अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

दुबे जी

अजीबो-ग़रीब माहौल के बीच मेरे जीवन के अभी दो साथी हैं जो अक्सर अपनी तन्हाई के पल मेरे साथ बाँटते हैं एक है मेरी क़लम और दूसरे मेरे पड़ोसी दुबे जी।

दुबे जी की उम्र करीबन 60 के आस-पास है। अकेलेपन की सीमा पर खड़े दुबे जी प्रत्येक सुबह आरामदायक चेयर पर बैठ कर अख़बार पढ़ते मिल जायेंगे या फिर चाय की दूकान पर हँसी-ठिठोली करते हुए। अक्सर मेरी मुलाक़ात शाम को ही होती है उनसे। फिर हम घंटों बैठकर आस-पास की चीज़ों पर बात करते हैं। मुझे कभी-कभार हैरानी होती है इतने ख़ुशमिजाज़ आदमी की बातों में अजीब सा सूनापन है। कभी-कभी तो लगता है जैसे मैं ख़ुद अपनी बातों को सुन रहा हूँ।

आज से ठीक 20 साल पहले दुबे जी और मैं कालोनी में एक साथ शिफ़्ट हुए थे। मैं अपनी पत्नी के साथ था और वो अपने पूरे परिवार के साथ। समय के साथ दोनों को अकेलेपन ने आ घेरा। मेरी पत्नी का स्वर्गवास हो गया और दुबे जी का पूरा परिवार उन्हें छोड़ के बाहर शिफ़्ट हो गया। दुबे जी कई वर्षों तक बंद पड़े कमरे में अक्सर अपनी ज़िन्दगी के पन्ने पलटते। एक दिन दोपहर का समय होगा पास के ही खन्ना जी का लड़का गेंद माँगने के लिए उनके गेट पे आया। दुबे जी उस बच्चे को देखकर मुस्कराने लगे और प्यार से उसके सर पर हाथ फेरा फिर अचानक उनकी आँखों से जैसे न कह पाने वाले शब्द बहने लगे। दुबे जी सँभलते-सँभलते मेरे पास आये। मैं चाय बनाने की तैयारी में था। शाम होते ही चाय की तलब भी तो हो जाती है मुझे। दुबे जी को चाय के लिए बोला और बिठाया। दुबे जी ख़ामोश थे तो मैंने भी उनके चहरे को पढ़ा और कहा, "अरे दुबे जी कभी मुस्करा लिया करो, ज़िन्दगी में मुस्कराने के लिए किसी इजाज़त नहीं चाहिए। अब मुझे ही देखिये अपनी ज़िन्दगी में जो मुस्कराता पल दिखता है, बस चेप देता हूँ अपने चहरे पर। आप भी अब कहाँ पुरानी ज़िन्दगी में सैर करने चले जाते हैं एक काम कीजिये चलिए आज घूम आया जाए पार्क में।"

दुबे जी ने थोड़ा इनकार किया लेकिन हमारी बात कहाँ टालने वाले थे। उम्र के इस पड़ाव पर मुझे लगता है मैं उनका दोस्त कम और पत्नी ज़्यादा हूँ। ख़ैर हम शहर के एक बड़े से पार्क में घूमने चले गए। पार्क के माहौल में ख़ुशनुमा एहसास मिल जाता है तो अक्सर चाय की चुस्की के बाद यहाँ आ जाता हूँ टहलने।

दुबे जी बैंच पे बैठते ही कुछ सोचने लग जाते हैं, आज तो पता नहीं कुछ अलग ही अंदाज़ था उनका। आस-पास देखकर कुछ यूँ कहने लगे.. "अक्सर शाम को घर से निकलते ही मुलाक़ात हो जाती है एक ख़ामोशी से.... यह वक़्त होता ही ऐसा है.. आहट शोर बनकर कानों में गूँजने लगती है। न जाने कितनी बार चलते-चलते तो चिल्लाया हूँ वक़्त पर कि पीछे क्यूँ रुक जाते हो। आस-पास नज़र जाती है तो देखता हूँ दिन भर की थकान को कंधे पर लिए हुए लोग चले जा रहे हैं...। रात धीरे-धीरे पूरे आकाश को आगोश में ले रही है...। कुछ चेहरे पार्क की बेंच पर बैठकर ज़िंदगी को बाँट रहे हैं...। पास के ही मंदिर में ईश्वर भी मधुर संगीत सुनके मदमस्त है....। हवाएँ कुछ हल्केपन के साथ पत्तों के साथ खेल रही हैं...। एक शाम है जो तारों की छाया समेटने को बाँहें फैलाये खड़ी है...! एकाएक मन दुबारा वापस लौट आता है और ख़्याल आता है कि देर हो गई है… वापस जाना चाहिए। मेरे घर में तीन कमरे हैं, बिल्कुल एक दूसरे से सटे हुए अक्सर एक दूसरे की बातें सुनते रहते हैं…। घर में सामान के नाम पर दो-चार कुर्सियाँ, वक़्त के साथ बूढ़ा हो चुका बेड, खिड़की की ओर ताकता मेज़ जिस पर सूख चुका गुलाब है। एक-दो पेन रखे हैं जो लगातार पन्नों के साथ संघर्ष करते हुए दम तोड़ चुके हैं। इसी मेज़ के एक किनारे पर बेसुध सा ख़त पड़ा है, जिसमें लिखा एक-एक शब्द मेरे मन की दीवारों पर गुदा हुआ है…" और इतना कहते-कहते दुबे जी फिर खो गए..।

"वाह दुबे जी वाह क्या बात है! आप तो बहुत अच्छा लिख सकते हैं। आप भी न... अरे अब कहाँ इन सबको लिखूँ।"

"हाँ आप तो अक्सर लिखते रहते हो उतार देना इन्हें ही पन्नों पर। अरे भाई मेरी ज़िन्दगी और तुम्हारे शब्द अक्सर मुलाक़ात तो करते ही हैं।"

मैं भी मुस्करा कर दुबे जी को मुस्कराने में जुट गया।

हम पार्क में टहलने लगे तभी आस-पास खेलते बच्चों की गेंद दुबे जी से टकराई। दुबे जी बच्चों की तरह उस गेंद को थाम के फेंकने की प्रैक्टिस करने लगे। तीन प्रयास में सफलता मिली तो गेंद मुश्किल से दो क़दम चल पाई, पर हाँ इन क़दमों ने दो मुस्कान ज़रूर डाल दी दुबे जी के चहरे पर और मेरी आँखों में दो बूँदें। पता नहीं दुबे जी को इस क़दर देख के हज़ारों पल की ख़ुशियाँ मेरी आँखों में आ गईं और शायद आँखों ने ज़िन्दगी के इतने थपेड़े सहे थे कि इस ख़ुशी को रोक नहीं पाईं। तभी अचानक मेरे फोन की की रिंग बजती है उधर से आवाज़ आती है कि आपकी कहानी को सम्मान प्राप्त हुआ है, आप इस महीने के अंत तक आ जाइये। ख़बर सुन कर ख़ुशी हुई तो सोचा कि इस ख़ुशी को दुबे जी के साथ बाटूँ पर न जाने मन ने रोक लिया। ज़िन्दगी के कई वर्षों तक मैं लिखता रहा और आज जब मैं ख़ुद का साथ नहीं दे पा रहा तो आज मुझे सम्मानित किया जा रहा है। मेरी ज़िन्दगी का मानदेय क्या यह सम्मान है? और इन सबके बीच अपनी उम्र के हमसफ़र दुबे जी को भी अकेला छोड़ने का मन नहीं था फिर भी आशंका में मैंने दुबे जी से यह बात कही।

दुबे जी सुनते ही खिलखिला उठे जैसे मेरी आँखों में मुस्कराती तस्वीर को क़ैद करना चाहते हों और मेरे इस पल का उनकी ज़िन्दगी में इंतज़ार हो। उन्होंने एकदम कहा तो कब जाना है। मैंने कहा महीने के अंत में लेकिन दुबे जी आप भी चलिए। उन्होंने सेहत ठीक नहीं होने के कारण मना कर दिया लेकिन बोले कि हाँ सम्मान लेते हुए तस्वीर ज़रूर ले आना, देखूँ तो हमारे लेखक साहब हाथ में गुलदस्ता और शॉल ओढ़े कैसे लगते हैं। मेरी सारी आशंकाएं जैसी उनकी इन बातों से एकदम दूर हो गईं और मैंने कहा, जी तस्वीर भी लेते आऊँगा और एक शाम जानकर पार्टी भी करेंगे।

