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डॉ. आर बी भण्डारकर के साहित्य में ग्राम-जीवन

साहित्य का समाज से सीधा सम्बन्ध होता है। इसीलिए साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है। साहित्यकार अपने आसपास घटित घटनाओं का, सामाजिक गतिविधियों का सूक्ष्म अवलोकन करता है, इन पर उसकी गहन दृष्टि रहती है, उसका एतदसम्बन्धी चिंतन परिस्थितियों को लोकहित में मोड़ने, ढालने के लिए सचेष्ट रहता है। इसीलिए साहित्यकार का चिंतन सदैव सकारात्मक होता है। अस्तु आज के साहित्य को कल का ऐतिहासिक दस्तावेज़ कहा जाता है। 

जब हम साहित्य का या किसी विशेष साहित्यकार के साहित्य का मूल्यांकन करते हैं तब केवल सौंदर्य और रसानुभूति को ही नहीं देखते बल्कि उसके सामाजिक सरोकारों को प्राथमिकता से देखते हैं। 

साठोत्तरी हिंदी साहित्यकारों में एक नाम आता है– डॉ. आर बी भण्डारकर का। डॉ. भण्डारकर ग्रामीण परिवेश से आते हैं, इसलिए गाँव और ग्रामीण संस्कृति उनकी भावभूमि का आधार स्तंभ है। 

डॉ. भण्डारकर जन्मतः संवेदनशील हैं। प्रारम्भ में शैक्षिक सेवाओं से जुड़ने के कारण उनका भाव-जगत और भी तरल हुआ। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़ने के पश्चात उनका व्यक्तित्व व कृतित्व एक परिपक्व साहित्यकार के रूप में उभरा। 

डॉ. भण्डारकर का लेखन बहु-विधात्मक है। उनकी कविताएँ, गीत, कहानियाँ, लघुकथाएँ, संस्मरण, यात्रा-वृत्तांत, आलेख, डायरियाँ आदि अनेक पत्र पत्रिकाओं में छपती रही हैं, प्रायः निरन्तर छपती रहती हैं। इनकी अनेक रचनाएँ दैनिक "भास्कर" भोपाल, ग्वालियर, जयपुर, "नई दुनिया" इंदौर ग्वालियर, "स्वदेश" ग्वालियर आदि लोकप्रिय समाचार पत्रों में अक़्सर छपती रही हैं, छपती रहती हैं। इनकी कई कविताएँ "कादम्बिनी" नई दिल्ली, "वेला" मुजफ्फरपुर, "कविता इंडिया" मुजफ्फरपुर में छपी हैं जबकि कई रचनाएँ "शिक्षा दर्शन" ग्वालियर, "अपना सारथी" ग्वालियर "मत" ग्वालियर, "सेतु हिंदी", "साहित्य सुधा", "साहित्य कुंज", "रचनाकार", "हस्ताक्षर", "विभोम स्वर", "लघुकथा कलश", "भाषा भारती" सागर, "पूर्णचन्द्र परमार्थ स्मारिका", "स्मरलोक" भोपाल, "अविराम साहित्यिकी", "मातृभारती डॉ.ट कॉम", "अक्षरा" भोपाल, "साक्षात्कार" भोपाल, "पुरवाई" बाल किलकारी पटना, बालमन आदि अनेक प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छपती रही हैं, छपती रहती हैं। इसके अलावा इनकी अब तक सात पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं जबकि तीन का प्रकाशन शेष है। 

डॉ. आर बी भण्डारकर के काव्य में ग्राम -जीवन:

यहाँ एक लोकोक्ति का उल्लेख करना प्रासांगिक है– "जाके पाँव न फटी बिंवाई, सो का जाने पीर पराई। " आशय यह कि जो स्वयं भुक्तभोगी नहीं है वह वेदना को सही अर्थ में नहीं समझ सकता है। डॉ. भण्डारकर गाँव में जन्मे, पले, बढ़े; इसलिए ग्राम-जीवन उनमें भरपूर रचा-बसा है। इसलिए उनके साहित्य में ग्राम-जीवन यथार्थ रूप में उपस्थित हुआ है। 

डॉ. भण्डारकर की अब तक तीन काव्य कृतियाँ प्रकाशित हुई है –'दिशाएँ मौन', 'वनजा' तथा 'अक्षर अक्षर ब्रह्म। ' इनकी कुछ कविताएँ 'संचयिता' और कुछ ' संचयिता-2' में भी संगृहीत हैं। 

