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एकांत का अंत 

एक घंटे से अधिक समय बीत चुका था। यह अहसास अब और भी गहराने लगा कि सचमुच मैं ऐसी जगह पर हूँ जहाँ होना तो चाहता था लेकिन अभी तक पहुँच नहीं पाया था। अब मैं और मेरे बीच किसी क़िस्म का कोई व्यवधान न बचा था। न ही कोई दूरी रही थी। मेरे पास सिर्फ़ मैं था। मैं सिर्फ़ स्वयं पर केन्द्रित था। स्वयं को ही महसूस कर सकता था, बस। मैं और मेरा स्वयं अलग न होकर एकरूप हो चुके थे। मेरी अस्मिता को भंग करने का यहाँ न कोई ज़रिया था, न ही कहीं लिप्त होने की मेरी कामना बची थी।

मैं एकांत के बीच था। अंतरतम तक एकांत में डूबा।

मुझे मालूम न था कि एकांत का बसेरा यहाँ है। न ही उसकी तलाश में मैं यहाँ आया था। वह तो बस संयोग से ही मेरे हाथ ऐसे लग गया जैसे चिर आकांक्षा के बाद इच्छित वस्तु योग्य पात्र जानकार आपके सामने रख दी गयी हो- बिना कोई पूर्व सूचना दिए। लेकिन कितना लम्बा सफ़र तय करना पड़ा मुझे इस तक पहुँचने के लिए और कहाँ आकर यह हासिल हुआ! दिल्ली से एथेंस, एथेंस से लगभग पाँच सौ किलोमीटर की दूरी पर हरहराते समन्दर के बीच घिरे रोड्स टापू पर और टापू पर बसी बस्ती से निकलकर आसमान के पास टँगी ओलिम्पस पहाड़ की चोटी पर।

एथेंस की चकाचौंध में चार दिन बिताने के बाद जब मैं रोड्स पहुँचा, तभी मुझे इस जगह की विलक्षणता का अहसास होने लगा था। इस टापू की ज़मीन का पहला स्पर्श ही जैसे बाक़ी दुनिया से विछिन्न और अनासक्त करके किसी ऐसे रहस्यलोक में ले जाने वाला था जहाँ हर चीज़ का नया अर्थ खुलता है। लिंडोस और कमिरोस – यहाँ वे दो पुरातन नगर अभी भी बसे थे जहाँ तीन हज़ार साल पहले ग्रीक सभ्यता विकसित हुई। रोड्स पर कब्ज़ा करने के लिए अनेक युद्ध हुए थे। कभी यह ऑटोमन साम्राज्य के अधीन हुआ तो कभी यहाँ इटली का शासन रहा और अंतत: स्वतंत्र होकर यह फिर से ग्रीस के अधिकार क्षेत्र में आया। इसलिए प्राचीन काल से लेकर रोमन काल और ऑटोमन साम्राज्य से आधुनिक काल – हर काल की वास्तु शैली के चिन्ह इस टापू के एक सिरे से दूसरे सिरे तक मौजूद थे। यह परिदृश्य दैनिक व्यस्तताओं, चिंताओं और आकाक्षाओं के जाल को काट कर, गुज़र चुके तथा आने वाले काल के बीच इस तरह खड़ा कर देता था कि दोनों को नज़र भरकर देखा जा सके। कालातीत ओलिम्पस पहले दिन से ही मुझे बुला रहा था कि मैं आऊँ और उसके छिपे रहस्यों में झाँकूँ। एथेंस से चलते समय मेरे मित्र दिमित्रिस ने बताया था कि पहाड़ पर प्राचीन अपोलो मंदिर, एक स्टेडियम और थियेटर भी है। ओलिम्पस के बुलावे को मैं अब और न टाल सकता था इसलिए रोडीन नेशनल थियेटर में आज सुबह की फ़िल्म का शो देखने के तुरंत बाद यहाँ के लिए निकल पड़ा था।  

