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एक और कुआनो

कोहरे की गहरी चादर बिखरी थी  उपर से नीचे तक। न ज़मीन दिख रही थी न आसमान। ये तो नहीं कहा जा सकता कि तापमान हमेशा से ज्यादा गिरा था फिर भी शरीर के भीतर तक की नसें कटकटा रही थीं। कोहरे और सूरज की रोशनी के बीच हररोज़ घमासान होता पर अपने सात घोड़ों की दौड़ लगा कर भी सूर्यदेव कोहरे की मोटी चादर काट कर अपनी किरणों को ज़मीन पर पहुँचा ही न पते थे।हर दिन सूरज की एक किरण को पकड़ पने की जद्दोजहद करता मेरा हाथ ठंडाया ही रहता। कपड़ों की ढेर सी तहें शरीर पर चढ़ा लेती। कार के शीशे बन्द कर देती पर एक बार तो जरूर मन में आ ही जाता

“काश! एक सप्ताह इन्तज़ार कर ली होती। हीटर वाली कार मिल जाती।”    

असल में पिछली बार विदेश से लौटी तो इतने दिन के अलगाव के पश्चात यहाँ के घर से तालमेल बैठाने जैसे भयानक जानलेवा काम में जुटी थी। चलने से पहले इन्टरनेट पर कार का बुकिंग कर दिया गया था फिर भी भारत की ढीली प्रबन्धन प्रकिया में फंसी रही। कार मिलने में देर लग रही थी। हीटर वाली कार के लिए इन्तज़ार का मतलब था सात दिन का इन्तज़ार जो अब बर्दाश्त के बाहर हो रहा था। उधर पिछले पाँच महीनों से छोड़े गये घर की खाइयों को भरने की कोशिश ज़ारी थी जो खासा बोरियत भरी हो गयी थी। दिल्ली जैसे बड़े शहर में टेलिफोन और कार जैसी सुविधाएँ न होने पर लगने लगा था कि जनविहीन जंगल में रह रहे हों। न किसी से बात हो न ही कार के बिना जा सकने की संभावना।

अब ऐसा भी नहीं है। आखिर यहाँ रहने वाले हर व्यक्ति के पास ये सुविधाएँ तो नहीं हैं न ही हर प्राणी इन्हें अफोर्ड कर सकता है। पर... मैं तो बात अपनी कर रही हूँ। वर्षों इन सुविधाओं मैं जीते ये सब जरूरत बन गया है। इनके बिना जीवन का कोई अर्थ ही नहीं रहता।

जल्दी में जो कार मिल पाई थी ले ली थी। फिर तर्क यह भी तो था कि दिल्ली में कौन सा बर्फ पड़ती है कि कार में हीटर की जरूरत पड़े। पर... इस कोहरे भरे मौसम में हीटर याद आ ही जाता था। अब क्या हो सकता था। बीते वक्त को कौन पकड़ पाया है।

अस्तु। बात तो इस समय लोहे से भी मोटी चादर से बिछे कोहरे की थी। मैं जिस रास्ते से जाती थी उसे मुद्रिका सड़क या रिंग रोड कहा जाता था। अजीब ये था कि हम सभी पढ़े अनपढ़ इसे रिंग रोड ही पुकारते थे मुद्रिका सड़क नहीं। असल में तो दूसरी भाषाओं के अनेक शब्द हमारे सिस्टम में इस कदर ज़ज्ब हो चुके हैं कि उनका इस्तेमाल न तो अजीब लगता है न ही उनके पराया होने का एहसास होता है। कुछ ही दिन पहले की ही तो बात है। रिक्शे में बैठी थी। रिक्शे वाले से कहा

“विश्वविद्यालय चलो।”

“जी”   कहते हुए वह कमला नगर से शक्ति नगर की तरफ चल दिया।

मैंने रोका ...