डॉ. भण्डारकर का काव्य साहित्य सामाजिक चेतना से ओत-प्रोत है। उनके साहित्य में जगह जगह ग्राम जीवन के जीवंत चित्र उपस्थित हुए हैं। 

"दिशाएँ मौन" कविता संग्रह पर समीक्षात्मक टिप्पणी करते हुए सुप्रसिद्ध कवि, शिक्षाविद पद्मभूषण डॉ. शिव मंगल सिंह सुमन जी लिखते हैं–

"श्री रामबाबू भण्डारकर के प्रथम कविता संग्रह "दिशाएँ मौन" के पारायण का सुयोग प्राप्त कर प्रसन्नता हुई। प्रारम्भ में मंगलाचरण के पारंपरिक निर्वाह के रूप में वन्दन और विनय का स्वरूप समीचीन प्रतीत हुआ। प्रकृति के परिवेश में जीवनयापन की अनुभूतियों की सहजता और जीवन की विषमताओं से जूझती मनःस्थितियों का चित्रण विशेष हृदयग्राही बन पड़ा है। कवि की भाषा का सौष्ठव अपनी संकेतात्मक अभिव्यक्तियों में संवेदना की मार्मिकता उद्‌घाटित करने में समर्थ हो सका है। "वट वृक्ष "और "आंगन" में इसकी बिंबात्मकता प्रतिबिंबित हो उठी है। इसी प्रकार "सुख-1" और "2" के विभिन्न स्वरूपों में सौंदर्य की समन्वित दृष्टि बरबस "निराला" की "तोड़ती पत्थर" की याद दिला देती है। कवि जीवन की दैनन्दिन घटनाओं के अन्तस् में अंतर्निहित करुणा उभारने में समर्थ है। "विकास क्रम" में व्यंजना का सौंदर्य इसका साक्षी है। बँटवारे के दर्द की उद्‌बोधकता में भी व्यंग्य की हल्की सी रेखा मिली है। कवि के "विकास क्रम" को बीज रूप में अभिव्यक्त करने वाला यह प्रयास अभिनन्दनीय है। "

"दिशाएँ मौन" की भूमिका "सच से साक्षत्कार" में प्रो शेखर शंकर लिखते हैं– "वन में खिले फूलों पर किसी माली की कटाई-छटाई का कलात्मक अनुशासन नहीं होता जो भी होता है एक नैसर्गिक बिंदासपन में ढला, किसी भी तरतीब को बार बार झुठलाता हुआ। वन्य-प्रकृति जिस प्रकार किसी की परवाह नहीं करती उसी प्रकार ये कविताएँ भी किसी की मुखापेक्षी नहीं हैं। मगर इसका अर्थ यह नहीं कि कविताओं में कहीं काव्य तत्त्वों का अभाव या अतिक्रमण है। ......कवि के पास जो अनुभूतियाँ हैं वे सीधे अंतरतम से निःसृत होकर शब्दों में ढली हैं। इस कारण हर जगह स्वाभाविकता है, कहीं भी कोई नाटकीयता नहीं। ..."पचहत्तर प्रतिशत" जिसमें दरिद्र वर्ग के प्रति कवि की सहानुभूति प्रदर्शित हुई है–

"अध नंगे पचहत्तर प्रतिशत
बचे-खुचे, ऐसे कपड़ों में 
जीर्ण-शीर्ण, जो हैं क्षत विक्षत। 
मैंने देखा
पूस माघ की सर्दी में भी
करें गुजारा
एक लँगोटी और मात्र गंजी पहने वे।" 

झाबुआ वनांचल के गाँवों का बड़ा उत्सव है– भगौरिया। देखिए भगौरिया में गाँव का एक दृश्य–

"लहक उठी अमराइयाँ
महक उठे हैं बौर
हवा में मादकता
आज ठौर ठौर। 
महुआ गदराए हैं
मस्ती चहुँ ओर
मनभावन ऐसा
भगौरिया का भोर।"

डॉ. भण्डारकर के ग्राम जीवन के चित्रण के बारे में पद्मश्री पंडित रामनारायण उपाध्याय का कथन द्रष्टव्य है– "बौनी" का चित्र देख कर मंत्रमुग्ध रह गया, गाँव आँखों मे तैर गया–