पहाड़ पर ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी का एक्रोपोलिस था। मेरे आगे-पीछे, अगल-बगल, दूर-दूर तक – जहाँ तक भी नज़र जाये, कोई प्राणी-परिंदा न था, कहीं कोई जीवित देह न थी, किसी जीव-जानवर का स्वर तक न था। समूची दुनिया से कटा मैं यहाँ अकेला बैठा था। अपोलो मंदिर के भग्न अवशेषों के बीच, जो मेरे आस-पास बिखरे थे। साफ़ नीला आसमान बिलकुल क़रीब था और बस्ती कई किलोमीटर नीचे, जिसकी भनक तक यहाँ नहीं लग रही थी। इस सृष्टि का मैं एकमात्र दर्शक था।

मंदिर के खंडहर सीपिया रंग की धूप में स्थिर खड़े थे। उनकी आड़ी-तिरछी छायाएँ मेरे अगल-बगल छिटकी थीं। पत्थर के स्तंभ, चबूतरे, टूटी मेहराबें… यह हाशिया पुरातन ग्रीक संस्कृति के प्रतीक चिन्ह के रूप में जैसे आसमान पर अंकित था। पूरा ढाँचा ऐसा आभास दे रहा था जैसे किसी योद्धा के अंग-अंग काट दिये गये हों लेकिन फिर भी अपराजित मुद्रा में वह अडिग खड़ा हो। उसी तरह अनश्वर जैसा कि ग्रीक और रोमन मिथकों में अपोलो का स्थान है। उसे प्रकाश, ज्ञान, संगीत और सच्चाई का देवता माना गया है जिसके कारण ही इस संसार का कोई सत्व है! अपोलो का निवास इसी ओलिम्पस पहाड़ पर था। इस समय मैं उसी के निवास स्थान पर उपस्थित था।

एकांत, लेकिन शून्य में नहीं होता। एकांत की रचना के लिए भी कुछ चीज़ों की उपस्थिति ज़रूरी होती है – यह भेद भी मुझे यहीं पहुँच कर ज्ञात हुआ। ऐसी चीज़ें, जिन्हें महसूस तो किया जा सके, लेकिन स्वयं को उनसे जोड़ न पायें। ऐसी चीज़ें, जो मनुष्य की मूल प्रकृति से बेमेल हों। अचल, निर्वाक, निर्जीव! जो अपनी उपस्थिति से ऐसी अनुपस्थित चीज़ों का अहसास करवायें कि स्वयं के एकाकी होने का बोध होने लगे। जैसे आकाश में जड़ा मंदिर का ढाँचा, भग्न स्तंभ, पहाड़ की काली-भूरी-पथरीली सतह, गहरी-घनी छाया-आकृतियाँ और आस-पास मँडराती निर्जनता की गूँज...

हालाँकि आस-पास और दूर-दूर तक कोई जीव तो न था, फिर भी बहती हवा की साँय-साँय से मुझे ख़्याल आया कि मेरा सोचा हुआ परिदृश्य एकांत रचने के लिए एकमात्र उपाय न था। ऐसा नहीं था कि एकांत की माँग सिर्फ़ वही पूरी करता हो। यहाँ फैले खंडहर बेशक अचल, निर्वाक, निर्जीव थे, चारों तरफ निर्जनता का विस्तार था, लेकिन अगर कोई परिंदा अचानक यहाँ आकर चहचहाने लगे, तो सम्भवतः उसकी उपस्थिति और चहचहाहट एकांत को भंग करने की बजाय और भी घनीभूत कर दे। 

