एक ख़्वाब
काव्य साहित्य | कविता कुमार शुभम15 Nov 2020 (अंक: 169, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
देखा था एक ख़्वाब
जो मेरा नहीं था।
बनना था नवाब
सब बिलकुल सही था।
पर पैरों में था दबाव, जो मेरा नहीं था।
फिर क्या था
ना आगे बढ़ा ना पीछे, अटका रहा बीच में
सुर्ख़ियाँ बटोरी ऊपर नीचे, पर अटका रहा बीच में।
हताश बेहाल जा बैठा किसी मज़ार पर
की कोई दे दे "रस्ते" की भीख
और मैं भी चल पड़ूँ आँखें मीच
सोचा . . .
ये काम क्यों मैं कर रहा
क्यों कुछ खोने से डर रहा
क्या मिला है बिना कुछ खोये
मंज़िल को आकर महारथी भी रोये
क्यूँकि मिलता नहीं आसानी से
चाहे काम भी किया जवानी से
जबतक मैल न देखा अंदर का
और धो न डाला पानी से
मिलेगा जबतक तुम्हें ये रहस्य
तड़पोगे जैसे जल बिन मतस्य
पर जिस दिन तुम्हे वो मिलेगा
काल्पनिक चादर वो तुम्हारी सिलेगा
तुम भी जान जाओगे सारे जवाब
और उस दिन बनोगे तुम असली नवाब।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं