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दुनिया की छत - 6 : लौटती बेर…

विमान में हूँ। जितनी तीव्रता से वह हवा को चीरता आगे बढ़ रहा है, उतनी ही तीव्र गति से मन पीछे की ओर भाग रहा है। नहीं...नहीं… वापस लौट जाने को लालायित होकर नहीं, बीते पलों को लौटा लाने के भावुक विचार से भी नहीं… बस एक नज़र पिछले बीस दिनों के सफ़र को नज़र भर देखने के लिए। इससे पहले फ़ुर्सत किसे थी कि मुड़कर पीछे देख लेने की इच्छा जागती। अभी कुछ देर पहले तक, गॉथनबर्ग से फ़्रेंकफ़ुर्त तक की हवाई-यात्रा में भी मन आगे-आगे ही भाग रहा था। अब, जब दिल्ली दूर नहीं, बस कुछ ही घंटों के फ़ासले पर खड़ी राह देख रही है, तब पीछे छूट गए शहरों को एक जादू की झप्पी देने का ख़्याल आना लाज़मी है।  

 … सिनेमा की रील की तरह सारे दृश्य आँखों के आगे घूम रहे हैं। एक-एक दिन के कई-कई स्मृति-बिम्ब..। वियना के आकर्षक चौक-चौराहे और सब तरफ़ बिखरा कलात्मक सौन्दर्य, प्राग की अंतहीन ख़ूबसूरत गलियाँ, क़िलों-महलों-पुलों से झाँकती इतिहास की स्मृतियाँ और बल्तावा पर घिरती साँझ, लिस्बन में मिले संगी साथियों का आत्मीय स्नेह और सम्मलेन की अविस्मरणीय झलकियाँ, पोर्तो की ऐतिहासिक गलियाँ, दूरो नदी का सर्पाकार बहाव और टुकटुक की सवारी, सिन्त्रा के बेहद सुन्दर महल, क़िले और प्राकृतिक परिवेश, कैस्कैस को घेरे अटलांटिक का नीला विस्तार, गोथनबर्ग में प्रकृति की विविध छवियाँ..घिरते-बरसते बादल, मचलती हवा में झूमती लताएँ, सुनहरी साँझें, व्रिंगो द्वीप की एकांत दुपहरी, फोरत्रेस कार्लस्तेन में घिरती शाम, स्टॉकहोम की संकरी गलियों की बेमतलब भटकन और स्केंसेन में बिखरी स्केडेनेवियन अतीत की झलक…. इन नगरों, द्वीपों में बिताए एक-एक पल की स्मृतियाँ लहरों की तरह पलट-पलट कर मानस-पटल को भिगोए दे रही हैं।

चलती राह में बटोरी गयी यादें भी दस्तक दे रही हैं… एक स्थान से दूसरे स्थान, एक शहर से दूसरे शहर, एक देश से दूसरे देश तक पहुँचने के लिए टैक्सी, बस, ट्राम, मेट्रो, ट्रेन, स्टीमर, हवाई-जहाज़ जैसे कई वाहनों को सिर्फ़ माध्यम नहीं बनाया, उनमें जीवन की धड़कनें सुनी, न जाने कितनी अलग-अलग नागरिक पहचान रखने वाले मनुष्यों को देखा, अलग-अलग संस्कृतियों की गंध महसूस की, कितनी मुस्कुराहटें छुईं, कितनी बतकहियों का स्वाद लिया।…. और वे पद-यात्राएँ!! कहीं भी उतर गए, किसी भी राह पर चल पड़े बिना यह चिंता किए कि यह किधर ले जाएगी। मीलों तक धरती को अपने पैरों तले महसूस करना, गलियों, सड़कों, फ़ुटपाथों पर, नदियों और सागर के किनारों पर, क़िलों, महलों, संग्रहालयों, चर्चों, बाजारों के गलियारों पर बिना थके चलते और चकित होते… 

और इन सब हलचलों के बीच भी एक और यात्रा …या कहें अंतर-यात्रा.. अपने ही साथ अपने ही भीतर… यात्राएँ अंतत: कहाँ ले जाती हैं? कहीं भी तो नहीं। वे तो बस हमराही बन साथ हो लेती हैं.. और हम ख़ुद से दूर, ख़ुद से जुदा होकर अपने ही अंतर्मन की किन्हीं अनचीन्हीं  गुफाओं के द्वार खोल रहे होते हैं। बरसों बरस जिनकी तरफ़ हम झाँक कर भी नहीं देख पाते, वे हमारी आदम उमंगें, दुर्निवार जीवनेच्छाएँ ताज़ी हवा में साँस लेने लगती हैं। भीतर-बाहर सब कुछ खुला, खिला और उन्मुक्त… 

सोच रही हूँ… क्या यह सब सिर्फ़ बीस दिनों का जादू है?... 