“अरे भाई। इधर कहाँ चल दिये। यूनिवर्सिटी इधर थोड़े ही है।”

“जी....पर आपने पहले यह तो नहीं कहा था।”

मुझे हँसी आ गयी। उसे समझाते हुए बोली

“भइया। यूनिवर्सिटी को हिन्दी में विश्वविद्यालय कहते हैं।”

“अच्छा।”उसकी आँखे फट पड़ी। बोला -

“पर.... हम तो अंगरेजी जानत ना हैं।”

क्या कहती मैं। यूँ तो किसी भी भाषा की समृद्धि के लिए आवश्यक है कि वह अपने भीतर अन्य भाषाओं के शब्दों को समेटती चले अन्यथा उसका जीवित रहना कठिन है पर उन के शब्दों को याद रख कर अपने शब्दों को भूल तो नहीं जाना चाहिए।

बस यही रिंग रोड का रास्ता था जो मैं पिछले छः महीनो से तय करती रही थी। उस ओर कभी देखा नहीं यह तो नहीं कहूँगी पर निगाह के रास्ते से वे कभी दिमाग तक पहुँची ही नहीं। ये कोई पहली बार न था। ऐसी स्थितियाँ हम सभी हमेशा झेलते रहते होंगे। वस्तु हमारे सामने पड़ी रहती है और हम कहीं और खोजते रहते हैं। मेरे साथ तो प्रायः ऐसा होता रहा है। कुछ स्थितियों में डूबती तिरती रही हूँ कुछ से निष्प्रभाव पर कभी वही स्थिति एक अलग संदर्भ में जानलेवा लगी है। ये ना समझ में आने वाला दिमाग कब क्या प्रतिक्रिया दिखायेगा.... क्यों होगी वह प्रतिक्रिया कौन बता सकता है।

विदेश से लौटी तो गाँव का चक्कर लगा था.... चक्कर भर था बस।

कार में भागमभाग। वहाँ रुकना कम हुआ था ट्रेवलिंग टाईम ज्यादा। अब तो नदी पर इतना बड़ा पुल बन गया है कि बस आसानी से गुज़र जाती है।

वहाँ पहुँचते ही बचपन हिलोरें लेने लगता है। .... क्या वक्त होता है वो भी। कच्ची ज़मीन पर जैसे पाँव के पड़े चिन्ह  मिटाने से भी न मिटें।

उस दिन वहाँ का दृश्य देख कर बचपन का गाँव याद आ गया।....  वो कीचड़ सना नदी का किनारा.. वहीं कीचड़ से लथपथ बैठे नंग धड़ंग काले काले बच्चे जो जिन्दा तो इसलिए लगते क्योंकि हिलते डुलते थे चीखते चिल्लाते थे खाने के लिए शोर मचाते झगड़ते थे अन्यथा वे मरियल बीमार ज्यादा लगते। वहीं पास मैं पानी का पोखर ढूँढ कर बैठी उनकी माएँ जो बरतन भी मलती रहतीं कपड़े भी धोती रहती और अपनी शिकायतों का पुलिन्दा भी एक दूसरे को सुनाती रहतीं।

गाँव के नाम पर जो कुछ मुझे याद था वह था..... कीचड़भरे पोखर का बन जाना बाढ़ का पानी  उसमे बूढ़ते घर डूबते गाँव डूब गये जानवर.. उनमें से अनेक की बहती लाशें... जानवर ही नहीं बच्चों व बूढ़ों की लाशें तक भी दीख जातीं। हालांकि अब बहुत कुछ बदल गया था। अब गाँव वैसा तो नहीं रह गया था गाँव मैं बड़ा सा पुल बन गया था जिस पर कार और बड़ी बसें दौड़ सकती थीं। अब पोखर का कीचड़ भी पानी में बदल गया था पर उसे बाढ़ बनने से अब भी रोका नहीं जा सकता था।....  प्रकृति को जीत लेने का नारा लगाने वाले ये मानव क्या कभी समझ पायेंगे कि वह एक ममतामयी माँ की भाँति कुछ वक्त के लिए खेल खेल लेने देती है पर ज्यादती बर्दाश्त नहीं करती।