"चहल पहल है चारों ओर
बैल चले खेतों की ओर;
धरती का होगा सम्मान
सब किसान बोयेंगे धान।" 

भील का यह चित्र कितना जीवंत बन पड़ा है–

"अभावों ने पोसा अभावों ने पाला
सच्चाई के साँचे में इनको है ढाला;
दम्भी नहीं, किंतु हैं स्वाभिमानी
कला के पुजारी, सहज जिंदगानी।"

डॉ. भण्डारकर की कविताओं में ग्राम्य जीवन की सादगी व ताज़गी है। दैनिक भास्कर भोपाल ने अपने 29 अक्टूबर 2000 के अंक में लिखा– "आधुनिकता और विकास की अंधी दौड़ में व्यस्त आज का आदमी अपनी जड़ों को भूलकर स्वार्थी, संवेदना शून्य और अंतर्मुखी होता जा रहा है, शहरी जीवन की चकाचौंध की मृगमरीचिका हमें अपने गाँवों से तेज़ी से दूर कर रही है। ऐसे में डॉ. भण्डारकर की पुस्तक 'दिशाएँ मौन' ग्राम्य जीवन की सादगी और ताज़गी के साथ-साथ प्रकृति की गोद में ले जाती है। उनकी भाषा में भी गाँवों की सी सहजता और अपनापन है। "

गाँव के जीवन के चित्रण में डॉ. भण्डारकर ने भारतीय संस्कृति के विभिन्न आयामों का मनमोहक और प्रेरक रेखांकन किया है। सुविख्यात कला समीक्षक विनय उपाध्याय "राज्य की नई दुनिया" में लिखते हैं– "विश्व ग्राम के महास्वप्न में खारिज होते जा रहे जीवन के बुनियादी सरोकारों और आधुनिक आग्रहों के बीच उनकी कविताएँ उस आस्था को आयाम देती हैं जिसमे मनुष्य सच्चे अर्थों में प्रतिध्वनि सुनता है। अपने विन्यास में ये कविताएँ भारतीय संस्कृति का एक मुकम्मल रेखांकन करती हैं। डॉ. भण्डारकर ने अपनी पृष्ठभूमि के अनुकूल जहाँ एक ओर लोक संस्कृति के पक्ष में अपनी अनुभूतियाँ दर्ज की हैं वहीं प्रगति के नाम पर हो रहे सामाजिक पतन का दारुण स्वर भी शिद्दत से सहेजा है। "

डॉ. हिदायत अहमद डॉ. भण्डारकर की कविताओं में अलग ढंग से ग्राम्य-सौंदर्य देखते हैं– " डॉ. भंडारकर ग्रामीण परिवेश को ठोस धरातल देते हैं। आपका काव्य ग्राम की मिट्टी से उठने वाली सौंधी महक को लेकर नगर और महानगर की ओर चलता है। "

भारतीय संस्कृति ग्राम संस्कृति और वन्य संस्कृति दो रूपों में है। डॉ. भंडारकर की कविताओं के ग्राम जीवन में इन्हें स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। देश के शीर्षस्थ आलोचकों में शुमार पूर्व कुलपति डॉ. धनंजय वर्मा लिखते हैं- "(डॉ. भंडारकर की कविताएँ) हिंदी कविता के समकालीन परिदृश्य की शहरी और मध्यमवर्गीय रूढ़ मानसिकता के घटाटोप में गाँव, खेत और वन की सुखद बयार के मानिंद हैं। इनमें आधुनिक विकास के अंतर्विरोधों और यांत्रिकता का साक्षत्कार है, प्रकृति की नैसर्गिकता के प्रति उत्कंठा के साथ समकालीन जीवन के दैन्य और दुखों के वास्तविक और प्रामाणिक अनुभवों की ईमानदारी अभिव्यक्ति है। किसान और मजदूर ग्राम्य और वनज के साथ कवि के स्वाभाविक तादात्म्य-बोध में जहाँ एक सरलता और मासूमियत है वहीं शोषण के प्रति रोष और संघर्ष की चेतना भी है। "

अपनी एक कहानी में डॉ. भण्डारकर लिखते हैं–

"भाई सुमित समय परिवर्तनशील होता है। पूरे विश्व में वैज्ञानिक क्रांति आधारित विकास का बोलबाला है; ऐसे में हम कैसे पीछे रह सकते हैं इसीलिए आज हमारी संस्कृति का स्वरूप बदलता जा रहा है। अब गाँव शहरों में तब्दील हो रहे हैं। गाँवों में भी औद्योगिक प्रगति ने दस्तक दे दी है। भाव जगत कमजोर हुआ है अर्थ तंत्र का राज्य कायम हो गया है। अस्तु लोगों की सोच बदल गयी है। कृषि उपज में भी शुद्धता व स्वाद को नजरअंदाज किया जाने लगा है। किसी को भी धरा के स्वास्थ्य की चिंता नहीं है। जैविक और परम्परागत खादों के स्थान पर रासायनिक उर्वरकों का बोलबाला हो गया है। अब वैज्ञानिक तकनीकों से बेमौसम कृत्रिम फसलें, फल आदि उगाए और पकाए जाने लगे हैं। पाश्चात्य देशों से आयातित संस्कृति प्राचीन भारतीय संस्कृति के मूल स्वरूप को ही नष्ट करने पर तुली है। इसलिए विकास के नाम पर ये ऊँची-ऊँची इमारतें, सीमेंट कंक्रीट की सड़कें ग्रामीण संस्कृति का मटियामेट कर रही हैं। गायें कहाँ गई? सुमति जी अब "गौमाता"का भाव लुप्तप्राय है। कृषि का यंत्रीकरण होने से गाय के बछड़ों की उपयोगिता नहीं रही। अपने यहाँ देसी नस्ल की गायें भैंस की अपेक्षा कम दूध देती हैं। तो इस दृष्टि की भी बुरी नजर गौमाता पर पड़ी सो पशु बाड़े से गाएँ गायब हो गईं, बेच दी गईं (बिक कर कहाँ जायेंगी हमारी बला से); कुछ छुट्टा छोड़ दी गईं जो इधर उधर मारी मारी फिरती हैं। "

इन्हीं भावों को रेखांकित करते हुए सुप्रसिद्ध आलोचक डॉ. के के जैन टिप्पणी करते हैं– "कवि अपने आसपास की प्रकृति और जीवन से रागात्मकता से जुड़ा हुआ है। यह रागात्मकता उसे बदलते हुए जीवन मूल्यों का विश्लेषण करने का अवसर देती है और उपभोक्ता संस्कृति के विभिन्न आयामों पर टिप्पणी करने का संयोग जुटाती है। दादी के लिए पेड़ पर बैठने वाली चिड़िया आत्मीयता और प्रसन्न्ता का कारण है किंतु एक पीढ़ी बाद बहू के लिए वह गंदगी फैलाने वाली, बीट करने वाली बन जाती है। (कविता:मेरा आँगन) उपयोग की तुला पर तौलने के कारण गाय की तुलना में भैंस छोटे भाई को ज्यादा अच्छी लगती है। 'विकास क्रम' कविता में दद्दा का व्यक्तित्व बड़ा प्रभावशाली है। भवानी प्रसाद मिश्र की कविता 'घर की याद' दिलाने वाला। जीवनलाल विद्रोही की कविता में चरवाहे की अपने ढोरों के प्रति जो आत्मीयता उद्‌घाटित होती है वैसी ही आत्मीयता विकास क्रम कविता में प्रस्तुत हुई है। ...आदिवासी अंचल झाबुआ के लोक जीवन, वहाँ की प्रकृति, वहाँ के अभाव कवि के अनुभूत सत्य हैं। कवि ने अनेकानेक कविताओं में उनका बड़ा मार्मिक चित्रण किया है। "

मूर्धन्य ललित निबंधकार प्रो. श्रीराम परिहार, डॉ. भण्डारकर की कविताओं में मानवीय और सामाजिक सरोकारों की तलाश कल्पना में न होकर जीवित संसार में किये जाने का जिक्र करते हैं– "डॉ.क्टर भण्डारकर कविता के मानवीय और सामाजिक सरोकारों की तलाश कल्पना की बजाय जीवित संसार में करते हैं। उनके अनुभव का संसार इसी जमीन का है, उनकी जमीन वर्तमान की है। उनका वर्तमान उन लोगों से बसा हुआ है जो विकास के क्रम में सबसे अंतिम व्यक्ति के रूप में खड़े हैं, जो अपनी परंपराओं में जीवित हैं, जो अपने श्रम सीकरों से जीवन की आस्थाओं को सींचते हैं। यह लोग झाबुआ, अबूझमाड़, बस्तर, सरगुजा या अंडमान निकोबार में रहते हुए जीवन के अभाव में भी उत्सव-राग गाते हैं। जो भारत के किसी भी गाँव में रहते हुए खेतों में अन्न उपजाते हैं और फसलों के पाँव में दानों के घुँघरू बाँधते हैं। "