घड़ी की सुइयों में बँधा, उसी की चाल से नियंत्रित हमारा जीवन दिन-महीने-साल के चक्रव्यूह में उलझा कब कितना बीत जाता है, इसका अहसास तब होता है जब सब रीतने लग जाता है। मुक्तिबोध की तरह  “अब तक क्या किया, जीवन क्या जिया” सी छटपटाहट भी नहीं सालती कई बार तो… सब कुछ पूर्व निर्धारित बने-बनाए ढर्रे पर बीतता-रीतता चला जाता है। मैं भी तो इसी समय-सारिणी में रची-बसी जीती रही हूँ। मन की उड़ान जितनी भी हो पाँव हमेशा ज़मीन पर टिकाए… हाँ, उम्मीदों के पंख कभी झड़ने नहीं दिए, क्या पता कब उड़ान भरने का अवसर मिल जाए। … और इस बार वह अवसर मिला और ख़ूब मिला। दिशाओं ने बाँहें फैला अगवानी की और हवाओं ने पंखों में नई जान भर दी। लगा एक-एक दिन में एक-एक जीवन जी लिया हो जैसे।…यह सब कैसे संभव हुआ? समय क्या रुक गया था…थम गयी थीं घड़ी की सुइयाँ… सूरज-चाँद-सितारों की गति, दिन-रात-सुबह-शाम का चक्र धीमा हो गया था..??

…तो क्या समय को घंटे-मिनट-सेकेंड में मापना ही बेमानी है? पी.टी. उषा जब ओलंपिक्स में अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी से सेकेण्ड के सौवें हिस्से से पिछड़ गयी, तब पहली बार विस्मय के साथ-साथ यह बोध भी पनपा था कि सेकेंड के सौवें हिस्से की भी कितनी अहमियत है। आज अपनी इस यात्रा के अनगिनत पलों के भीतर झाँक कर देख रही हूँ तो एक और विस्मय पनप रहा है। सेकेंड के सौवें हिस्से में भी कितने-कितने गहरे आयाम समाए हो सकते हैं। समय की गति उतनी नपी-तुली, सीधी-सपाट है नहीं शायद, जितनी हम समझते हैं। काल के बहुआयामी होने का अर्थ इन्हीं क्षणों के सघन अनुभवों में छिपा है। ‘समुद्र का बूँद में समा जाना’ ….कबीर की उलटबांसियाँ इन्हीं सन्दर्भों में खुलने लगती हैं। संभव लगने लगता है- अगस्त्य द्वारा समुद्र का आचमन कर लेना .., वामन का तीन पगों में तीन लोक समेट लेना, हनुमान का एक छलाँग में सागर माप लेना, यशोदा का कान्हा के माटी खाए मुँह में पूरे ब्रह्माण्ड को देख लेना…। कुछ-कुछ वैसे ही जैसे अज्ञेय को दीख गया था – 

“सूने विराट के सम्मुख 
हर आलोक छुआ अपनापन
है उन्मोचन 
नश्वरता के दाग से।”

इस सफ़र की एक-एक परत उठाकर अभी देख रही हूँ तो लग रहा है जैसे भोर का कोई मीठा सपना हो। मैं अक्सर मज़ाक में कहा करती हूँ कि मुझे ‘महाकाव्यात्मक’ सपने दिखाई देते हैं। सचमुच गहरी नींद में सोई मेरी चेतना को एक ही रात में जाने क्या-क्या दिख जाता है। परिचित-अपरिचित दुनियाँ भर के लोग, तेज़ी से बदलते दृश्य, कई स्तरों पर चलते-बदलते क्रियाकलाप, देखी-अनदेखी जगहें, पल-पल परिवर्तित घटनाएँ … हाँ, जागने पर सब धीरे-धीरे धुँधलाने लगता है। किसी सुखद सपने को याद करना चाहूँ  तो वह पानी पर बने चित्र की भाँति विलीन हो जाता है, केवल कुछ आकार हीन रंग चेतना की नदी में तैरते रह जाते हैं। ….पर यह तो स्वप्न नहीं है। ठोस यथार्थ है। मैं सफ़र में हूँ, आज वापस दिल्ली लौट रही हूँ, और मेरे मानस-पटल पर सारे दृश्य ऐसे सजीव हैं जैसे अभी घटित हो रहे हों। 

