्टूबर २०१९ को हिंदी राइटर्स गिल्ड द्वारा डॉक्टर शिव नंदन सिंह यादव जी की तीसरी काव्य पुस्तक 'इंदीवर' का विमोचन किया गया। इसके कुछ ही समय ज्ञात हुआ कि हम सबके परम आदरणीय कवि मित्र डॉक्टर यादव ८ जनवरी को हमारे बीच नहीं रहे।

डॉक्टर साहब को हिंदी से विशेष प्रेम था तथा बचपन से ही काव्य रचना करते थे। वे कनाडा के हिन्दी साहित्य जगत के संस्थापना समय से अब तक सदैव हिंदी के प्रचार तथा प्रसार में सेवा संलग्न रहे। आठवें दशक में टोरंटो में एक मासिक गोष्ठी का आयोजन किया जाता था। डॉक्टर साहब न केवल उसके संचालक थे वरन वे हिंदी के नवोदित लेखकों को लिखने के लिए प्रेरित करते व् उनका मार्ग दर्शन भी करते। इनके तीन काव्य ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं ,'चन्दन वन', 'प्रियंवदा' तथा 'इंदीवर'। भाव, विषय, छंद और अभिव्यक्ति सभी दृष्टियों से डॉक्टर यादव की रचनाएँ उत्कृष्ट कोटि की हैं। हिंदी राइटर्स गिल्ड की ओर से साहित्यसृजन के लिएउन्हें 'सरस्वती सम्मान' प्रदान किया गया।

यादव जी का जन्म भारतवर्ष के उत्तर प्रदेश के एटा जिले में हुआ था। आगरा से एम.बी.बी.एस. और एम. डी. करने के पश्चात उन्होंने १९६७ से कनाडा में निवास किया।

इसके पश्चात् एफ.आर.सी.पी. (सी)कनाडा से किया। दीर्घकाल से टोरंटो में मेडिकल विशेषज्ञ के रूप में कार्यरत रहे। 

डॉक्टर साहब के व्यक्तित्व का एक दूसरा पक्ष भी है जिसके विषय में लोग कम जानते हैं। मैं उन्हीं बातों को सबसे साँझा करना चाहती हूँ। कई वर्ष पूर्व लिखी मेरी एक कविता की पंक्तियाँ हैं,

"अपनों से जब दूर हुए, ग़ैरों से मुझको प्यार मिला,
 ग़ैर बने अब अपने से, अपनेपन का संसार मिला।"

विदेश में रहते हुए भी जिन कुछ लोगों से मुझे ‘अपनेपन का संसार’ मिला था, उनमें से डॉक्टर साहब भी एक महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं। डॉक्टर साहब से हमारा प्रथम परिचय १९८५ में एक कवि सम्मलेन में हुआ था। परिचय सूत्र से ज्ञात हुआ कि उन दिनों टोरंटो में उनके द्वारा संचालित एक मासिक साहित्यिक गोष्ठी होती थी। भाग्यवश मैंने उसमें नियमित रूप से भाग लेना आरम्भ किया। मुझे उन्होंने काव्य रचना की प्रेरणा दी। वे एक अत्यंत विनम्र, विनयी, मितभाषी तथा मिष्टभाषी थे। अपने परिचय के समय केवल अपना नाम ही बताते। मुझे तो बहुत दिनों बाद पता चला कि वे एक डॉक्टर भी हैं। इतने विनयी थे हमारे डॉक्टर साहब।

