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दुनिया की छत - 3 : व्रेंगो द्वीप की दुपहरी

उजला-उजला दिन है आज। हल्की हवा और नर्म धूप वाला खुला-खुला दिन। भारती मुझे किसी द्वीप की ओर ले जा रही है। गॉथनबर्ग के दक्षिणी छोर पर समुद्र से घिरा ‘व्रेंगो आइलैंड’। हम ट्राम से उतर कर ‘फ़ेरी’ के ठिकाने की ओर जल्दी-जल्दी क़दम बढ़ा रहे हैं। गूगल के अनुसार पाँच मिनट में हमारा जहाज़ अपना लंगर खोल देने वाला है। 

आख़िरी क्षणों में लगभग दौड़ते हुए हम जहाज़ पर चढ़ गए हैं। हाँ, मैं इसे जहाज़ ही कहूँगी। इतना बड़ा जो है। यात्री अपनी कारों समेत इसमें सवार हो सकते हैं।. . . तो जहाज़ मानो हमारी ही बाट जोह रहा था और अब पानी को चीरता हुआ हमें लिए जा रहा है। मुझे टिकिट लेने की ज़रूरत नहीं है। इसका दायित्व भारती के पास है। अपने फोन पर एक ‘क्लिक’ से वह बस, ट्राम, ट्रेन, फ़ेरी की यात्रा का भुगतान कर देती है।

 “ऊपर डेक पर बैठेंगे,” भारती का सुझाव है। नीचे भी पूरा केबिन लगभग ख़ाली है। लग रहा है पूरे जहाज़ में हमारा ही साम्राज्य है। हम कुछ देर पीछे की रेलिंग पर लटक कर पानी की अठखेलियाँ देख रहे हैं। गहरा नीला शांत समुद्र हमारे जहाज़ की तेज़ गति से विचलित हो रहा है। पानी की सफ़ेद लकीरें हमारा पीछा कर रही हैं, हम उसे हराते, आगे बढ़ रहे हैं। ऊपर डेक पूरा ख़ाली है। आधे हिस्से में केबिन बना है, बैठने के लिए आरामदायक कुर्सियाँ और मेज़ें सजी हैं। आधा हिस्सा छत की तरह ख़ाली और खुला है। भारती भी हैरान है कि पहले कभी फ़ेरी को इतना ख़ाली नहीं देखा. . .। यहाँ स्वीडन में गर्मियों की छुट्टियाँ कल से शुरू हो रही हैं। सभी स्कूलों में, और शायद विश्वविद्यालयों में भी आज ग्रेजुएशन डे मनाया जा रहा है। वासु के स्कूल में भी आज सेलिब्रेशन है। संभवत: इसीलिए कोई द्वीप की यात्रा पर नहीं है. .।

गॉथनबर्ग के पास उत्तरी सागर में छोटे-बड़े अनेक द्वीप हैं। कुछ में थोड़ी बहुत आबादी रहती है, कुछ निरे वीरान हैं। जहाज़ बीच-बीच में एक-दो छोटे-छोटे द्वीपों पर जाकर रुका है। शायद कुछ यात्री वहाँ से चढ़े-उतरे हों। पर ऊपर कोई नहीं आया है। हम तरह-तरह के पोज़ बनाकर नीले सागर के पार्श्व में तस्वीरें ले रहे हैं। असीम सागर, खुला नीला आसमान, नम हवा, खिली-खिली धूप के बीच पूरी उर्जा और उत्साह के साथ खींची गयीं हमारी मुस्कुराती सेल्फ़ियाँ, मोबाईल के द्वारा देश-विदेश में पहुँच रही हैं। “कॉफ़ी पी जाए. .” यह विचार करते हुए हम भीतर केबिन में प्रवेश करते हैं। यहाँ पहुँचकर कॉफ़ी पीने का हमारा इरादा बदल गया है क्योंकि आइसक्रीम पर दिल आ गया है। हम उसकी ठंडक का आनंद लेते हुए केबिन की ख़ाली पड़ी कुर्सियों में बैठ गए हैं। “अब एक सेल्फ़ी हो जाए. .”