पिछले दिन ही तो गाँव से लौटी थी। कार उस रास्ते से रोज ही जाती थी पर उस दिन कोहरे की गहन चादर से झाँकती वे दीख पड़ी। मैंने देखा.... बस देखती रह गयी। सोचने लगी कि आखिर वे दो दिन में यहाँ कहाँ से आ गयीं। अभी परसों तक तो नहीं थीं। पर फिर कोई जादू की छड़ी फिरने जैसा कमाल तो हो नहीं सकता। एक साथ... इतनी सारी.... लगभग पचास तो होंगी ही।

पचास साठ झोंपड़ियाँ एक साथ... इस थोड़ी सी जगह में.... एक रात में तो बन नहीं सकतीं। मैं सोचती रही.... मन ही मन तर्क करती रही।

अफसोस हुआ अपनी ‘आवज़र्वेशन’ पर। लोग कहते हैं कि लेखक की दृष्टि बहुत पैनी होती है  जहाँ न पहुँचे रवि वहाँ पहुँचे कवि की उक्ति सुनती आ रही थी। कोनो कुचीलों तक को देख लेने वाली मेरे लेखक की दृष्टि को क्या हुआ। अफ़सोस करती रही। अब मैं उनका जायज़ा लेने लगी थी।

रिंग रोड का ये वो हिस्सा है जहाँ कभी जमुना अपने पूरे प्रवाह और आवेग के साथ बहती थी। आज जमुना नदी की दिशा बदल दी गयी है। आखिर लोगों को रहने के लिए जगह तो चाहिए....   आबादी किस तेज़ी से बढ़ रही है। नदी को पीछे करना पड़े या पहाड़ काटने पड़े क्या फर्क पड़ता है। ये तो हम इंसानो का हक है। हमेशा से मानव प्रकृति को अपने तरीके से अपनी जरूरत के अनुसार तोड़ता इस्तेमाल करता आया है।

रिंग रोड के उस हिस्से में जमुना तो नहीं बच रही थी पर बारिश के पानी के जमा हो जाने के कारण एक बड़ा सा पोखर बन गया था। ये पचास साठ झोपड़ियाँ उसी के किनारे सटी सटी बनी थीं। झोंपड़ियो के बाद काफी लम्बी चौड़ी ज़मीन खाली पड़ी दीख रही थी। उसी खाली ज़मीन को देख कर मन में आया था...

“इन लोगों को झोंपड़ियाँ उस खाली ज़मीन पर बनानी चाहिए थी। यहाँ पानी की गन्दगी कीचड़ मक्खी मच्छरों गन्दगी के बीच रह रहे हैं ये लोग। कोई इन्हें समझाता क्यों नहीं।”

सोचा तो मैंने यही था पर ये भी ध्यान आया कि पानी का पास में रहना जीने की बहुत सी सुविधाएँ भी तो जुटाता है। पानी सारी गन्दगी को धो भी तो देता है। दिन भर के क्रिया कलाप पानी की वजह से ही अंजाम पाते है। पानी न हो तो जियेंगे कैसे?                    

उस कोहरे भरे दिन में झोपड़ियों का झुण्ड किसी हिल स्टेशन पर बनी पेंटिग सा दीख रहा था। मैंने कार का शीशा खोला... दूर तक देखा... चार छोटी छोटी लड़कियाँ थीं.... हाँ वहीं तो होंगी कोई पाँच से सात साल के बीच की। पास में कपड़ों की पांड....  दूसरी ओर बर्तनों का ढेर.... बड़े पतीले... कुकर भी दीख रहा था.....  असल में बर्तनो के रंग ऐसे थे कि पहचानना मुश्किल हो रहा था कि कौन सा बर्तन है। वैसे भी कुछ स्पष्ट दीख ही कहाँ रहा था।

हिलती डुलती  हँसती खिलखिलाती ये लड़कियाँ इतनी निश्चिन्त बेफिक्र मस्त दिखीं कि मुझे सचमुच उनसे हसद होने लगी थी। वे शायद कपड़े धोने और बर्तन माँजने का काम कर रही थीं पर ये तो मेरे लिए काम है। उनके लिए मात्र खेल। इतनी बेफिक्री... इतनी मस्ती.... इतनी निरपेक्षता... मुझे आश्चर्य हुआ। कितनी निरपेक्ष बैठी है ये रिंग रोड पर बहती इन कारों स्कूटरों की नदी से। दूर बहती नदी से उनका वास्ता भी क्या। वो तो पास के उस कीचड़ भरे पानी से सम्बद्ध थीं। आखिर पास का वह पानी ही तो उनको जीने की सुविधाएँ जुटा रहा था। क्या जरूरत थी कि वे दूर की किसी खुबसूरत वस्तु के बारे में सोचती।

दृश्य तो कार के चलने की गति से बदलता है अतः बदल गया। मैंने कार का शीशा बन्द कर दिया। अजब दृश्य था। मन पर छप ही गया था। हटने का नाम ही नहीं ले रहा था। तमाम रास्ता कोशिश कर के भी आँखों के आगे तिरता ही रहा था।

“कैसे हैं ये लोग जो गन्दगी मच्छर कीचड़ बदबू के बीच जी लेते हैं। जी ही नहीं लेते हँस बोल खिलखिल भी कर लेते हैं चैन की नींद सो भी लेते हैं।”

मैंने सोचा पर फिर मन ही मन तर्क भी किया।

“चैन की नींद तो नहीं.... कहाँ सो पता है कोई चैन की नींद मच्छरों और खटमलों से लड़ते हुए.... शायद दिन भर का संघर्ष और साँझ की रोटी कमाने की जद्दोजहद से इतना थक जाते होंगे कि पत्थर भी बिस्तर नजर आता होगा। नींद भी अगर इनको आगोश में न ले तो बिन मौत के मर ही जायें बेचारे।”

मैं सोचती रही थी।

सोच विचार का कोई अन्त नहीं होता। तभी मन मैं यह भी आया“और एक मैं हूँ जो कार में लदी फंदी घर पहुँच कर पस्त पड़ जाती हूँ। तभी तो स्वास्थ्य का ये आलम है कि ज़रा सा चली नहीं कि साँस फूल गया।”

घर आ गया था। थकी माँदी मैं कार से उतर कर घर में घुसी। अहद किया कि आज खाना खा कर सो नहीं रहूँगी... बिस्तर पर पस्त सा गिर नहीं पड़ूँगी। कुछ भी हो खुद को थाम कर खड़े रखने को लिए मन की ताकत की ही तो जरूरत होती है।

अब तो मेरी निगाह हर दिन आते जाते चाहते हुए या न चाहते हुए उस ओर घूम ही जाती थी।

धीरे धीरे कोहरा साफ होने लगा था। झोंपड़ियाँ भी साफ साफ दीखने लगी थीं। अब बह से बच्चों का झुण्ड रेजगा सा इधर उधर बिखरा दीखने लगा था जो हमेशा मुझे गाँव की याद दिलाता। धीरे धीरे जवान होती लड़कियाँ ही नही उनकी माताएँ भी काम करती दीखने लगीं थीं।

अजीब सही पर सच यही था कि अब मेरा अधिक समय उनके बारे में सोचने में कटने लगा था। तमाम रास्ता बीत जाता मुझे पता ही न चलता।

मन मन में अनेक बार कौंध चुका था कि आगे आगे गर्मियाँ आने वाली हैं तब ये लोग क्या करेंगे। पोखर का पानी सूखने लगेगा तो क्या ये अपनी झोंपड़ियाँ उठा कर कहीं और ले जायेंगे। अब मुझे उनकी चिन्ता सताने लगी। फिर सोचा गर्मियों में तो मेरी छुटिटयाँ होंगी मैं इस राह से गुज़रूँगी ही नहीं पता ही क्या चलेगा।

पर.... पर बरसात में जब पोखर भर जायेगा तब... क्या करेंगे ये लोग।

पूरा वक्त अपनी समस्याओं और तनावों से अधिक उन झोपड़ियों के भीतर बाहर की समस्याओं से जूझते हुए बीतता था... मन ही मन। यह दिनचर्या का महत्त्वपूर्ण हिस्सा बन चुका था।

समझ आने लगा था समाज कल्याण के कार्यों का सुखद पक्ष। अनेक आयाम समझ आने लगे थे। एक तो किसी की दुखती रग आराम मिलने पर जिस का जरिया आप बनते हैं उस के मिलने का सुख खुद को अनुभूत होता है।

दूसरा अपनी उपदेयता का एहसास पनपता है!

तीसरा अपने बड़े बड़े दुख छोटे लगने लगते हैं।

और अन्त में दूसरों की समस्याओं से जूझते हुए अपनी बीमारियाँ भूलने लगते हैं।

मैं तो अभी मन के स्तर पर ही उन झोपड़ियों से जुड़ी थी तब भी काम के रास्ते का लम्बा सफर आसान  लगने लगा था। हर दिन मैं खुद से वायदा करती कि कार रोक कर उनके बीच जा बैठूँगी उनकी ज़िन्दगी को समझूँगी.... झोंपड़ियों के भीतर जा बैठूँगी... पर कभी थकावट बहाना बन जाती  कभी वक्त की कमी और कभी गन्दगी और रोगों भरी उस नगरी में घुस पड़ने के लिए हिम्मत ही जवाब दे जाती तिस पर यह भाव भी पीछा नहीं छोड़ता कि कार से उतर कर वहाँ जाते हुए देखकर लोग क्या कहेंगे.... लोग.... कौन से लोग.... कारों में जाते हुए लोग भी और वहाँ झोपड़ पट्टियों मैं बैठे लोग भी। हम भी अजीब मानसिकता के लोग हैं। अपने से ज्यादा दूसरों के कहने न कहने की चिन्ता करते हैं। यह भाव ही अधिक मारक था।

हर दिन वहाँ जाने का अहद करती जो अगले दिन कहीं पलंग के नीचे धराशायी मिलता अगर थोड़ा बहुत दम बच भी रहता तो कार की स्पीड के आगे दम तोड़ देता।

वक्त बीतता गया। गर्मी की इन्तहा हो गयी थी। अब तो एयरकन्डीशन से बाहर निकल कर उन झोपड़ियों जाने की सोचना भी बेबकूफी लगने लगा था। फिर छुट्टियाँ भी हो गयी थी। मैं अपने प्रोग्राम के अनुसार हिल स्टेशन पर चली गयी थी।

मौसमों का क्या। वो किसी की इन्तज़ार में ररुके तो न रहेंगे। बरसात का मौसम आ गया। बरसात भी ऐसी वैसी नहीं मानो बादल फट पड़े हों। पानी हरहरा कर बरस भी रहा था और जहाँ जगह पता भर रहा था। भला पोखर क्यों कर बच पाता। पोखर के किनारों तक आया पानी कहीं और जगह ना पकर झोंपड़ियों के भीतर कब्जा करने लगा था। गाँव के मेरे अनुभव ने अन्दाज़ा लगा लिया था कि कीचड़ भरा पानी उन लोगों की झोपड़ियों मैं इस कदर घुस गया होगा कि उसमें इन्सानों के रहने की जगह बची ही न होगी। मुझे पता था कि अब उनकी एकमात्र चारपई ईंटों लगा कर ऊँची कर दी गयी होगी। एकमात्र ट्रंक जो टूटा फूटा भी होगा और जंग लगा भी तथा कुछ गिने चुने बर्तन उस पर रख दिये गये होंगे ताकि उन्हें बचाया जा सके। आखिर पूँजी को बचाना तो जरूरी था। पूँजी....  ये शब्द मेरे ज़ेहन में घूमता रहा था। पूँजी की परिभाषा सबके लिए कितनी अलग अलग होती है। पूँजी उसे ही तो कहा जायेगा जिससे मानसिक तथा शारीरिक सुरक्षा जुड़ी हो और वह सबकी अलग अलग ही होगी।

इन झोपड़-पट्टी में बसे लोगों की मानसिक व शारीरिक सुरक्षा इन चन्द बर्तनों और चिन्दी चिन्दी कपड़े ही हैं तो बस हैं। ईंटों पर रख कर ऊँची की गयी चारपाई उस पर फैले ट्रंक पेटियाँ या पोटलियाँ कुछ काले कुछ साफ बर्तन कुछ खिलौने  कुछ सजने सजाने के वस्तुएँ.... शीशा बिन्दी टिकली मेंहदी की पुड़िया कंघी जो अवश्य ही जुएँ बीनने को काम आती होगी... और एक अलगनी जो नाड़े बाँध कर उसी समय बाँध दी गयी होगी जिस पर बाकी सब कपड़े टाँग दिये गये होंगे। इन सब की मैंने कल्पना कर ली थी। बचपन में यही सब तो देखा था।

अब औरतें और बच्चे बाहर सड़क के पास की ऊँची जगह पर बैठे दीखते। वहीं ईटों का चूल्हा बना कर पेड़ की सूखी टहनियाँ जो बच्चे तोड़ और बीन लाते पर दाल उबलने रख दी जाती। उधर दाल खदकती रहती इधर वे सब गपियाती रहतीं। उन बातों के बीच ही कभी पुरानी किसी बात की याद उनके जेहन में उबाल ला देती और हाथ झटका कमर और कूल्हे मटका मटका झगड़ा शुरू हो जाता। वहीं बैठ कर बच्चों की जुएँ बीनती उन औरतों का गुस्सा बच्चं र निकलता। वे उन्हें धमाधम पीटतीं और इस प्रकार अपने गुस्से का विरेचन करतीं। वहीं परस्पर लड़तीं लडियाती। पास में चारपाई बिा कर बैठी कोई दियासलाई सिगरेट बीड़ी... खट्टी मीठी गोलियाँ तथा घर की कुछ जरूरी चीज़ें रखकर बैठी कुछ बेचा कुछ कमाया कुछ खाया        इस तरह चल निकली गृहस्थी।

मुझे याद आते उस कहानी के पात्र जो बाढ़ आने पर एक जजीरे मैं फंस जाते हैं। ये जानते हुए भी कि हर किसी का अन्त मौत है वह भी इसी जजीरे पर फिर भी किसी दूसरे की जरूरत की वस्तु को कई गुणा दाम बढ़ाकर बेचते रहते हैं। ये लोग शायद उन से अच्छे थे। कम से कम लूट लेने की हद्द तक तो नहीं पहुचे थे। इस प्रकार इन झोंपड़ीनुमा घरों में रहने वालों की भीतरी ज़िन्दगी के सभी दृश्य बाहर सड़क पर आ गये थे।

पेाखर के दूसरे किनारे पर का भाग कुछ ऊंचाई पर था पर पानी से दूर.... दूर भी नहीं कहा जा सकता.... बस थाड़ा सा नीचे ढलान पर उतरो तो पानी था जो हो सकता है आजकल बरसात की वजह से हो। बहुत गर्मी पड़ी नहीं कि सूख जाता होगा। शनिवार रविवार को मैं निकली न थी। सोमवार को वहाँ से गुजरी तो देखा उस ऊँचाई पर अचानक कुछ झोपड़ियाँ उग आईं थी। सड़क के किनारे के दृश्य एक ही दिन में उन के भीतर चले गये।