"वनजा" कविता संग्रह तो सम्पूर्णतः ग्राम जीवन का ही ग्रंथ है। यह कविता संग्रह सन 2015 ई में ग्राम्य साहित्य अकादमी महावीरगंज ज़िला भिण्ड द्वारा प्रकाशित किया गया है। गाँवों के प्रति कवि का प्रेम "अम्मा का गाँव" कविता में द्रष्टव्य है–

"अम्मा के गाँव में, ममता की छाँव में, 
मुझको बहुत ही अच्छा लगता है । 
जब जब मैं जाता अम्मा के गाँव में 
बचपन के प्यारे सुनहरे से ठाँव में:
मिलती है अम्मा तो लगता है नीका
अम्मा ना होती तो सब होता फीका
बिजली नहीं है अम्मा के गाँव में
फिर भी सुहाना लगे ममता की छाँव में।" 

डॉ. आर बी भण्डारकर के कथा साहित्य में ग्राम-जीवन:

अभी तक डॉ. भण्डारकर की कुल आठ कहानियाँ ही प्रकाशित हुई हैं। उनकी प्रकाशित और अप्रकाशित लघुकथाओं की संख्या 200 के आसपास है। कहानी "करै कोई भरै कोई" में मेहनत- कश किसान और ग्रामीण परिवारों की चालों का चित्रण करते हुए डॉ. भण्डारकर लिखते हैं–

"उस इलाके में राज व्यवस्था के अधीन उस समय बीहड़ और कछार की भूमि को तोड़कर कृषि योग्य बनाया जा रहा था। दादा, मेरे माता-पिता और सौतेले चाचाओं ने मिलकर काफी भूमि तोड़ी, पर दादाजी ने उसे केवल अपने दोनों पुत्रों के नाम करा दिया। फिर मेरे माता-पिता को खूब प्रताड़ित करने लगे उन्हें अपने परिवार से अलग कर दिया, रहने के लिए एक कमरा तो दे दिया पर गृहस्थी के सामान, कृषि भूमि में से कोई हिस्सा नहीं दिया।"

डॉ. भण्डारकर की लघुकथाओं के केंद्र में ग्राम और किसान ही रहे हैं। इनकी प्रस्तुति इतनी सशक्त कि वर्ण्य विषय मूर्तिमान हो उठता है–

"चैत का महीना है। भोलाराम भुनसारे ही निकल गए कटाई करने। पत्नी भोली घरेलू कामों में व्यस्त, ऐसी आर्थिक हैसियत है नहीं कि भाड़े पर किसी "कटइया"(मजदूर) को ले लेते, सो अकेले ही निकल पड़े भोलाराम। दैनिक क्रियाओं से निवृत्त होकर भोली ने घर-आँगन झाड़ा-बुहारा, पशुओं की दालान बुहारी, गोबर उठाया, पथनवारे पर ले जाकर कंडे पाथे, लौट कर हाथ-पैर धोए, भैंस को सानी की, फिर जल्दी जल्दी स्नान किया, दही मथा फिर खाना बनाया। खाना खाकर जब दोनों बच्चे स्कूल चले गए तो भोली ने एक घिल्लिया में पानी भरा, कटोरे में दाल भरी, छन्ने में रोटी बाँधी। सिर पर उडरी रखी, उस पर घिल्लिया, तिसके ऊपर दाल, रोटी और चल दी खेत के लिए। वह चिंतित तो हो ही रही थी, उसे आत्म ग्लानि भी हो रही थी कि आज बहुत देर हो गयी है, उसके पति भोलाराम प्यास गए होंगे।"