तक़रीबन डेढ़ घंटे की रोमांचक सागर-यात्रा पूरी कर हम मंज़िल के क़रीब हैं। उत्तरी सागर के बीच स्थित व्रेंगो नामक द्वीप पर हमारा जहाज़ किनारे लग गया है। यहाँ से आगे एक तरफ़ को जाती चौड़ी सड़क पर रिहायशी इलाक़ा है। द्वीप की आबादी ज़्यादा नहीं है। कुल जनसंख्या ही तीन-चार सौ के लगभग है। यातायात-शून्य सड़क पर कहीं-कहीं दूर-दूर इक्का-दुक्का ख़ूबसूरत बंगलेनुमा घर दिख रहे हैं. . . 

बसावट की तरफ़ जाने का हमारा इरादा नहीं है, हम दूसरी तरफ़ जाने वाली राह पर लग गए हैं। पथरीला-सा उबड़-खाबड़ रास्ता है। ठहरे हुए सागर के किनारे-किनारे प्राकृतिक रूप से बना अनगढ़ रास्ता। यहाँ सागर बहुत उथला है। पानी के नीचे चमकते पत्थर साफ़ नज़र आ रहे हैं। जगह-जगह पर धरती भी सर उठाए अपना अस्तित्व जता रही है। वास्तव में सागर और धरा के बीच कोई विभाजक रेखा है ही नहीं। दोनों साथ-साथ गलबहियाँ डाले नज़र आते हैं। मानो कह रहे हों, हमें सरहदों की ज़रूरत नहीं।

भारती यहाँ पहले भी कई बार आ चुकी है। वह जिधर लिए जा रही है मैं उसी ओर हो लेती हूँ। देखने को हर तरफ़ दिल-ख़ुश नज़ारे हैं। वैसे भी मेरे इस सफ़र का सारा आनंद ही इस बेफ़िक्री में छुपा है। मैंने ख़ुद को पूरी तरह उन्मुक्त रखा है। या कहना चाहिए मेरे हमराहियों ने मुझे यह मौक़ा दिया है कि मैं सब चिंताओं की गठरी कहीं रख कर भूल जाऊँ। कितना भला लगता है यूँ लहरों पर अपने को छोड़ देना. . .खुले सागर के बीच. . . जिधर लहर बहा ले जाए उधर का नज़ारा लिए जाओ। जीवन में हमेशा न सही, पर यात्राओं में तो यह सुख लिया ही जा सकता है।

चलते-चलते हम अपेक्षाकृत खुले इलाक़े में आ गए हैं। चट्टानों से घिरा मैदान, जिसमें लम्बी, पतली घास फैली है, और खिले हैं घास पर रंगीन फूल, इतने छोटे कि अलग-अलग नज़र नहीं आते, एक साथ मिलकर ऐसा आभास देते हैं मानो किसी ने घास पर सिंदूरी रंग छिड़क दिए हों। हवा से घास में हल्की-हल्की लहरें उठ रही हैं, रंग बहते से प्रतीत हो रहे हैं। इसी बहती घास पर क़दम-दर-क़दम हम आगे बढ़ते जा रहे हैं। कुछ दूरी पर फिर सागर से मिलना हो रहा है। जहाँ-जहाँ धरा की सतह नीची है, वहाँ-वहाँ सागर ने उसे बाँहों में भर लिया है।

पानी में कुछ डूबी, कुछ उभरी एक चौड़ी-सी चट्टान है। हम दोनों सम्हलते हुए उसी पर चढ़ रहे हैं। आसपास क्या, दूर-दूर तक कोई और प्राणी नज़र नहीं आता, केवल एक पक्षी तीखे स्वर में चहकता सुनाई दे रहा है। उसका साथ देने के लिए हम दोनों तो हैं ही।

हम काफ़ी चल चुके हैं और सुस्ताने के लिए यह चट्टान मिल गयी है। अपने झोले-झमेले उस पर पटक, जूते-मौजे उतार हम ख़ुद भी पानी में उतर गए हैं। पानी गहरा नहीं है, उद्विग्न भी नहीं। ठहरा हुआ पानी. . जो केवल हवा से तरंगित हो रहा है। दोपहर की धूप में यूँ ठंडे पानी में घुटनों तक डूबे पैर राहत दे रहे हैं। लग रहा है जैसे सदियों से थके-हारे पैरों की थकान पानी में घुल-घुल कर छूट रही है। एक नई तरंग पैरों से होती मन-मस्तिष्क और अंतरात्मा तक को शीतल, निर्मल कर रही है। हम देर तक यूँ बैठे रहे हैं मानो स्वयं से स्वयं को मुक्त कर रहे हों। 

पानी दर्पण की तरह साफ़, चमकीला और पारदर्शी है हम हथेलियों में भर-भर कर उसे उछाल रहे हैं। ऊपर से नीचे गिरती बूँदें सूरज की किरणों से मिलकर झिल-मिल झिल-मिल हो उठी हैं। मोतियों की झालर की तरह टूट कर बिखर रही हैं। हवा उन्हें छेड़ती हुई बिखरा देती है और कुछ फुहारें हमारे ऊपर भी बरसा देती है। हम सिहर कर मुस्कुरा रहे हैं। ऐसा निर्मल पानी, ऐसी साफ़ हवा, ऐसा धवल वातावरण, ऐसा मनोहर एकांत मैंने पहले कभी अनुभव नहीं किया। प्रकृति अपने प्रकृत रूप में हर जगह ऐसी ही निश्छल रही होगी। फिर आदम की बढ़ती तादात ने धीरे-धीरे सब कुछ लील लिया। जहाँ जितने मानुष बढ़े, वहाँ प्रकृति उतनी ही विकृत हो उठी. . .। 

पानी के नीचे अलग-अलग रंगों और विभिन्न आकारों के पत्थर चमक रहे हैं। कहीं-कहीं पर शैवाल भी पैरों से टकरा जाते हैं। यहाँ से पानी-पानी चलते हुए हम काफ़ी दूर निकल आए हैं। बड़े-बड़े गोल पत्थरों पर फिसलन है। हम सधे क़दमों से सम्हल सम्हल उन पर चल रहे हैं। दूसरी तरह एक छोटी-सी पहाड़ी है। हम पानी से निकल उसकी ज़मीन पर पैर टिकाते हैं। थोड़ी सी चढ़ाई के बाद एक समतल इलाक़ा है। यहाँ से दूर-दूर तक की दृश्यावली स्पष्ट दिखाई दे रही है। पानी में डूबती-उभरती सी धरती. . . “सिन्धु-सेज पर धरा वधू. . .” कामायनीकार की कल्पना साकार हो रही है। कुछ चट्टानें, घास भरे मैदान, जंगली गुलाब की झाड़ियों में खिले फूल, और दूर तक नज़र आता नीले सागर का अनंत विस्तार . . .। इस नीरव परिवेश को स्वर देती हवा की सरसराहट और अनजान पक्षी का तीव्र स्वर. .। 

पूरी दोपहर इस एकांत द्वीप की आग़ोश में बिताकर हम फ़ेरी की तरफ़ लौट रहे हैं। फ़ेरी आने में अभी आधा घंटा है। हम द्वीप के उस इलाक़े में प्रवेश कर रहे हैं जहाँ आबादी है। लम्बी-चौड़ी ख़ाली-ख़ाली सड़क पर चलते हुए कहीं-कहीं सुन्दर सँवरे घर दिख रहे हैं। खेत, फलों के बगीचे, फूलों की क्यारियाँ, और अज्ञेय की कविता सी ‘हरी-बिछली घास’. . . 