बहरहाल, मुझे वह मिल गया था। उसके बसेरे के बीच था मैं – उसकी अनुभूति से सराबोर। सब बंधनों-आवरणों से मुक्त। आकर्षण-अपकर्षण से दूर। कोई समय सीमा न थी, किसी विघ्न-बाधा का अंदेशा न था। सूरज आसमान में अटके स्तंभों तक आ गया था। बिलकुल क़रीब, फिर भी इतना शांत और शालीन, जैसे नीचे बहते समंदर में गोता लगा कर आया हो और उसकी सारी प्रचंडता वहाँ धुल गई हो। अब वह सिर्फ़ शुद्ध प्रकाश प्रवाहित कर रहा था- चारों ओर। उजला, आत्मीय और प्रगाढ़! सच ही इस जगह को सूर्य का टापू कहा जाता है। इसे यूरोप के सबसे अधिक प्रकाशमय स्थान के तौर पर भी जाना जाता है।

कुछ समय बाद, इस परिदृश्य में, मैंने स्वयं को उन सीढ़ियों की ओर जाते हुए पाया जो पहाड़ की गोद में बने स्टेडियम तक पहुँचती थीं। चौड़ी शिलाओं से अर्धवृताकार में बनी बीस-पच्चीस सीढ़ियाँ थीं। तल में पथरीली दीवारों से घिरा खुला प्रांगण था। तो यह था वह प्राचीन स्टेडियम! मैं हौले-हौले क़दम रखता सीढ़ियाँ उतरने लगा। वे वैसी ही थीं, जैसी कि हज़ारों साल पहले रही होंगी। लेकिन वे दर्शक कहीं न थे, जो इन पर बैठकर खेल प्रतियोगिताएँ देखा करते थे। खाली प्रांगण भी भाँयें-भाँयें कर रहा था। हवा की गूँज यहाँ बढ़ गयी थी। सीढ़ियों से तेज़ रफ़्तार फिसलती हुई वह प्रांगण में दौड़ लगाती और स्टेडियम की दीवारों को थपथपाती, अठखेलियाँ करती हुई घुमड़-घुमड़कर ऊपर की तरफ उड़नछू हो जाती। उसने कई बार मुझे सहलाया, सिर के बालों से खिलवाड़ किया, कपड़ों को झकझोरा, लेकिन बिना विचलित हुए मैं वहाँ इस तरह खड़ा रहा, जैसे कि सीढ़ियों पर बैठे दर्शक मेरा करतब देखने की प्रतीक्षा में हों। 

कैमरा निकाल कर मैं सीढ़ियों पर बैठे अदृश्य दर्शकों की तस्वीरें खींचने लगा। स्टेडियम खचाखच भरा था। दर्शक उतावले थे। खिलाड़ियों को प्रोत्साहित करने के लिए उनके नाम लेकर पुकार रहे थे, ताली बजा रहे थे। प्रतियोगिता बस शुरू होने ही वाली थी लेकिन वे अधीर हो रहे थे। कई कोणों से उनकी तस्वीरें लेने के बाद मैं सीढ़ियों पर उनके बीच जा बैठा और उस स्थल की तस्वीरें लेने लगा, जहाँ से वे मुझे देख रहे थे।

एक तस्वीर लेना मैं भूल गया था, इसलिए फिर से सीढ़ियाँ उतरकर नीचे आया और प्रांगण की दीवार की ओर बढ़ा। इस कोने से प्रांगण की पूरी लंबाई को दर्शाती एक तस्वीर मैं लेना चाहता था। इस लंबाई से ही इस स्थान का नाम था – स्टेडियम। छह सौ मानव पैर के बराबर की लंबाई। ग्रीक भाषा में स्टेडियन या स्टेडियाँ – जो लंबाई का माप था। स्टेडियन केवल दौड़ प्रतियोगिताओं के लिए ही होते थे। तस्वीर लेकर मैं अपने क़दमों को गिनता हुआ दूसरे कोने की ओर बढ़ने लगा।

स्टेडियम से निकल कर मैं फिर से ऊपर पहुँचा तो सूरज का रंग कुछ बदल चुका था। वह और आत्मीय, और स्नेही लगने लगा था। मैं उसके इस सौजन्य का रस ले ही रहा था कि तभी मुझे खटका-सा लगा। अजीब बात थी कि यकायक मुझे उसकी आत्मीयता के पीछे किसी षड्यंत्र का-सा आभास हुआ। मैं चौंका। क्षण भर में ही मेरी मन:स्थिति बदल गयी। अब तक मैं जिस अनुभूति से सराबोर था, एक झटके से उससे अलग हो गया। जैसे किसी केंचुल में से रेंग कर मैं बाहर आ गया।