इन पंक्तियों में ग्राम्य संस्कृति का कितना जीवंत चित्र प्रस्तुत हुआ है। 

एक और लघुकथा देखिए–

"कम्बोद खेत के ऊपरी उबड़-खाबड़ हिस्से में बबूल और शीशम की पौध लगा रहे थे; वहाँ फसल नहीं होती थी और पानी भी नहीं टिकता था इसलिए। सरपंच ज्ञानेन्द्र उधर से निकले, अरे! थोड़ी मेहनत करो कम्बोद। खेत को समतल बना लो। धीरे धीरे प्रयास करो। चार, पाँच साल में खेत समतल हो जायेगा फिर फसल होने लगेगी। पाँच साल बाद खेत के उसी ऊपरी हिस्से में बबूल और शीशम का बाग लहलहा रहा है। आधे एकड़ के इस बाग को ज़िले में वृक्षारोपण का प्रथम स्थान मिला है। सरपंच ज्ञानेन्द्र कम्बोद को 'कम-बोध'समझते थे। आज वही सरपंच उसे पुरस्कार देते हुए उसके बुद्धि-कौशल पर चकित थे।"

यहाँ एक और दृश्य का उल्लेख करना आवश्यक लगता है। यहाँ गाँव है, गाँव का कर्म उत्सव है–

"लटू कक्का दरवाजे पर बैलों को खड़ा करते हैं, हरसोत तैयार करते हैं फिर लौहरी काकी सजी सजाई पूजा की थाली लेकर आती हैं। सबसे पहले बैलों को टीका करती हैं फिर जुआँ और हल को और अंत में लटू कक्का को टीका लगातीं हैं। वे बैलों को वह सीरा, फुलकिया खिलाती हैं जो उन्होंने अक्षय तृतीया की पूजा में से निकाल कर संरक्षित करके रखी थी। अब लटू कक्का हरासोत लेकर आगे चलते हैं उनके पीछे पूजा की थाली और जल कलश लिए लोहरी काकी। सबसे नजदीक के स्व- खेत पर पहुँचते हैं। खेत पर नारियल फोड़ते हैं अग्नि प्रज्जवलित कर होम करते हैं। अठौरिया और गुड़ चढ़ाते हैं, जल का अर्घ्य देते हैं और फिर गुड और नारियल की गिरी वहां जुट आए बच्चों में बांट देते हैं। अब हल जोतना शुरू; हो गए हरायते अर्थात इस वर्ष की जुताई और कृषि कार्यों की शुरुआत।"

अन्य गद्य साहित्य में ग्राम जीवन:

डॉ. भंडारकर की पहली गद्य पुस्तक लागी लगन सन 2013 में ग्राम्य साहित्य अकादमी महावीर गंज ज़िला भिण्ड द्वारा प्रकाशित की गई। इसमें डॉ. भण्डारकर की विभिन विधाओं की गद्य-रचनाएँ संगृहीत हैं। इसका शीर्षक इसमें संगृहीत रोचक यात्रा वृत्तान्त पर केंद्रित है। इसमें जो जीवनियाँ हैं उनके अवलोकन से ज्ञात होता है कि वे काफ़ी पहले लिखी गयी हैं। कहानियों और लघुकथाओं के विषय ग्राम्य जीवन से लिये गए हैं इनमें वर्ण्य विषय एक चलचित्र की तरह आभासित होते है। सभी रचनाओं में भाषा और शैली सरल और सुबोध है। 

"शिक्षा का अधिकार" नाटक में गाँव का एक दृश्य देखिए–

" प्रौढ़ सज्जन– अरे बौआ...... पढ़ना तो बहुत जरूरी है, तुम लोग स्कूल पढ़ने क्यों नहीं जाते? एक लड़का– अपनी भाषा में (भावार्थ) मुझे मास्टर साहब से डर लगता है। प्रौढ़ सज्जन– (दूसरे अपेक्षा कृत बड़े बच्चे से) तुम तो बेटा इससे बड़े हो, तुम स्कूल क्यों नहीं जाते? दूसरा लड़का– (अपनी भाषा में) स्कूल में बहुत लड़के आते हैं उनमें से एक लड़का (कोई नाम लेता है) बहुत खराब है, वह सब को मारता है; इसलिए मुझे डर लगता है। प्रौढ़ सज्जन– (थोड़ी दूर खड़ी हुई लड़की को बुलाते हुए) ए बौआ इधर आओ.... तुम स्कूल क्यों नहीं जाती? लड़की– (बहुत संकोच में, डरते डरते अपनी भाषा में) मेरी माँ स्कूल नहीं जाने देती, कहती हैं कि स्कूल जाने से क्या होगा, घर पर रहकर काम सीखो। प्रौढ़ सज्जन– अरे बेटा पढ़ने जाना चाहिए.... पढ़ना तो बहुत जरूरी है। (इतना कहकर प्रौढ़ सज्जन सड़क पर आगे बढ़ते हैं, थोड़ी दूरी पर उन्हें एक पढ़ा-लिखा नवयुवक आता दिखाई देता है जो संभवत कॉलेज से लौटकर अपने घर जा रहा है। उसके हाथ में किताब हैं वह पीठ पर एक स्कूल बैग टांगे हुए है। ) नवयुवक (पास आकर)– अरे काका बड़े चिंतित दिखाई दे रहे हो, क्या बात है? प्रौढ़ सज्जन– क्या बताऊँ बेटा ....मेरा बड़ा बेटा पंजाब गया है नौकरी करने, शायद यह उसी की चिट्ठी है (चिट्ठी दिखाता है) कोई पढ़ने वाला ही नहीं मिल रहा है। नव युवक– अरे इसमें चिंता की क्या बात है.... लाओ आपकी चिट्ठी मैं पढ़ देता हूँ। (प्रौढ़ सज्जन नवयुवक को चिट्ठी देते हैं, नवयुवक मन ही मन चिट्ठी पढ़ता है, प्रौढ़ जिज्ञासा भरी दृष्टि से युवक को देखता है।"