मैंने हमेशा जाना था कि बरसात का आना फसल के लिए अच्छा होता है.. फिर लू गर्मी से छुटकारा भी मिलता है... बीमारियाँ कम होने लगती हैं.. लू लग मरने वालों की संख्या में गिरावट आने लगती है हालाकि यह भी कैसे भुला दूँ कि बाढ़ में होने वाले जान माल का भी कोई हिासाब किताब नहीं है। अब ये ख्याल सताने लगा था कि इन झोंपड़ी में रहने वालों के लिए ये ठंडक पहुँचाने वाली बारिश इनके लिए घर निकाला साबित हुई थी। ऐसा लगने लगा था कि मैं अपनी दिनचर्या और कोहरे की घनी छाई चादर से निकल कर उन लोगों के बीच जा बैठी हूँ तथा उनकी ज़िन्दगी से बाबस्ता होने लगी हूँ।

पोखर जिसे मैंने अपने गाँव की नदी ‘कुआनो’ का नाम दे दिया था अब उसके दूसरी ओर मारूति कार की गति से झोंपड़ियाँ बनने लगी थीं मानों वे गाँव को छोड़कर शहर की ओर का सफर कर रही हों। पानी में डूबती भीगती गलती झोपड़ियों की इस्तेमाल की जा सकने वाले सभी हिस्से दूसरी ओर चले गए थे।जो बच रहा था वहा सड़ा गला और निर्रथक था जिसे काट देना आवश्यक हो उठा था। एक अच्छे सर्जन की भाँति ये काम बखूबी किया था। वर्तमान में जीना कोई इनसे सीखे। ये लोग तो निरन्तर एक युद्ध जीते हैं एक बाढ़ झेलते हैं और तूफानों और भूस्खलन का सामना करते रहते हैं। हम लोग तो कट ही नहीं पाते इसलिए तो सभी मानसिक तनावों को झेलते रहते हैं।

सचमुच मैं उनकी वर्तमान में जीने की कला से खासा मुत्तास्सिर हुई थी। पर फिर ये भी सोचा कितनी जद्दोजहाद भरी ज़िन्दगी जीते हैं लोग  कितना कठिन था उनकी कठिनाइयों का एहसास करना।

उस दिन मौसम खुशनुमा था धुले पुंछे पत्ते ठंडी ठंडी बयार मन तन में खुशी सकून और ठंडक छाई थी। कार की खिड़कियाँ खुली थीं। मैं समूची मौसम में डूबी बैठी थी। आत्मा तक लबालब भरी थी। ढेर सी यादें कुलबुलाने लगी थीं। न पोखर याद रहा न झोंपड़ियाँ न इन लोगों का घर निकाला न उनका तनाव दुख न अपनी बीमारियाँ डिप्रेशन दवाइयाँ कुछ भी याद न रहा। ये सिर्फ़ मौसम का असर तो नहीं हो सकता।.... इतने दिनों उनके दुखों दिक्कतों तनावों में मैं इस कदर रमी थी कि मेरे मस्तिष्क की हर समय तनी रहने वाली नसें भी शान्त हो गयी थीं। हर शाम होने वाला सिरदर्द भी अब ना होता था। घर पहुँचती तो अब थक टूट कर चूर चूर हो कर न गिर पड़ती थी। योग और प्राणायाम करने जैसा प्रभाव पड़ा था। इसे ही स्व से पर हो जाना कहते हैं शायद।

आज मुझे गाँव की नदी का कीचड़सना तट याद नहीं आया न ही वहाँ की गन्दगी का कूड़ा दीखा न ही पेट बाहर निकाले मरियल बच्चे दिखे, खाँसते बूढ़े फटी धोती से शरीर लपेटने की असफल कोशिश करती काम में जुटी गृहणीयाँ.... बचपन की वह सारी गन्दगी धुल पुंछ गयी थी। बच रही थी बस इन लोगों के भीतर की जीजिविषा जो मुझे भी जिलाए रख रही थी।

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