मेरे एकांत में विघ्न पड़ गया था। सब कुछ वैसा ही तो था चारों तरफ़। लेकिन एकांत होते हुए भी उसकी रंगत बदल गयी थी। उसकी चिकनी सतह से मैं फिसल चुका था। अब तक वह मेरी मुट्ठी में बंद था, अदृश्य, लेकिन बिलकुल क़रीब। अब मेरी मुट्ठी खुल चुकी थी। यकायक मैं खाली हाथ था।

मैंने समय देखा। देश बदलने से समय का अर्थ भी बदल जाता है। वह उस तरह का नहीं रहता, जिसे हम पहचानते हैं। फिर मैंने आसपास फैली रौशनी को निहारा और उसी से अंदाज़ा लगाने की कोशिश की कि कितनी देर तक इस ऊँचाई पर वह छितरी रहेगी और किस रफ़्तार से सूरज यहाँ से नीचे उतरेगा। यह ज़रूरी था कि सूरज से पहले मुझे नीचे उतर कर बस्ती तक पहुँच जाना चाहिए। अन्यथा...

लेकिन जल्द ही खटके से मैं उबर भी गया। स्वयं को मैंने समझा लिया कि इतना सतर्क होने की ज़रूरत नहीं है। अँधेरा घिरने से पहले मैं नीचे तक पहुँच ही जाऊँगा। इस वीरान जगह पर अकेला अँधेरे में अटका नहीं रहूँगा। और तभी मेरा ध्यान इस ओर गया कि देखते-देखते एकांत मेरे लिए अब वीराना बन गया था। एकांत से निकल कर मैं वीराने में प्रवेश कर चुका था। इस रूपान्तर का ही असर था कि मैंने यह तय किया कि मुझे जल्द वापिस चल देना चाहिए।

पहाड़ की ऊबड़-खाबड़ सतह पार करके मैं कच्चे-चौड़े रास्ते तक आ गया। यह एक घुमावदार रास्ता था, जो कुछ दूरी तक दिखाई देने के बाद पहाड़ के पीछे ओझल हो जाता था। इस जगह से संकरे रास्ते का एक और टुकड़ा नीचे, पहाड़ के पेट में, पसली की तरह दिखाई दे रहा था। मुझे लगा कि दूरी ज़्यादा नहीं है और बस्ती तक पहुँचने में दिक़्क़त नहीं होगी। लेकिन यह सिर्फ़ अंदाज़ा ही था। जो गाड़ी मुझे यहाँ तक छोड़ने आयी थी, उसने क़रीब बीस-पच्चीस मिनट लिये थे। पैदल वापिस पहुँचने में कितना समय लगेगा, यह निश्चित नहीं था। गाड़ी मैंने इसलिए वापिस भेज दी थी क्योंकि समय की बंदिश से मैं मुक्त रहना चाहता था। मुझे फिर से बंदिश में लौटना पड़ेगा, इसकी मैंने परवाह न की थी।

एक आख़िरी नज़र मंदिर के खंडहरों पर डालकर मैं रास्ते पर आगे बढ़ा। क़दम-ब-क़दम एकांत या वीराने की परिधि से बाहर होते हुए। मेरी चाल में तेज़ी थी। कुछ ही दूरी तय करने के बाद रास्ता दो हिस्सों में बँट गया। मैं ठिठका। यह तय कर पाना मुश्किल था कि किस रास्ते पर आगे बढ़ा जाये। आते समय मैं नक़्शा भी साथ लाना भूल गया था। ऊपर आने के रास्ते का मैंने अंदाज़ा लगाया, दायें-बायें के मोड़ याद किये, किसी पहचान चिन्ह को ढूँढ़ने के कोशिश की, लेकिन कुछ हासिल न हो पाया। कुछ देर तक अनिश्चय की स्थिति में मैं यूँ ही खड़ा रहा।

दायीं तरफ मुड़ता रास्ता सीधे जाते रास्ते की बनिस्बत थोड़ा ढलान पर था, इसलिए मैंने तय किया कि उसी पर आगे बढ़ना चाहिए। मैंने ग़ौर किया कि इस रास्ते के किनारे पेड़ों की क़तार भी है। हरियाली है, तो आबादी भी इसी ओर होगी। सम्भवतः यही रास्ता नीचे तक पहुँचाएगा। मैं उसी पर आगे बढ़ा। पेड़ों की क़तार रास्ता तय करने के साथ-साथ घनी हो रही थी। हवा की सरसराहट यहाँ बदल गयी थी। कुछ सूखे पत्ते लंगड़ाते हुए मेरे साथ भाग रहे थे। यह दृश्य परिवर्तन मुझे सुखद लगा।

थोड़ा और आगे बढ़ने पर एक तीखा मोड़ आया, जिसके बाद रास्ता ढलान के बजाय चढ़ाई में बदल गया। मैं फिर रुक गया। कहीं ऐसा तो नहीं कि मैंने ग़लत रास्ता पकड़ लिया हो? लेकिन इसका कोई उत्तर न था। उस कोण से, जहाँ मैं खड़ा था, आगे दिखायी दे रहा टुकड़ा भी उतना ही अपरिचित होने का अहसास करवा रहा था, जितना कि वह टुकड़ा, जिसे मैं पीछे छोड़ आया था। न आगे का टुकड़ा कोई ज़िम्मेदारी उठाने को तैयार था, न पीछे का टुकड़ा कोई आश्वासन दे रहा था। मुझे लगा, अगर दोनों की शक्लें एक जैसी हैं तो जितना रास्ता मैं तय कर चुका हूँ, उस पर वापिस लौटने की बजाय आगे बढ़ना ही ठीक रहेगा। पेड़ से यूँ ही एक टहनी मैंने तोड़ ली थी। उसे हवा में घुमाते हुए मैं फिर आगे बढ़ा। चढ़ाई ज़्यादा तो नहीं थी, लेकिन रास्ते का अंदाज़ा लगा पाना संभव न हो पा रहा था। कुछ देर बाद एक और मोड़ आया। स्थिति अब यह थी कि मैं नहीं, रास्ता मुझे चला रहा था।

हालाँकि यह बेतुकी हरकत थी, फिर भी एक जगह रुक कर मैं दायें-बायें इस उम्मीद में देखने लगा कि कोई ऐसा हो जिससे मैं रास्ता पूछ सकूँ। कोई ऐसा दिखाई दे, जो वह जानता हो, जिसके बारे में मैं नहीं जानता। और जिसे जाने बिना मैं निरुद्देश्य, अपूर्ण, असम्बद्ध, असहाय हूँ। कोई मुझे यहाँ से निकाल कर वहाँ ले जाये, जिससे मैं सम्बद्ध हूँ। लेकिन दूर-दूर तक ऐसा कोई नहीं था। एकांत अब मेरे मन से निकलकर सिर पर सवार हो चुका था। वह मुझे कचोट रहा था और उसकी जकड़ से छूटने के लिए मैं कसमसा रहा था। मेरी तमाम इंद्रियां अब एक ही दिशा में एकाग्र थीं कि किस तरह, किस तरीके से, एकांत की गिरफ़्त से निकला जा सकता है। 

एकांत को कैसे मैं नष्ट कर पाऊँ! मुझे उस जोड़ने वाली कड़ी को ढूँढ़ना ही होगा, जो कहीं गुम हो गयी थी। उसे तलाश करना मेरे लिए कितना ज़रूरी था! लेकिन यह रास्ता किसी भिंचे हुए रबर जैसी डगर था। जितने क़दम मैं आगे बढ़ाता, वह और लंबा खिंच जाता। धरती-आसमान के बीच जाने कब तक मैं ऐसे ही डोलता रहा। जैसे कोई छूटा-टूटा अंश हो, जो अपना स्रोत ढूँढ़ता हुआ इधर से उधर भटक रहा हो। उस जगह की तलाश कर रहा हो, जहाँ पहुँचकर वह स्वयं को पहचान पायेगा।

घुमावदार रास्ते पर कई बार ऊपर-नीचे होने के बाद आख़िर बड़ी उम्मीद के साथ जब मैंने आख़िरी मोड़ काटा, तो मुँह बाये सामने एकटक देखता ही रह गया। रास्ते के किनारे तक जाकर मैंने फिर झाँका। अविश्वास की अब कोई गुंजाईश न बची। अपोलो मंदिर का एक स्तंभ वहाँ झलक रहा था। इतनी देर तक और इतनी मशक़्क़त करने के बाद, घूम-फिर कर आख़िर मैं वहीं आ पहुँचा जहाँ से चला था।

ज़मीन पर टाँगें पसारे बैठा, लंबी साँसें लेकर मैं थकान दूर करने की कोशिश कर रहा था। जूते मैंने उतार दिये थे। मेरे पैर दर्द कर रहे थे और पिंडलियों में पत्थर उभर आये थे। मेरी पीठ पीछे अपोलो मंदिर के खंडहर बिखरे थे। सूरज अब कहीं नहीं था। वह मुझे चकमा दे चुका था। उजाला अभी भी था, लेकिन मैं समझ चुका था कि यह सिर्फ़ एक धोखा है। वह जा चुका है और जल्द ही यह उजाला भी ग़ायब हो जायेगा।

क्या मैं यहाँ जल्दी ही घिर आने वाले अन्धकार में इसी तरह रहूँगा? अकेला जीव! विश्रांत, भ्रमित, पराजित! लेकिन मैं ऐसे कैसे रह सकता हूँ? मैं उस सारी दुनिया को छोड़ कर, उससे अलग होकर, बिना किसी को कोई ख़बर किये कैसे अदृश्य हो सकता हूँ? नीचे सारी दुनिया मेरा इंतज़ार कर रही है और मैं यहाँ आसमान में टँगा बैठा हूँ। लेकिन क्या सचमुच ऐसा ही है? दूर-दूर तक फैली इस दुनिया में मेरी गैर-हाज़िरी क्या सचमुच कोई मायने रखती है?   

मुझे लगा, यह समय ऐसे सवालों में उलझने का नहीं है। इन सवालों से बाद में भी निबटा जा सकता है। अभी फौरी ज़रूरत यह है कि जल्द से जल्द मुझे इस जगह से अलग हो जाना चाहिए। हिम्मत बटोर कर मैं उठा और फिर से चल पड़ा। ऐसे ही गुनगुनाते हुए मैंने उस चुप्पी को तोड़ने की कोशिश की, जो बहुत घनी, भारी और कटु लगने लगी थी। अपने पैरों के नीचे से उठती आवाज़ की तरफ मेरा ध्यान गया तो जूते पटक-पटककर रखते हुए मैं आगे बढ़ने लगा।

कुछ ही देर के बाद वही दोराहा सामने था। घुमावदार रास्ता मुझे वापिस यहाँ ले आया था, इसलिए बिना ठिठके अब मैंने दूसरा रास्ता पकड़ा। मैंने ख़ुद को विश्वास दिलाया कि जो हो गया सो हो गया, अब यह रास्ता जल्द ही मुझे उस जगह पहुँचा देगा, जहाँ पहुँचने के लिए मैं बैचैन हो रहा हूँ। रास्ते के किनारे पर खड़े पेड़ अब धुँधलाने लगे थे। रोशनी फुनगियों पर बैठ गई थी कि मौक़ा मिलते ही वहाँ से फुर्र हो जाये। जूते पटकता हुआ मानो मैं उसे चुनौती दे रहा था कि अब मुझे उसकी कोई परवाह नहीं।

एक मोड़ आया और ढलान शुरू हो गयी। नीचे उतरते, दूर तक दिखाई दे रहे रास्ते पर मैं लगभग भागने लगा। दूसरे सिरे तक पहुँच कर मैंने ऊपर देखा तो पहाड़ की चोटी मुझे उपेक्षा से ताक रही थी। जैसे मैंने उस पर अविश्वास किया हो और मेरी उच्छृंखलता उसे बड़ी नागवार लगी हो। मैंने मुँह फेर लिया और आगे बढ़ने लगा। कुछ भी हो, यह तो अब तय था कि मैं सही रास्ते पर हूँ और काफ़ी नीचे उतर आया हूँ। कुछ और आगे बढ़ने पर जीवन के चिन्ह दिखाई-सुनाई देने लगे। ध्वनिशून्य वायुमंडल से निकलकर मैं अब उस क्षेत्र में प्रवेश कर चुका था, जहाँ रोशनियों की लुकाछिपी और कई तरह की आवाज़ों की उड़कर आती कतरनें थी।

कुछ ही देर में वह बुर्जी दिखाई दे गयी, जिसका मुझे इंतज़ार था। यही एकमात्र निशानी मुझे याद थी। हरे-भरे पत्तों, टहनियों को घूँघट की तरह ओढ़े वह रास्ते के किनारे पर खड़ी थी। आते समय मैंने उसे गाड़ी की खिड़की से देखा था। ओलिम्पस पहाड़ के लिए यह प्रस्थान बिंदु था। अब वह मेरे आगमन का स्थल था – मेरे लौट आने की ताईद करता। मेरी यात्रा का उपसंहार। इसी जगह से एक पगडंडी आड़ी-तिरछी, बलखाती हुई अकार्डियु स्ट्रीट तक पहुँचती थी, जबकि मुख्य रास्ता सीधा हार्बर से जा मिलता था।

बुर्जी की बगल से घूम कर मैं खुली जगह पर आया तो मैंड्रेकी हार्बर सामने था। गहरे नीले रंग का समंदर दूर-दूर तक फैला था। समंदर मुझे बुला रहा था। उसकी लहरें मेरी आमद पर ख़ुश होकर उछल-कूद मचा रही थीं। किनारे की ओर वे तेज़ रफ़्तार इस तरह दौड़ रही थीं जैसे मेरा हाथ खींच कर ले जाने जो उद्यत हों। हार्बर का विशाल द्वार जैसे मेरे ही स्वागत के लिए वहाँ बनाया गया था। द्वार के नीचे दो चमचमाते हिरण मचलती लहरों पर पैर टिकाये स्थिर खड़े थे।

पहाड़ की चोटी पर मैं देख आया था कि कौन बसता है, लेकिन यह जान पाना संभव न था कि समंदर के तल में क्या-क्या छिपा है! समंदर कितना कुछ जज़्ब कर लेता है और आभास तक नहीं होने देता। उसकी कारगुज़ारियों को याद रखने के लिए स्मारक बनाने पड़ते हैं। इस समंदर ने समूचे ‘क्लॉसस ऑव् रोड्स’ को लील लिया था। विश्व भर में प्रसिद्ध ‘क्लॉसस’ प्राचीन सात आश्चर्यों में से एक था। वह कभी इसी जगह पर स्थित था। एक ज़बर्दस्त भूचाल में वह पूरा का पूरा समंदर के गर्भ में समा गया। उसकी स्मृति में ही हार्बर पर विशाल द्वार स्थापित था, जिसके नीचे दो हिरणों की कलात्मक कांस्य प्रतिमाएँ खड़ी थीं। 

मुख्य रास्ते से होता हुआ मैं नीचे उस जगह पर उतरा, जहाँ पब-रेस्तराओं की लंबी क़तार थी। मैं अब दुनिया के दरवाज़े पर खड़ा था। दुनिया में प्रवेश करने को उद्यत था। एक ऐसे व्यक्ति की तरह, जो हठ करके कहीं चला गया हो और लुट-पिट कर लौट आया हो। जिसे पता चल चुका हो कि अगर उसका कहीं कुछ अर्थ है, तो इसी जगह पर है और अगर अर्थ मालूम नहीं, तो यहीं कहीं खोजना पड़ेगा। मैंने कोशिश की कि मेरी हार या खिसियाहट के भाव चेहरे पर दिखाई न दें और न ही यह ज़ाहिर हो कि मुझ पर क्या बीती!

