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एक छद्म इंटरव्यू

(मेरी सद्य प्रकाशित व्यंग्य रचनाओं की किताब “गड़े मुर्दों की तलाश” को टार्गेट कर लिया हुआ एक इंटरव्यू)

एक दिन एक छद्म जी मेरे घर आये। मैं अपरचित से मुख़ातिब होता, इससे पहले उन्होंने अपना परिचय दिया। 

“आप मुझे नहीं जानते मैं इस शहर का उभरता हुआ पत्रकार हूँ। आपकी गिनती, सुना है, ठीक-ठाक व्यंग्य लिखने वालों में होनी शुरू हो गई है। मुझे उभरते हुए लोगों को प्रोत्साहन देने का पता नहीं क्यों, एक जुनून सा सवार रहता है। मेरी पत्रकारिता की बदौलत, लोग खेलने–खाने, गाने-बजाने, मजमों-मजलिसों के बीच चर्चा करने लायक़ हो जाएँ तो, मैं अपनी लेखनी को धन्य मानने की कसौटी-सा देखना चाहता हूँ,” वे एक साँस में अपनी झाँकी टिका गए।

मैंने कहा, “मुझे भी तुम जैसे उभरते पत्रकार को इंटरव्यू देने में प्रसन्नता होगी…!”

मैंने पहले परिचय के ‘आप’ वाली दुविधा से बाहर निकलना वाजिब जानते हुए, उससे अपनापा ज़ाहिर किया। माहौल इससे बेझिझक कंट्रोल में रहता है। 

“हाँ तो छद्म जी आप शुरू हो सकते हैं...”

“लेखक जी, आप कब से लिखना शुरू किये...”

मैंने कहा, “यही कोई छह साल की उम्र रही होगी, पहले ज़माने में स्लेट और खड़िये की क़लम होती थी, प्राइमरी में दाख़िले की उम्र उन दिनों यही होती थी। आज जैसे केजी 1, 2, प्री केजी का ज़माना नहीं था, नहीं तो पहले भी शुरू हो सकते थे…!”

छद्म जी झेंप गए, पहला प्रश्न ही नो-बालनुमा बौडी क्रॉस हो गया।

उसने कहा, “मतलब वो नहीं, साहित्य लेखन..., यदि आप जो लिखते हैं, उसे साहित्य कहते हैं तो… वो कब से शुरू किया....?”

मैंने कहा, “छद्म जी अभी हम बड़े रचनाकार हुए नहीं। आप लेखा-जोखा लेकर क्या करेंगे....? यूँ भी आप जानते हैं, कालिज के दिनों में लगभग हर लेखक की लेखनी में ‘चिल्पार्क वाली स्याही’ बख़ूबी डाली जाती थी। डाटपेन, कम्प्यूटर वाला युग तो बहुत बाद में आया।” 

“रचनाकार जी, आप किस-किस विधा में लिखते हैं...? सबसे ज़्यादा पसंद क्या है, यानी कौन सी विधा है....?”

“यूँ तो हम साहित्य की हर विधा जानते हैं… मतलब ये नहीं कि पारंगत भी हों... नई बात रखने की हरदम कोशिश होती है। ग़ज़ल-गीत में बरसों से आज़माए शब्द, मौसम, सावन, पतझड़ से निजात पाना चाहते हैं। लोक कला के नाम पर, आये दिन महतारी महिमा, आस-पास के गाँव-देहात, दर्शनीय स्थल से छत्तीसगढ़ी साहित्य भरपूर हो गया है उसे नये प्रतिमान नई सोच और नये शब्द भंडार देने की ज़रूरत महसूस होती है। हिंदी शब्दों का देशी ‘परयोग’ ‘परयाप्त’ मात्र में ‘पराप्त’ होते हैं। इससे न छत्तीसगढ़ी का भला होगा, न निखार आयेगा। दुरुस्त हिंदी भी भटकती दिखेगी।”

“. . .आपने व्यंग्य को ख़ास तवज्जो दी इसकी वजह...?”

“हाँ, मैंने व्यंग्य में रुचि दिखाई है, इसकी वजह ये है कि इसमें लेखक को बड़ा केनवास मिलता है... केनवास समझते हैं न...? यानी अपनी अभिव्यक्ति के लिए पर्याप्त ‘थ्री बी.एच.के.’ टाइप सुविधा... अब एक आम लेखक को ‘अटलानटिका टाइप’ मुंबई के आलीशान अकोमोडेशन से क्या लेना देना....? आमजन की भाषा आमजन-ज़ुबानी आमजन तक पहुँचे तो लिखने और पढ़ने वाले, दोनों को आनन्द देता है...? समझे आप ...?”

“आपने अपने व्यंग्य की किताब में कौन से इशू उठाये हैं ...?”

मैंने कहा, “मेरी किताब में किसान है उसकी त्रासदी है (समान से गिरे), भरोसे के आदमी की तलाश है, नास्त्रेदमस के नज़रिये भूत-भविष्य कथन है, कुछ वाह-वाही के चक्कर में आ बैल मुझे मार की दावत देते लोग हैं। राजनीति को क़रीब से जानने की ज़हमत में लिखी आवारा कुत्तों का रोड शो, टोपी आम आदमी की, नान ऑफ़ द एबव, रोड शो हाईकमान और मैं, ये तेरी सरकार है पगले, जैसी रचनायें हैं।

“लाईट मूड और फेंटेसी को बरक़रार रखने की कोशिश में, डागी को मुझपे भौकने का नइ, नाच न जाने, कद नापने के तरीके जैसी रचनाएँ लिखी गई हैं।” 

“सर अपनी शीर्षक रचना गड़े मुर्दों की तलाश पर प्रकाश डालें.....?”

“अच्छा प्रश्न है, बात ये है कि राजनीति में एक वैचारिक शून्यता अचानक उत्पन्न हो गई है। अब मुद्दे पर कोई बात करने को राज़ी नहीं, कोई हिम्मत से मुद्दे उठा ले तो, उस मुद्दे उठाने वाले की शामत समझो. . . उनकी पीढ़ियों पीछे के, गड़े मुर्दों को खोद कर प्राण फूँकने की कोशिशें होती हैं. . .आगे विस्तार की आवश्यकता. . . मैं समझता हूँ नहीं है. . .।”

“लेखक जी आपने अनेक नये-नये सब्जेक्ट पर व्यंग्य निर्वाह किया है, पत्नी की मंगल परीक्षा, शिष्टाचार के बहाने, अधर्मी लोगों का धर्म संकट या मंगल ग्रह में पानी इत्यादि आप ये खुराक कहाँ से पाते हैं ...?”

“छद्म जी, आपसे क्या कहें, व्यंग्यकारों को लिखने का सारा मसाला एक ज़माने में राजनीति के उठा-पटक से, आप ही सुलभ हो जाता था। उसका लिखना, आजकल लगभग, ‘कोई बुरा न मान जाए” की दहशत में, गर्त में है।” 

“लेखक जी आख़िरी सवाल! आजकल इंटरव्यू की परंपरा है, खाने–पीने की सुध ली जाती है, हमें बता सकते हैं आप ‘रायता’ कितना फैलाते हैं...?”

“छद्म जी, मेरे लिखे को आप ’रायता-फैलाना’ कहते हैं, तो मैं चाहूँगा, मेरे फैलाए रायते से, पूरी प्लेट भरी रहे, जिससे ‘बचे’ को चाटने वालों को भरपेट कुछ तो मिले…! धन्यवाद…!!”
 

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