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दुख

दुख क्या है? मानव जगत में आप पाएँगे कि हर कोई दुख का रोना लिए बैठा है। पुरुष हो या महिला, वह शहर का हो या गाँव का हो, शिक्षित हो या अशिक्षित, धन-सम्पन्न हो या गरीब, सबके अपने दुख हैं ।तो फिर यह दुख है क्या?

दुख मन की एक स्थिति है अस्तु, स्थूल रूप में तो दुख वास्तव में श्रद्धा, भक्ति, लज्जा, ग्लानि, लोभ, प्रीति, करुणा, घृणा उत्साह, ईर्ष्या, भय, क्रोध की तरह एक मनोभाव ही है।

भारतीय वाङ्मय में दुख को शास्त्रीय, दार्शनिक दृष्टि से भी विवेचित किया गया है और लौकिक दृष्टि से भी।

सबसे पहले शाब्दिक अर्थ देखते हैं।हिंदी 2 शब्दकोश में दुख का शब्दार्थ इस प्रकार दिया गया है– 

"[संपु.]1.कष्ट; दर्द; तकलीफ़; पीड़ा 2.संकट; विपत्ति; अज़ा 3.मानसिक कष्ट; रंज; खेद;गम 4.रोग; बीमारी; मर्ज़।"1

दुख पर चिंतन करते हुए विचारकों ने कहा है कि शरीर अथवा मन को होने वाली कोई भी पीड़ा दुख है। इसी प्रकार अप्रिय लगने वाली, मनसा वाचा कर्मणा कष्ट देने वाली अवस्था भी दुख है। मनमाफ़िक कुछ न होने पर उपजने वाली खिन्नता भी दुख है। इस प्रकार भी कहा गया है कि प्राणी में जिस अवस्था, दशा या बात से छुटकारा पाने की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है वह दुख है।

आर्ष साहित्य में षटदर्शन हैं– 1. महर्षि जैमिनी कृत– पूर्व मीमांसा; 2. महर्षि बादरायण कृत– वेदान्त (उत्तर मीमांसा); 3. महर्षि कपिल कृत– सांख्य; 4. महर्षि कणाद कृत– वैशेषिक; 5. महर्षि गौतम कृत– न्याय; 6. महर्षि पतंजलि कृत– योग। इनके अनुसार प्रधान दुख तो मरण है। साहित्य में भी करुण रस का स्थायी भाव शोक है। यहाँ भी शोक का अर्थ मरण से उत्पन्न दुख ही है। 

सांख्य दर्शन में दुख के तीन प्रकार कहे गए हैं– आध्यत्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक। आध्यत्मिक दुःख वह जो दैहिक होते हैं। रोग, व्याधि, मानसिक पीड़ा इसी के अंतर्गत आते हैं। आधिभौतिक दुःख वह है जो स्थावर, जंगम किसी प्रकार के अन्य प्राणियों द्वारा पहुँचाए जाते हैं। आँधी, वर्षा, वज्रपात, शीत, ताप इत्यादि प्रकार की दैविक आपदाएँ आधिदैविक दुख की श्रेणी में आती हैं। इस प्रकार सांख्य दर्शन के अनुसार दुख रजोगुण का एक कार्य है यह आत्मा से अलग चित्त का एक धर्म है। इससे उलट न्याय शास्त्र और वैशेषिक शास्त्र दुख को आत्मा का धर्म मानते हैं।

योग दर्शन के अनुसार दुख एक प्रकार का ऐसा चित्त विक्षेप है जिससे समाधि में बाधा पड़ती है। इनके अनुसार व्याधि हो या राजस कार्य जिस भी विषय से चित्त में खेद या कष्ट उद्भूत हो वही दुख है। दुख से द्वेष की उत्पत्ति होती है। काल के अनुसार योगशास्त्र ने दुख के तीन प्रकार किये हैं– संस्कार, जिनका प्रभाव भूतकाल में हुआ हो जिसका स्मरण अब तक है। ताप वह दुख हैं जो वर्तमान में हैं जबकि परिणाम वह दुख जो भविष्य में आने वाले हैं।

बौद्ध दर्शन में दुख पर बड़ी गम्भीरता से चिंतन किया गया है। बुद्ध ने चार आर्य सत्य बताए– दुख है, दुख का कारण है, दुख का निरोध है, दुख निरोध का मार्ग है।

दुख क्या है? पहला आर्य सत्य कहता है– रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान, यह पंचोपादान समुदाय ही दुःख हैं। अर्थात जन्म, जरा, व्याधि, मृत्यु, अप्रिय का मिलना; प्रिय का बिछुड़ना दुःख है, इच्छित का न मिलना दुःख है। बुद्ध कहते हैं, जवानी दुःख है, मित्रता दुःख है, प्रेम दुःख है, रोग दुःख है, सम्बन्ध दुःख है। असफलता तो दुःख है ही सफलता भी दुःख है।

बुद्ध के अनुसार दुःख का कारण है। यही दूसरा आर्य सत्य है। दुख का कारण तृष्णा है, यह तृष्णा राग के साथ उत्पन्न होती है यों कहें कि सांसारिक मोह के कारण उपजती है।उपभोगों की तृष्णा सबसे बड़ी है। इसी के कारण मनुष्य तरह तरह का पापाचरण करता है और दुःख भोगता है।

यहाँ एक विचारक का निम्नलिखित कथन उल्लेखनीय है–

"भगवान् बुद्ध ने कहा जीवन में दुःख है, जीवन ही दुःख है इसलिए कि मनुष्य दुःख में पड़ा है और उसे दुःख दिखाई नहीं देता। बुद्ध कहते हैं, जन्म दुःख है, जवानी दुःख है, मित्रता दुःख है, प्रेम दुःख है, रोग दुःख है, सम्बन्ध दुःख है। असफलता तो दुःख है ही सफलता भी दुःख है। लगता है कि बुद्ध महादुखवादी हैं। यों भी तो कहा जा सकता था कि जीवन आनन्द है, आनन्द के उपाय हैं, आनन्द पाया जा सकता है, आनन्द की एक दशा है। यह पूर्णता की स्थिति है, यह दुःख निरोध की स्थिति है। तो प्रश्न उठता है कि बुद्ध ने नकारात्मक पहलू क्यों चुना? कारण साफ़ है। दुःख तो सबने जाना है, आनंद किसने जाना है। जिससे साक्षात्कार ही नहीं हुआ, जिसको जानते ही नहीं, कोई परिचय नहीं उससे बात आरम्भ करें तो समझ में कैसे आए, आरम्भ तो अनुभव पर आधार बनाकर किया जा सकता है। जीवन दुःख है, यह तो जीवन का तथ्य है, इससे कौन इनकार करेगा। दुःख से हर कोई मुक्त होना चाहता है। बुद्ध, जीवन की निंदा नहीं कर रहे हैं वे तो इतना ही कह रहे हैं कि जो जीवन का ढंग है, वह दुःख है। जीवन में लोग दुःख रोग से ग्रस्त हैं। वे रोग से परिचय करा रहे हैं फिर वे रोग के कारण समझाते हैं, रोग से छुटकारे के लिए औषधियाँ बताते हैं और रोग से मुक्त हुए लोगों की दशा से परिचित कराते हैं। वे यह सब करुणा के कारण कह रहे हैं कि जीवन दुखों का घर बना है। वे तो जीवन का यथार्थ बता रहे हैं ताकि वह चुभने लगे, फिर उसे दूर करने का उपाय करें जिससे महासुख मिले, आनन्द की प्राप्ति हो।"2

चिंतकों ने दुख को पूर्णतः व्यक्तिगत निजी अनुभूति से भी आगे माना है। गोस्वामी जी लिखते हैं–

जद्यपि जग दारुन दुख नाना।
सब तें कठिन जाति अवमाना॥3

रामचरित मानस में ही अन्यत्र गोस्वामी जी लिखते हैं–

बरु भल बास नरक कर ताता। 
दुष्ट संग जनि देइ बिधाता॥4

दुष्ट का संग कितना दुखदायी कि उसके साथ से तो भला नरक में रहना।

चाणक्य नीति में पहले कहा गया–

कष्टञ्च खलु मूर्खत्वं कष्टं च खलु यौवनम् ।
कष्टात् कष्टतरं चैव परगेहे निवासनम्॥5

सांसारिक जीवन में बहुत दुख हैं, अज्ञानता तो दुख है ही युवावस्था भी दुख है पर यह कमतर है सबसे बड़ा दुख यह कि 'दूसरे के घर में रहना' पड़ रहा है।

चाणक्य नीति में ही कुछ ऐसे सांसारिक दुखों को भी रेखांकित किया गया है जो काया में सदा दाह्य उत्पन्न करते रहते हैं–

कुग्रामवासः कुलहीनसेवा।
कुभोजनं क्रोधमुखी च भार्या॥

पुत्रश्च मूर्खो विधवा च कन्या।
विनाग्निमेते प्रदहन्ति कायम्॥6

(पाठान्तर– कुग्राम वासे, कुलहीन सेवा, कुभोजनश्च, क्रोधमुखी च भार्या। मूर्खस्य पुत्रो, विधवाश्च पुत्री, षड जीवलोके दुखानि राजन॥)

यहाँ 6 दुख कहे गए हैं। दैनिक जीवन में आम लोगों में दुख तो अनेक हैं, अकूत हैं– "कोऊ काहू सें दुखी कोऊ काहू सें दुखी" पर आम तौर पर रोग, बीमारी, शारीरिक कष्ट को दुख कहा जाता है। थोड़ा और ठहर कर देखें तो प्रिय जन से स्थायी वियोग (मृत्यु) से जनित दुख को "घोर दुख" कहा जाता है, संतान हीनता और पुत्री का विधवा होना भी आमजन के बड़े दुख हैं।

उक्त श्लोक में एक दुख "क्रोधमुखी च भार्या" कहा गया है। यह कैसा दुख? भार्या तो क्रोधमुखी होती नहीं वह तो सदैव हँसमुख होती है। उसके पास मृदुलता तो ईश्वर-दत्त गुण होता है। वह कभी क्रोधित होती भी है तो क्षण मात्र के लिए ही। हाँ सिद्धांतकार का कहना यह हो सकता है कि अपवाद स्वरूप कभी क्रोधमुखी हुई तो यह बड़ा दुख है।

दुख दूर कैसे हो? सन्तों, मनीषियों, धर्माचार्यों, दार्शनिकों, विचारकों और आम साधारण ने भी इस पर ख़ूब चिंतन किया है। भगवान बुद्ध के अनुसार जिन कारणों से दुःख उत्पन्न होता है उन कारणों को नाश करने का जो उपाय है वही चौथा आर्य सत्य है– दुख निरोध का मार्ग। इसके लिए प्रज्ञा, शील और समाधि से युक्त अष्टांगिक मार्ग है– सम्यक्‌ दृष्टि, सम्यक्‌ संकल्प (प्रज्ञा=ज्ञान) सम्यक्‌ वचन, सम्यक्‌ कर्म, सम्यक्‌ आजीविका, सम्यक्‌ व्यायाम (शील=आचरण) सम्यक्‌ स्मृति और सम्यक्‌ समाधि (समाधि=मनन)। बौद्ध दर्शन में पंचशील हैं– सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। अष्टांगिक मार्ग पर चलने से दुख का निवारण होता है।

प्रायः सभी धर्माचार्यों, भक्तों और दार्शनिकों ने किसी न किसी रूप में तृष्णा को ही दुख का कारण माना है। किसी ने उसे माया-मोह कहा है तो किसी ने लोभ-लालच, किसी ने सांसारिक ऐषणा। इनसे ही मुक्ति पाना दुख का नाश है।

मुझे गोस्वामी जी की बात बड़ी प्यारी लगती है–

सब नर करहिं परस्पर प्रीती।
चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती।7

+ + + + + + +  + + +

जननी सम जानहुँ परनारी
धनु पराव विष तें विष भारी।8

सच में इतना कर लिया तो सांसारिक ईहा-पोह जनित दुख कैसे व्याप सकते हैं।

दो बातें सामने आती हैं एक स्वयं पर विश्वास और दूसरी सन्तोष। संतों ने कहा– "जब आवै सन्तोष धन, सब धन धूर समान।" जीवन में सन्तोष आवश्यक है। अधिकांश लोग कहते सुने जाते हैं कि "अमुक अपने दुख से दुखी नहीं है, सामने वाले के सुख से दुखी है।" इस स्वार्थ भरे संसार में यह कथन पूर्ण सत्य नहीं तो सत्य के निकट अवश्य है। हम में ईर्ष्या-द्वेष भरा हुआ है, विश्वास की कमी है।

अब प्रश्न यह कि यह सन्तोष आये कैसे? मेरे एक वरिष्ठ मित्र, परम् गायत्री भक्त, श्री रघुवीर प्रसाद शर्मा महात्मा गाँधी जी के भावों को अपने शब्दों में कुछ यूँ कहा करते थे– "उन्हें मत देखो जिन के पास आप से अधिक है या बहुत कुछ है, उन्हें देखो जिनके पास आप जितना भी नहीं है या जिनके पास कुछ नहीं है।" सच है ऐसा करने पर ही सन्तोष आएगा, तभी दुख दूर हो सकेगा।

सन्दर्भ:

  1. http://www.hindi2dictionary.com/%E0%A4%A6%E0%A5%81%E0%A4%96-meaning-hindi.html

  2. https://samaybuddha.wordpress.com/2014/05/19/gautam-buddh-char-arye-satye/

  3. रामचरित मानस-बालकाण्ड 19/4

  4. रामचरित मानस-सुंदरकांड 56/4

  5. चाणक्य नीति- द्वितीय अध्याय श्लोक 8

  6. चाणक्य नीति- चतुर्थ अधयाय श्लोक 8

  7. रामचरित मानस- उत्तर कांड 20/1

  8. रामचरित मानस-अयोध्या कांड 129/3

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