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एक शब्द – किसी अँचल में प्यार की अभिव्यक्ति तो किसी में गाली

प्रिय मित्रो,
                   पिछले दिनों एक कहानी में एक शब्द के अर्थ को लेकर मन में प्रश्न उठा कि इस शब्द का वास्तविक अर्थ क्या है? बहुत दिनों से कहीं यह शब्द पढ़ने-सुनने को नहीं मिला था तो इस शब्द की ओर ध्यान आकर्षित होना स्वाभाविक था। हो सकता कि लेखक के अँचल में दैनिक भाषा में यह शब्द प्रचलित हो, परन्तु मेरे लिए यह अजीब सा शब्द था। पुराने साहित्य में कई बार यह शब्द पढ़ा भी था। शब्द है "पाजी"; कहानी में पिता अपनी पुत्री के बारे में बताता हुआ इस शब्द का प्रयोग करता है। शब्दकोश में  पाजी का अर्थ है दुष्ट, लुच्चा, खोटा, कमीना। अब मेरे लिए इस वाक्य को पचा पाना असंभव हो गया। लेखक से बात की तो न केवल उन्होंने अपने अँचल में इसके प्रयोग की दलील दी बल्कि मुंशी प्रेमचन्द के उपन्यास का संदर्भ दिया - अगर उपन्यास सम्राट इस शब्द का प्रयोग कर सकते हैं तो वह क्यों नहीं? उनकी दलील में भी दम है। क्योंकि आजकल साहित्यिक हिन्दी भाषा में आँचलिक शब्दों की भरमार हो रही है और कहा जाता है कि इससे भाषा समृद्ध होती है। अब प्रश्न यह उठता है कि साहित्यिक भाषा की शुद्धता क्या है? आँचलिक बोलियों से आए शब्द एक समस्या खड़ी कर देते हैं, क्योंकि कहा जाता है कि बोली तो हर दस कोस के बाद बदलती है। तो क्या साहित्यिक भाषा भी हर दस कोस के बाद बदलेगी?

हिन्दी प्रेमी चाहते हैं कि हिन्दी भारत में सम्पर्क भाषा बने। भारत के कोने कोने में हिन्दी भाषा बोली जाए, समझी जाए। हम आँचलिक बोलियों या भाषाओं का स्थान नहीं लेना चाहते बल्कि इसे एक सेतु भाषा के रूप में देखना चाहते हैं ताकि भारतीय एक दूसरे को, एक भारतीय भाषा में समझ सकें। अँग्रेज़ी चाहे जितनी भी प्रचलित हो जाए भारत में किसी भी भारतीय भाषा का स्थान लेने में अक्षम है। भाषा की नींव स्थानीय संस्कृति, दैनिक क्रिया-कलाप, इतिहास, धर्म और आस्था पर टिकी होती है और भाषा का जन्म भी इन्हीं की कोख से होता है। बोलियों का जन्म भी आँचलिक स्तर पर उपरोक्त नींव पर ही टिकता है। स्थानीय संस्कृति सूक्ष्म स्तर पर प्रत्येक अँचल में अनूठी होती है। दैनिक क्रिया कलाप स्थानीय भूगोल से लेकर आर्थिक, ऐतिहासिक और सामाजिक वास्तविकताओं द्वारा संचालित होता है। एक ही धर्म विभिन्न अँचलों में विभिन्न हो सकता है और आस्था तो होती ही व्यक्तिगत है। अगर आप मेरे इन तर्कों से सहमत हैं तो आपको इस निष्कर्ष पर भी सहमत होना पड़ेगा कि आँचलिक शब्दों को साहित्यिक हिन्दी में मान्यता दिये जाने से पहले हिन्दी के भाषाविदों की स्वीकृति अनिवार्य होनी चाहिए। अँग्रेज़ी भाषा में यह प्रक्रिया सुनिश्चित है और लगभग एक हज़ार शब्द प्रति वर्ष भाषा में स्वीकार किए जाते हैं और शब्दकोशों में स्थान पाते हैं। 

क्या हिन्दी में भी ऐसा होता है - मुझे नहीं मालूम। क्या हिन्दी भाषा की समृद्धि के लिए कोई प्रक्रिया सुनिश्चित होनी चाहिए – यह हिन्दी के लेखकों और पाठकों पर निर्भर करता है कि वह इसे सार्वजनिक चर्चा का विषय बनाते हैं कि नहीं। साहित्य कुञ्ज आपका अपना मंच है और आप इसका भरपूर उपयोग कर सकते हैं।

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