आजतक विगत ३५ वर्षों में कभी भी मैंने उन्हें उच्चस्वर में कुछ भी कहते नहीं सुना। किसी की बुराई करना तो दूर, दूसरों की प्रशंसा करते नहीं थकते थे। यदि उन्हें कभी किसी की कोई रचना अच्छी लगती, तो यदि वे उसे दुबारा सुनना चाहते, तभी हम समझते कि उन्हें वह रचना सचमुच ही पसंद आयी है। उनकी विनय भावना के कारण ही उन्हें कुछ बनाकर खिलाने में बड़ा ही आनंद आता था। इतनी प्रशंसा करते कि बनानेवाला प्रसन्न हो जाए। उनकी पत्नी श्रीमती विमला यादव जी ने बताया कि जीवन के अंतिम कुछ दिनों में जब अस्पताल से उनकी सेवा के लिए लोग आते थे, बार-बार हाथ जोड़कर उनके आभार प्रदर्शन को देखकर आश्चर्य प्रगट करते कि इस हालत में भी इनमें कितना विनयभाव है।

डॉक्टर साहब का अपने देश से, अपनी मातृभाषा से बहुत प्यार था। गीत रचना तो करते ही थे। हिंदी साहित्य भी पढ़ते थे। उनकी भाषा अत्यंत शुद्ध और संस्कृत गर्भित थी। हिंदी पढ़ते या लिखते समय किसी भी शब्द के अर्थ में शंका हो तो दीप्ति जी या मुझे फोन कर पूछते। आवश्यकता पड़ने पर शब्दकोष का सहारा लेते। इस विषय में उन्हें कोई आलस नहीं था।

उनका मेरे और मेरे पति अरुण जी के प्रति अगाध स्नेह रहा, जो हमारे जीवन की एक अमूल्य निधि है। वे सदैव सप्रेम हमें अपने यहाँ अनौपचारिक रूप से आने का आग्रह करते। जब भी हम वहाँ जाते, मैं सदैव हिंदी की कुछ नयी व् सुन्दर रचनाएँ उन्हें पढ़कर सुनाती जो उन्हें बहुत अच्छा लगता।

एक बार उन्होंने अपने सम्बन्ध में एक रोचक बात बतायी। बचपन में वे अत्यधिक अध्ययनशील विद्यार्थी थे पर उन्हें सिनेमा देखने का बहुत शौक़ था। युवावस्था में मीनाकुमारी उनकी प्रिय नायिका थी। एक बार वे उससे मिलने बंबई तक चले गए थे। पिछले कुछ वर्षों में वे माधुरी दीक्षित के फ़ैन हो गए थे। 

एकबार उनके मित्र श्री अशोक कुमार उनके लिए माधुरी दीक्षित का एक बड़ा सा पोस्टर भारत से लाये थे। कभी कभी उनके मित्रजन इसी प्रकार उनकी खिंचाई भी करते थे पर वे कभी भी बुरा नहीं मानते थे, वरन आनंद ही लेते थे। 

डॉक्टर साहब हमारे परिवार के डॉक्टर भी थे। रोग की पहचान में वे दक्ष थे। उन पर हम लोगों का इतना विश्वास था कि उनके पास जाते ही लगता कि हमारी आधी बीमारी दूर हो गयी। हमारा सौभाग्य था कि कई बार उन्होंने एमर्जेन्सी में हमारे घर आकर भी इलाज किया। मित्र होने के नाते दवा के साथ-साथ आश्वासन भी देते रहते। 

एक और भी रोचक स्मृति है। डॉक्टर यादव की प्रैक्टिस उनके घर के बेसमेंट में ही थी। वे हमें यथासम्भव देर का अपॉइंटमेंट देते थे ताकि उनकी प्रैक्टिस समाप्त होने के बाद हम दोनों उनके घर पर कुछ देर और समय बिताएँ। एक बार जब हम ऊपर उनके घर चाय के लिए गए तो उन्होंने अरुण जी से मीठा खाने का आग्रह किया। मैंने आपत्ति की कि कुछ देर पहले तो आप इनको मिठाई खाने को मना कर रहे थे और अब? तो बोले, "नीचे तो मैं उनका डॉक्टर था पर यहाँ मैं उनका मित्र हूँ।"

