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दोहे - सुशील यादव

देखे अपनों के यहाँ, बदले-बदले रंग 
बेबस मन को तौलते, दुविधा के पासंग


लोगों की पहचान में, हो जाती है देर 
ख़ुशकिस्मत अंधे यहाँ, जिनके हाथ बटेर


मैं हूँ अपने आप से, इधर बहुत नाराज़ 
सूरज सुख का ढल गया, नींद खुली लो आज


सुधियों के आँगन कभी, रहती थी मुस्कान 
हुआ अभी मन लापता, खोकर ख़ुद पहचान


शायद मेरे मर्म तक, पहुँच न पाते आप
मेरे क़द का इस लिए, लेते रहते नाप


इस बहाव में क्या करें, जल के भीतर मीन
जाना था जापान तो, पहुँच रही है चीन


संभव सा दिखता नहीं, रुके कहीं बहाव
लौट चले लेकर हमीं, अपनी टूटी नाव


जब भी छूती ये नदी, ख़तरा क्रूर निशान
बह जाता है साथ में, हाथों का सामान


सावन का अंधा हुआ, हरे-हरे की सोच
हरी-हरी के जाप में, भूलो कण्टक मोच


सावन का अंधा हुआ, सोच हरा चहुँ ओर
बिगड़ी शायद यूँ बने, ज़ोर लगा कुछ और


केवल इतना ध्यान रख, होय नहीं अभिमान
तीर वहीं हो लक्ष्य में, मछली आँख निशान


हरि अर्जुन को दे गए, गीता में सन्देश
रण में जो है सामने, न बन्धु-सखा नरेश


दुविधा के हर मोड़ पर, देता था जो ज्ञान
कृष्ण बना था सारथी, तज कर तेज महान


लीला जिसकी देख के, चकित विश्व सब ओर
ऊँगली में पर्वत उठा, रोका बारिश ज़ोर


राजनीति में जो निपुण, किया अधर्म विरोध
हम ऐसे प्रभु कृष्ण पर, करें सार्थक शोध


बिगड़ी बात बनी नहीं, सावन बीता जाय
मेरे संकट काल को, कौन दिशा बतलाय


जरासंध अपराध हो, या रिश्तों में कंस
गर्व मीन को ले उड़े, काल-समय का हंस


दिखता मुझको सामने, हर कोई नाराज़
जिसका बिगड़ा कल रहा, कैसे सुधरे आज


राम नाम की नाव थी, खेने बाला ख़ास
रामायण पहुँचा गया, घर-घर तुलसीदास


एक मनुज है अवतरित, जिसका नाम सुशील
पाँव हरेक निकालता, घृणा-द्वेष के कील
 

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