बस यूँ ही बात करते-करते हम घर आ गए। मैं अपने घर में जाकर बैंच पर बैठ गया और पुरानी तस्वीरों को पलटने लगा। कितना सुकून मिलता है इन क़ैद किये लम्हों को देख के। अक्सर कई बार मित्र की वो बातें अनायास ही कानों में गूँज जाती हैं कि लेखक जी और बताइए आपकी नई कहानी कब आ रही है। इस बार हमें ही तो पात्र नहीं बना दिया आपने और फिर मेरे इस वाक्य के साथ कि आप मित्र तो मेरे जीवन भर की जमा पूँजी हो और इस पूँजी का इस्तेमाल जीवन के आख़िरी लम्हों में करूँगा। पूरा माहौल हँसी के साथ गूँज जाता था। मेरी पत्नी जो अक्सर मेरे मेज़ को साफ़ करते करते परेशान हो जाती थी, तो बोलती थी कि इतना गंद फैला कर रखते हैं मेज़ पर आप। अरे इस मेज़ की ज़बान होती तो हर सुबह एक गाली तो आप ज़रूर खाते। मैं भी बोल देता कि मेज़ की ज़ुबान हो न हो तुम जो हो उसकी बात कहने के लिए। बस यही सब याद करते हुए वक़्त कब गुज़रता है पता ही नहीं चलता। घर में एक नौकर है वो भी पिछले 25 वर्षों से साथ ही रह रहा है। मेरी तरह उसने भी अपनी पूरी ज़िन्दगी इस घर में ही गुज़ार दी। कभी-कभार तो लगता मैं, दुबे जी और हमारे श्याम काका एक ही राह के मुसाफ़िर हैं जो बस जी रहे हैं ज़िन्दगी को जीने के लिए।

मैं तो भूल ही गया कि दुबे जी को अस्तमा की प्रॉब्लम है और मुझे अपनी यादों में उनका ख्याल ही नहीं आया।

"श्याम काका दुबे जी को ज़रा एक बार देख आना।"

क्या कहूँ हर रोज़ सोचता हूँ कि आख़िर हम क्या सोचते हैं ज़िन्दगी के बारे में? क्या इसे सिर्फ जीने के लिए हम जी रहे हैं? एक लम्बा अरसा परिवार की ख़ुशी समेटने में लगा दिया और जब थोड़ी सी ख़ुशी की चाह रखी तो ज़िन्दगी ने हमें समेट कर रख दिया इस बंद कमरे में। जहाँ ख़ुद से सवाल पूछता हूँ और ख़ुद से जवाब माँगता हूँ और इन सबके बीच हमसफ़र में एक दुबे जी ही तो हैं जिनको देखकर जीने की कोशिश करता हूँ। उनको भी ऐसा लगता जैसे एक क़तरा ज़िन्दगी रोज़ हम एक दूसरे को उपहार देते हैं। अरे याद आया कि जाने के लिए टिकट भेजी होगी उन्होंने ज़रा देख लूँ…।
श्याम काका तब तक आ गए।

"दुबे जी को दवाई दे दी मालिक वह आराम कर रहे हैं।"

"ठीक है काका आप भी जा कर सो जाइए। आज खाना खाने का मन नहीं है। और हाँ महीने के आख़िरी में मुझे जाना है तो आप भी छुट्टी पर जा सकते हैं।"

श्याम काका शांत हो गए बोले, "मैं कहा जाऊँगा मालिक फिर दुबे साहब भी तो हैं, उनको कौन देखेगा?

"हाँ, अरे देखो मैं कैसे भूल गया दुबे जी भी न। साथ चल लेते तो थोडा बाहर घूम आना होता पर तबियत भी उनका साथ नहीं देती।"