उसी एक अवसर पर एक दिन उन्होंने मुझसे कहा, अपना काम समाप्त कर मुझे मित्रों से मिलना-जुलना बहुत अच्छा लगता है। इसका मुख्य कारण यह है कि डॉक्टरी के काम में हमें सारा- सारा दिन लोगों की समस्याओं से उलझना पड़ता है। उसके पश्चात् मित्रों से मिलकर हँसना बोलना बहुत अच्छा लगता है। मुझे लगा कि उनका कहना कितना सच है।


बायें से - डॉ. शिवनन्दन सिंह यादव, श्रीमती विमला यादव, श्री अरुण बर्मन, श्रीमती आशा बर्मन, श्रीमती दीप्ति अचला कुमार, एवं श्री अशोक कुमार

 

अब मैं डॉक्टर साहब के काव्य के सम्बन्ध में चर्चा करना चाहूँगी। इनके तीन काव्य ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं, 'चन्दन वन', 'प्रियंवदा' तथा 'इंदीवर'। मूलतः वे एक गीतकार थे और गाकर ही अपनी रचनाएँ प्रस्तुत करते थे। डॉक्टर साहब के विषय में यह उल्लेखनीय है कि उन्हें अपनी कवितायें याद रहती थीं। एक बार सज्जन ने एक कवि सम्मलेन में उनसे एक ऐसी कविता सुनाने का अनुरोध किया जो उन्होंने ४० वर्षों पूर्व उनसे सुनी थी। डॉक्टर साहब ने उस अनुरोध की रक्षा की। सभी उनकी अद्भुत स्मरणशक्ति को देखकर आश्चर्यचकित रह गए।

 आठवें दशक में जब भी डॉक्टर साहब अपनी रचनाएँ मासिक गोष्ठी में सुनाते तो लोग उनसे शिकायत के स्वर में कहते, "आपकी कवितायें सर के ऊपर से निकल जाती हैं, समझ में आने वाली कवितायें आप क्यों नहीं लिखते?"

उनका उत्तर होता, "श्रोताओं को मेरे स्तर तक आना होगा।" अब मैं उनकी तीसरी पुस्तक 'इंदीवर' पढ़ रही हूँ तो लगता है, यद्यपि इस पुस्तक की रचनाओं में भी भाव, विषय, छंद और अभिव्यक्ति, सभी उच्चकोटि के हैं पर कवितायें सहज और सुगम हैं उदहारणस्वरूप:

मैंने घर के किसी कक्ष में 
कोई मंदिर नहीं बनाया 
मेरी आस्थाएँ सजीव हैं,
यद्यपि व्यक्त नहीं कर पाया 
मैंने मन के सूक्ष्म कोण में
छिपा विश्व से, तुम्हें बसाया।

इन कविताओं को पढ़ने से एक बात स्पष्ट रूप से और भी उभर कर आती है कि समय के साथ डॉक्टर यादव जी की भाषा-शैली में ही परिवर्तन नहीं आया था वरन उनकी चिंतन धारा भी परिवर्तित हो गयी। वे आरम्भ से ही अत्यंत गंभीर और चिंतनशील व्यक्ति रहे हैं। उनके एक मित्र ने एक बार कहा था कि जब वे किसी रोगी से गंभीरता से बात करते हैं रोगी को लगता है कि उसका अंत निकट है। वही डॉक्टर साहब अब लिखते हैं,

छोटी छोटी बातों पर भी बहुत सोचना ठीक नहीं है!
प्रति पग फूँक फूँक कर रखना कोई अच्छी नीति नहीं है!

इसमें संदेह नहीं कि भावों का यह परिवर्तन उनके पाठकों के लिए सुखद होगा।

आदरणीय डॉ. यादव की निश्छल छवि हम सभी को अपनी हिन्दी भाषा की उन्नति के लिए सदैव प्रेरणा एवं समर्पण प्रदान करेगी। वे हमेशा हमारे मन में रहेंगे और उनका लेखन हमेशा आदर के साथ याद किया जाएगा।
 ईश्वर उनकी आत्मा को परम शान्ति दें!

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