 फ़्रेंकफ़र्ट से दिल्ली की ओर रवाना एयर-इंडिया के इस विमान में आज काफ़ी गहमा-गहमी है। बहुत सारे भारतीय परिवार छुट्टियाँ बिताकर वापस देश जा रहे हैं। कुछ बुज़ुर्ग दंपती हैं, थोड़े चिंतित और उदास… शायद परदेस में बस गए अपने बच्चों से मिलकर लौट रहे हैं। एक नानी अपनी दो नातिनों के साथ है। ये दोनों किशोरियाँ नानी के अनुशासन के नाख़ुश पर उनका ध्यान रखती नज़र आ रही हैं। एक अधेड़ महिला अकेली यात्रा पर है। पहनावे से पंजाब के किसी छोटे शहर की सीधी सरल घरेलू महिला लग रही है। उसकी सुविधाओं का ध्यान रखने की ज़िम्मेदारी एयरलाइन्स के कर्मचारियों पर है। एक परिवार हैदराबाद वापस लौट रहा है। एक दल दक्षिण-भारत का है और बंबई जाने वाले यात्री भी काफ़ी तादाद में हैं। कमोबेश पूरा भारतीय माहौल एअरपोर्ट के प्रतीक्षा-स्थल से ही साथ चल रहा है। मेरे पीछे की सीट पर एक गुजराती परिवार है। माता-पिता, बेटा-बहू और पाँच-छः महीने का शिशु, जिसे उसकी दादी या माँ लोरी सुनाकर सुलाने की कोशिश कर रही है। शिशु यह अकेला नहीं है। आज इस विमान में छह-सात इसी उम्र के शिशु यात्रा कर रहे हैं। नन्हे-मुन्ने भी मिला लो तो कुल सत्रह बच्चे हैं। सबने अपने माता-पिता के साथ-साथ सहयात्रियों को भी जगाए रखने का संकल्प ले रखा है। कुछ रो रहे हैं, कुछ ऊधम मचाना चाह रहे हैं। मुझे तो ख़ैर सफ़र में नींद कम ही आती है, पर कोई सोना चाहे तो असंभव है।

मन पीछे ही नहीं कभी-कभी आगे भी भाग रहा है। बीस दिन बाद घर लौट रही हूँ। परिवार में सबसे मिलने को उत्सुक हूँ। कृतज्ञ भी हूँ सबके प्रति। मेरी अकादमिक यात्रा तो आठ-दस दिन में पूरी हो जाती, पर सबकी सदाशयता का लाभ उठा, मैंने उसकी अवधि दुगुनी कर ली। और इस तरह निर्द्वंद्व होकर मैं वह हो सकी जो होना चाहती थी। अब लौट रही हूँ तो ख़ुद को ज़्यादा समृद्ध महसूस करते हुए, सब को ज़्यादा-ज़्यादा लौटा देना चाहती हूँ, वही ख़ुशी और सुकून जो मैंने हासिल किया। कुंवर नारायण की पंक्तियाँ याद आ रही हैं-

“अच्छा लगता 
बार-बार कहीं दूर से लौटना अपनों के पास
उसकी इच्छा होती 
कि यात्राओं के लिए असंख्य जगहें 
और अनंत समय हो
और लौटने के लिए 
हर समय
हर जगह एक घर”

हाँ, यात्राओं के लिए अभी अनंत जगहें तो हैं। समय भी अगर साथ दे, तो फिर कभी झोला उठा चल देने की अनंत इच्छा भी ज्यों की त्यों है। बचपन के वे दिन याद आ रहे हैं जब पहली-दूसरी कक्षा में पढ़ती एक बच्ची, तख्ती-बस्ता लेकर स्कूल जाती तो हर क़दम यह सोचकर फूली न समाती कि कितनी धरती पैरों से नाप ली है। पहाड़ी की सबसे ऊँची सतह पर स्थित स्कूल पहुँचने के लिए रोज़ रास्ता बदल-बदल कर ख़ुश होती, जैसे कि धरती का वह टुकड़ा उसी ने खोज निकाला हो। पहाड़ियों से घिरा छोटा -सा गाँव था वह.. एक तरफ़ चीड़ और देवदार के जंगल दूसरी तरफ़ खेत और नदी…। नदी पार कर पास के बाज़ार तक सौदा लेने जाती माँ के साथ कभी जाने को मिल जाता तो हैरान होती, कित्ते सारे लोग हैं दुनिया में। एक बार बड़ी बहन के साथ किसी देवस्थल पर जाने का अवसर मिल गया। गाँव से दिखने वाले, दूर के एक पहाड़ के सबसे ऊँचे शिखर पर कोई मंदिर था। एकदम सूनसान और एकांत स्थान पर बना, उपेक्षित सा स्थान… इतनी दूर जाने का सुभीता सब रोज़ संभव नहीं था। साल दो साल में एक बार कुछ महिलाएँ संग-साथ जुटा वहाँ तक जातीं और फूल-बतासे चढ़ा, दिया जला आतीं। तो यह बच्ची भी जब जंगल के टेड़े-मेढ़े रास्तों को पार करती वहाँ पहुँच गयी तो दुनिया का एक सत्य उसे तत्काल ज्ञात हो गया। उस ऊँचे शिखर से चारों तरफ़ के खुले-फैले दृश्यों, ढलानों पर टिके गाँवों, घने जंगलों और दूर-दूर तक दिखती हिमालय की असंख्य चोटियों को देख, विस्मित हो उसके मुँह से निकला, “बाबा रे!! दुनिया कितनी बड़ी है।”  

आज वह बच्ची भी बड़ी हो गयी, दुनिया का काफ़ी हिस्सा पैरों से नाप भी चुकी है, पर वह विस्मय अभी भी बरक़रार है।

आज भी किसी नए शहर में पँहुच यहीं ख़्याल मन में आता है। “बाबा रे! दुनिया कितनी बड़ी है… और कितनी ख़ूबसूरत भी..।”

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नोट- सुधि पाठक इस यात्रा संस्मरण को पढ़ते…

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