रोज़ इसी तरह मैं कुछ यादों को अपने में समेटता और बिस्तर तक ले जाता जहाँ बेसुध रात हमेशा की तरह मेरे बिस्तर पर मुझसे पहले लेटी होती। आँखें बंद करते वक़्त बस यही दुआ रहती कि कल सुबह की फिर कोई मुस्कराती किरण हम दोनों की ज़िन्दगी पर पड़े। वक़्त आज तक रुका है, जो रुकता मेरे लिए। महीने का वो आख़िरी दिन आ ही गया। श्याम काका ने मेरा समान पैक कर दिया था कुछ किताबे जो सफ़र के लिए थी, ठण्ड ज़्यादा थी तो एक गरम कम्बल ले लिया और कुछ रोज़मर्रा की चीज़ें। आज पहले ही सामान पैक करके रख लिया नहीं तो दुबे जी सारी पूछताछ करके ही भेजते। उन्हें इस बात की चिंता रहती है कि मैं बहुत भूलता हूँ वो मानते हैं कि मैं अपनी कहानियों में जितना मज़बूत हूँ, असल ज़िन्दगी में उतना ही बेसुध। ख़ैर निकलने से पहले दुबे जी से मिलने गया। वो गेट पर हाथ टिकाये मेरा इन्तज़ार ही कर रहे थे। मैं उनके पास गया तो शुरू हो गए.. "सारा सामान ले लिए भूले तो नहीं लेखक जनाब।"

"नहीं मैं इस बार कुछ नहीं भुला सब रख लिया है आप छोडिये इन सब चीज़ों को और अपना ख्याल रखियेगा। मन तो नहीं है पर हाँ… जल्दी लौटूँगा। आकर एक रंगीन शाम बिताएँगे।"

"हाँ, हाँ ज़रूर! लेकिन फोटो लाना मत भुलाना शॉल और गुलदस्ते वाली।"

उनसे दूर जाते हुए मन भारी सा हो रहा था पिछले कई सालों में पहली बार हुआ कि मैं दुबे जी को अकेला छोड़ के बाहर जा रहा हूँ। पता नहीं मन अन्दर से इजाज़त नहीं दे रहा और दुबे जी बाहर से भेजने पर तुले थे। मैं जानता था मन उनका भी नहीं है पर वो मेरी ज़िन्दगी की ख़ुशियों को महसूस करते थे और मैं उनकी। उन्होंने मुझे गाड़ी तक छोड़ा। मैंने सामान गाड़ी पर रखा और शीशे से दुबे जी को हाथ हिलाते हुए बाय कहा। पता नहीं क्यूँ अचानक मुझे दुबे जी के उस छूटते चहरे पर अजीब सी लकीरें दिखीं। जब तक समझाता गाड़ी दूर जा चुकी थी और वापस जाने का कोई मतलब नहीं था, नहीं तो दुबे जी इस हालत में भी स्टेशन तक छोड़ने आ जाते?

पूरे रास्ते दुबे जी का चेहरा आँखों के सामने बार-बार आ रहा था। मैंने अपना ध्यान हटाने की कोशिश की और किताब को खोल के पढ़ने लगा। करीब 10 घंटे की यात्रा के बाद मैं शहर पहुँचा। वहाँ मुझे लेने के लिए लोग आये हुए थे। उन्होंने सम्मान के साथ मुझे होटल तक पहुँचाया। शाम को ही कार्यक्रम था। सो मैं जल्दी से नहा-धो कर तैयार हो गया। फिर कुछ लोग मिलने के लिए आये, वही पुरानी बातें जिनसे मैं किनारा करने लगा था - आपकी कहानी बहुत दिल को छूने वाली है, वो पिछली कहानी में आपका एक पात्र जो घर पर अकेला था उसके साथ क्या हुआ? आपने आगे नहीं लिखा।

मैं इस पर रुक गया और बोला, "कुछ कहानियाँ उस मोड़ पर ख़त्म होती हैं, जहाँ सवालों की कई धाराएँ फूटती हैं। आप किसी भी एक सवाल को पकडिये और उसके उत्तर को तलाशने का प्रयास कीजिये।"