जो पहला पब था, मेरे क़दम वहीं रुक गये। अब और संयम रख पाना संभव न था। स्वयं को सामान्य बना कर मैंने दरवाज़ा खोला।

अंदर क़दम रखते ही संगीत की तरंगें उमड़ पड़ीं और मुझे उठा कर झूले की तरह झुलाने लगीं। ऐसे स्वागत से मैं उत्साहित हो उठा। सामने काउंटर के पीछे एक युवती संगीत की लय पर हौले-हौले सिर हिला रही थी। मुझे देखकर वह काउंटर के पीछे से निकली। अब मैंने उसकी पूरी आकृति देखी। उसके बेहद आकर्षक चेहरे पर मुस्कान खेल रही थी। सुनहरे पेंचदार बालों की लटें कंधों तक झूल रही थीं। छोटे-से टॉप और नेकर में उसकी टोंड काया दमक रही थी।

जैसे कई सदियों तक निर्जनता में वास करने के बाद मैं किसी मानवीय आकृति को देख रहा था। कई युग बीत जाने के बाद किसी जीवंत प्राणी को मैंने अपने सन्मुख पाया। सृष्टि क्या ऐसी होती है? इतनी आकर्षक और सुंदर! या वह एफ्रोडाईट थी? संगमरमर में तराशी सौंदर्य और प्रेम की ग्रीक देवी? जिसकी मुस्कान से प्रस्फुटित होते आकर्षण का ग्रीक कवियों ने गुणगान किया है?

युवती को मालूम न था, मैं उसमें क्या देख रहा हूँ। उसकी उपस्थिति मुझे क्या-क्या दिखा रही है। संगीत की तरंगों पर तैरती हुई वह मेरी ओर आ रही थी।

“यिआ?” बड़े अंदाज़ से वह पास आ खड़ी हुई और मुस्कराते हुए उसने आँखों से सवाल किया। 

“सोयमा!” मेरे मुँह से इतना ही निकला।

“श्योर!” वह झूमकर वापिस चली गयी।

मैं धम्म से कुर्सी पर बैठ गया। मुस्कराया और उसे वापिस जाते हुए देखता रहा। सोयमा यहाँ की स्थानीय ड्रिंक थी और मैं उसी से अपने आगमन का अनुष्ठान करना चाहता था।

युवती ने एक चमचमाता, पारदर्शी, सुनहरी जाम लाकर मेज़ पर रख दिया और अदा से बोली, “एंजॉय यो’र ड्रिंक!”

मैंने उसे थैंक्स कहा, एक घूँट भरा और काँच की दीवार के बाहर फैले अनंत समंदर को देखने लगा। समंदर इस समय ज्वार पर था। उछलती, फेन उगलती लहरों पर अनेक रोशनियाँ असंख्य पैरों से नृत्य कर रही थीं। युवती ने वॉल्यूम बढ़ा दिया था। संगीत की लहरें ज़ोर से उमड़ीं। साथ ही लहरों पर रोशनियों के नृत्य की गति भी बढ़ गयी।

मैंने एक घूँट और भरा। रोशनियों के नृत्य पर अपनी चंचल पुतलियों को टिकाने की कोशिश करते हुए मुझे लगा कि एकांत के घेरे को तोड़ कर मैं दुनिया में फिर से दाख़िल हो चुका हूँ... और यह दाख़िला कितना सुखद और सुरूर से भरा है! 

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