फ़ेरी का समय हो गया, अब लौटना होगा। 

वापस लौटते हुए फ़ेरी में कुछ अन्य सहयात्री भी हैं। धूप ढल रही है। गहरे नीले रंग में घुला सागर का पानी भी अब हमारी तरह शांत है। कहीं-कहीं सफ़ेद पाल वाली छोटी छोटी नौकाएँ तिरती नज़र आ रही हैं। अभी बृजेश से बात हुई है। वे हमें फ़ेरी के स्टेशन से पिक कर लेंगे और वहाँ से हमें शालमर्स गॉथनबर्ग यूनिवर्सिटी के परिसर में ले चलेंगे।

शालमर्स विश्वविद्यालय गोथानबर्ग के लिंडोलमेन इलाक़े में स्थित तकनीकी विश्वविद्यालय है। 1829 में स्वीडिश ईस्ट इंडिया कंपनी के निदेशक विलियन शालमर्स के प्रयास से इस संस्थान की नींव पड़ी और 1937 में यह राज्य द्वारा अधिगृहीत संस्था बन गयी। तकनीक, प्रकृति विज्ञान, प्रबंधन, समुद्र-विज्ञान आदि विषयों में अनुसंधान के क्षेत्र में अग्रणी यह विश्वविद्यालय आज स्वीडन की प्रमुख शिक्षण संस्थाओं में गिना जाता है। कार से उतरने ही एक ओर हमें लेंडोलमेन साइंस पार्क दिख रहा है दूसरी तरफ विश्वविद्यालय की भव्य इमारतें नज़र आ रही हैं। इन दोनों के बीच से गुज़रता रास्ता हमें गोता एल्व के ठहरे हुए पानी के कगार तक पहुँचा देता है।

यह नदीनुमा एक बड़ी नहर है या सागर का पानी शहर के बीच में आ बसा है, यह देखकर कहा नहीं जा सकता। इस शहर से गुज़रते हुए कई स्थानों पर एकाएक पानी और उस पर खड़े जहाज़ या नौकाएँ दिखाई देती हैं। सिटी सेंटर भी नहर के किनारों पर बसावट का सुन्दर नमूना है। पूरे शहर में जल और थल का एक अजीब सा कोम्बिनेशन. . .। एल्व स्वीडिश भाषा में नदी को कहते हैं, तो यह नदी ही होगी। हम थोड़ी खोज-बीन कर रहे हैं। गूगल से जानकारी मिल रही है कि वोनर्न नामक बड़ी सी झील से निकली यह एक लम्बी नदी है जो स्वीडन से गुज़रती उत्तरी सागर में गिरती है। गॉथनबर्ग इसी नदी के मुहाने पर बसा नगर है। हम जिस जगह से इसे देख रहे हैं वह एक छोटा पत्तन है। नाम है ‘लिन्दोलमस्प्रिन फ़ेरी टर्मिनल’। छोटे-बड़े कुछ जहाज़ ठहरे हुए दिखाई दे रहे हैं। डेनमार्क जाना हो तो यहाँ से क्रूज़ लेकर जाया जा सकता है। दिल्ली से चलते हुए मन में था कि गोथनबर्ग से दो दिन के लिए डेनमार्क या नोर्वे की यात्रा भी की जाए। गॉथनबर्ग से कोपेनहेगन और ओस्लो दोनों बराबर दूरी पर हैं। दोनों शहरों के लिए यहाँ से बस या ट्रेन लेकर चार-पाँच घंटे में पहुँचा जा सकता है। पर अभी इन देशों में जाने की संभावना नहीं बन रही है। भारती का स्वीडिश वीसा नवीनीकरण की प्रक्रिया में है। जब तक वह प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती उसे दूसरे देश जाने के लिए विशेष अनुमति लेनी पड़ेगी। इस बीच हमारी एक दूसरी योजना बन गयी है। 

हम दोनों स्टॉकहोम जाने वाले हैं। 

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नोट- सुधि पाठक इस यात्रा संस्मरण को पढ़ते…

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