बहुत सारे सवालों के बीच वक़्त तेज़ी से भागता गया और शाम के कार्यक्रम का समय हो गया। मैं जल्दी से तैयार होकर कार्यक्रम के लिए पहुँचा। मंच पर साहित्यकार मोजूद थे। सैकड़ों दर्शकों की भीड़ की करतल ध्वनि से मेरा स्वागत किया गया। फिर पुष्प और शॉल से मेरा सम्मान किया गया। अचानक मुझे दुबे जी का चेहरा याद आ गया मैं कुछ देर शांत रहा। अपनी कहानी पर बोलने के लिए मुझे बुलाया गया, पर क्या बोलता मैं। ऐसी कौन सी कहानी थी जिस पर मैं बोलता। मैंने फिर भी कहा कि आप लोगों ने मेरी कहनी को पढ़ा होगा तो जाना होगा वह कहानियाँ स्वयं बोलती हैं। हर कहानी में प्रयास करता हूँ ज़िन्दगी की परतों को खोलने का। मेरा हर पात्र रेशम के धागे से ज़िन्दगी की कोमलता को नहीं मापता बल्कि हर उस कठिन, कड़े समय को महसूस करता है जो उसे जीना सिखाता है। सभागार में तालियाँ गूँजने लगीं और मेरी आँखों के सामने दुबे जी का मुस्कराता चेहरा साफ़ दिखने लगा और उनके शब्द.. "क्या लेखक? कैसा महसूस हो रहा है इतनी तालियाँ? इतने लोग, तुम्हें तुम्हारे शब्दों का लक्ष्य मिल गया ना?" और मेरे मुँह से निकल पड़ा, "शायद नहीं। एक लेखक जो कहानी को ज़िन्दगी के अनुभवों को तपा कर एक पंक्ति में भरता है क्या उसका लक्ष्य यही है? क्या मेरी ज़िन्दगी के सूनेपन को यह सम्मान यह… यह तालियाँ भर देगी?" मैं मंच से उतर गया और बिना कुछ बोले कमरे में आ गया। मैंने बिना कुछ देर किये अगले ही दिन लौटने का फैसला किया।
मैं रात भर बैचेन था अजीब ख़्यालों का भारीपन मेरी पलकों पर था और साथ में लाई पुस्तकें भी मेरी बैचैनी को कम नहीं कर पा रही थीं। किसी तरह मैंने सफ़र को तय किया और उतरते ही घर की तरफ दौड़ा। घर पहुँचते ही श्याम काका को आवाज़ मारी और दुबे जी के बारे में पूछा। वो शांत खड़े रहे। मेरी बैचेनी बढ़ रही थी मैं श्याम काका को लेकर दुबे जी से मिलने गया तो देखा वो बिस्तर पर करहा रहे थे। उनकी आँखें आधी बंद थीं। हाथ के पास एक दूब का टुकड़ा था। यह वही दूब थी जो दुबे जी पार्क में से उखाड़ कर लाये थे, बोले, "लेखक, यह हम दोनों हैं। इसे साथ ले चलते हैं।"

मैं कम्पित स्वर में बोला, "देखिए दुबे जी, मैं तस्वीर भी लाया हूँ और शॉल भी।"

मैंने उन्हें शॉल ओढ़ाई और पानी लेने के लिए गया तो गेट के पास टूटा गमला मिला जिसके पास दूब का दूसरा टुकड़ा था। मैंने श्याम काका से पूछा कि दुबे जी को क्या हुआ। वो बोले की कल रात ही इन्होंने पूछा लेखक कब आएगा? वो गेट पर आपका इंतज़ार करते थे। कल रात इस दूब को गमले से निकालकर बाहर लगाने जा रहे थे कि इनका पैर दरवाज़े से टकराया और यह गिर गए। इनके सर पर चोट आई है। मैंने दवाई भी दी पर इनकी तबियत ठीक नहीं हो रही।

मैं दुबारा भाग कर दुबे के पास गया उनकी आँखें अब हल्की-हल्की बंद हो रही थीं। मैंने उनको बार-बार हिलाया दुबे जी देखिये मैं आपके लिए सम्मान लाया हूँ। उठिये दुबे जी आज चलेंगे नहीं पार्क? आज शाम तो ख़ास है न! उठिए दुबे जी! दुबे जी काँपते हुए उठे और बोले लेखक आप आ गए कहानी जहाँ जाना चाहती थी वहाँ पहुँच गई और एकदम से गिर पड़े। मेरी आँखों के सामने जैसे मेरी ज़िन्दगी के सारे पात्र एक-एक करके सामने आने लगे। कहानी के एक-एक शब्द जैसे पन्नों से मिटते चले गए और उन सफ़ेद पन्नों पर अपना चेहरा मुझे साफ़ दिखाई देने लगा। मैंने दुबे जी के पास टूटी दूब को उठाया और गेट की तरफ़ चल दिया वहाँ ज़मीन पर पड़ी दूसरी दूब को इसके साथ मिलाया और बाहर आ गया..........

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

शोध निबन्ध

कहानी

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं