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एक और 'निराला'

कल सुबह उसके रिक्शे पर चकोर बैठे थे। अंदर तक बेंधने वाली ठंड में उसके शरीर पर सिर्फ़ जीर्ण-शीर्ण कुर्ता-पाजामा देख उन्हें बहुत दुःख हुआ। घर पहुँचते ही उन्होंने ‘ग़रीब की मजबूरी‘ शीर्षक से एक कविता लिखी और दुनिया को अपनी संवेदनाओं और सरोकारों से अवगत कराने के लिए उसे तत्काल फ़ेसबुक पर पोस्ट कर दिया।

आज सुबह उसी रिक्शे पर एक दूसरे सज्जन बैठे। उनको भी ग़रीब रिक्शे वाले के कपड़े देख दुख हुआ। अचानक उन्हें हिंदी के महान कवि और ग़रीबों के सच्चे हमदर्द स्वर्गीय श्री सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला‘ की याद आई और उन्होंने तुरंत रिक्शा रुकवाया। फिर अपने सूटकेस से एक ऊनी शॉल निकाली और  उसकी ‘ना नुकर ‘ के बावजूद ठंड का हवाला देकर उसे ओढ़ा दी।  

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