दूसरी गद्य पुस्तक संचयिता है। इसके सम्पादक प्रो. राजीवकुमार हैं। इसमें उन्होंने डॉ. भण्डारकर की उन रचनाओं का संकलन किया है जो समय समय पर विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में तो छप चुकी थीं पर अब तक प्रकाशित उनकी किसी पुस्तक में शामिल नहीं हुई थीं। इसका प्रकाशन सन 2019 ई में समीक्षा प्रकाशन मुजफ्फरपुर/दिल्ली से किया गया। पुस्तक की भूमिका (पुरोवाक) में डॉ. राजीव कुमार लिखते हैं– "इस संचयिता में डॉ. भण्डारकर की डायरियों और अन्यथा फुटकल कागजों में दर्ज रचनाओं में से चुनिंदा रचनाओं को सँजोने का प्रयास किया गया है। इसमें उनकी वे बहुविधात्मक रचनाएँ शामिल हैं जो अब तक उनके किसी संकलन में प्रकाशित नहीं हुई हैं अलबत्ता अनेक रचनाएँ समय समय पर कई पत्र, पत्रिकाओं में अवश्य छप चुकी हैं।"

संचयिता का दूसरा भाग अभी अप्रकाशित है। इसकी प्रायः समस्त रचनाओं में ग्राम जीवन ही विन्यस्त है। 

डॉ. भंडारकर की डी. लिट् उपाधि का शोध प्रबंध "प्रेमचंद साहित्य में प्रयुक्त व्यक्तिवाची नामों का भाषा परक अध्ययन" है। प्रेमचंद जी ग्राम जीवन के ही चितेरे हैं। गाँव और ग्रामीण जीवन का उन जैसा व्याख्याकार दुर्लभ है। डॉ. भंडारकर ने प्रेमचंद के सम्पूर्ण साहित्य में जितने भी व्यक्ति वाचक नाम आये हैं उनकी भाषिक दृष्टि से सटीक विवेचना की है। 

इस प्रकार डॉ. आर बी भंडारकर का साहित्यिक प्रदेय बहु आयामी और व्यापक है। उनका सम्पूर्ण साहित्य ग्राम, ग्राम वासी, ग्रामीण जनजीवन, ग्रामीण परिवेश के आसपास घूमता दिखाई देता है। उद्देश्य की दृष्टि से हमें उनके साहित्य में आदर्शोन्मुख यथार्थ वाद के दर्शन होते हैं। स्पष्ट होता है कि वे यथार्थ को प्रस्तुत अवश्य करते हैं पर उनका लक्ष्य आदर्श स्थिति की ओर ले जाना रहा है। उनके लेखन में शब्दावली तत्सम प्रधान तो है पर यथास्थान लौकिक शब्दों का भी भरपूर प्रयोग दिखता है। उनके साहित्य में ओज, माधुर्य, प्रसाद गुण विद्यमान हैं। उनके काव्य में अलंकार स्वाभाविक रूप में आये हैं। सहज रस निष्पत्ति उनके काव्य की एक अहम विशेषता है। 

डॉ, संगीता सिंह

बंगला नम्बर 2
जजेज आवास
सिविल कोर्ट केम्पस
लटेरी रोड सिरोंज
ज़िला विदिशा ( म.प्र)

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