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कथा साहित्य | कहानी डॉ. संदीप अवस्थी15 Nov 2020 (अंक: 169, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
वह बस से उतरी। रात के दो बजे थे और इस अनजान शहर में वह किसी को नहीं जानती थी। बस एक नाम था आयुष और जगह थी बड़ा बाजार। यहीं का उसने ज़िक्र किया था।
वह उसका फ़ेस बुक फ़्रेंड है (माफ़ करें जिन युवाओं की कहानी है उनमें हिंदी की समझ विकसित हो रही है, हुई नहीं, तो यही भाषा)। फ़ेसबुक पर दोस्ती कैसे होती है! Oh come on... आप सब जानते हैं। मैंने तो अपना fb अकाउंट ही बंद कर रखा है। आभासी दुनिया से जितना दूर रहो उतना अच्छा।
दोस्ती परवान चढ़ी और कब वह एक दूसरे की कमी महसूस करने लगे पता ही नहीं चला।
"मैं तुमसे मिलना चाहता हूँ?" एक महानगर से था तो दूसरी क़स्बेनुमा शहर की सपने देखने की उम्र वाली। मुलाक़ात की उत्सुकता तो उसे भी थी पर कैसे? यह इतना छोटा शहर है कि आपके घर वापस पहुँचने से पहले आप क्या कर रहे थे, किस लड़के से मिले, यह सूचना घर पहुँच जाती। पता नहीं हम दूसरों पर निगाह रखना, बुराइयाँ करना . . . पीठ पीछे और सामने मीठा-मीठा बोलना कब छोड़ेंगे? क्यों नहीं हम अंदर बाहर से एक हों? सुलझे हुए, समझदार और दोस्ती को जीने वाले और सबकी ईमानदारी से मदद करने वाले कब होंगे?
"अभी तो संभव नहीं। आगे देखते हैं।"
"ओ यार, जब मिलना होगा न तो तुम्हारे लिए एक ख़ूबसूरत ड्रेस लाऊँगा। और हाँ, आज तुम बहुत ख़ूबसूरत लग रही हो।"
"थैंक्स, ड्रेस या गिफ़्ट की कोई ज़रूरत नहीं। अब मम्मी आवाज़ दे रही हैं, बॉय।"
यह सिलसिला कब प्रगाढ़ दोस्ती से आगे बढ़ गया पता ही नहीं चला उसे। हालाँकि पता चलना चाहिए था। ख़ासकर जब हर वक़्त, हर घण्टे आपके मेल, मैसेंजर, व्हाट्सअप पर आपकी तारीफ़ों, ख़ूबसूरती के कोई पुल बाँधे। तो समझना चाहिए उस पुल से होकर कोई मुसीबत आप तक आने के लिए निकल चुकी है। लेकिन . . .
◊◘◊
"यह देख कैसा है?" अपनी सबसे अच्छी सहेली गार्गी को उसने फोटो दिखाई।
"हम्म, तो लड़की प्यार में है। और यह महाशय हैं जिन्होंने दिल चुराया है तुम्हारा, " फोटो क्या थे, समझो मॉडल्स को मात करते थे। "करता क्या है यह? कहाँ तक पढ़ा है?" गार्गी ने अपने सूट की चुन्नी ठीक करते पूछा। दोनों एक मोबाइल कंपनी में फ़्रंट ऑफ़िस सँभालती, अपनी छोटी छोटी ख़ुशियाँ साझा करतीं।
"किसी बहुत बड़ी कम्पनी में असिस्टेंट मैनेजर है। और जल्द मुम्बई में शिफ़्ट होने वाला है लखनऊ से।"
"अच्छा इतनी बात आगे बढ़ चुकी है। और हमें पता ही नहीं," कहते हुए गार्गी ने आँखें झपकाईं और दोनों खिलखिलाकर हँस पड़ीं। छोटे शहर की हों या भारत के किसी भी जगह की लड़कियाँ; उनके सपने, ख़्वाहिशें बहुत छोटे-छोटे और एक सुंदर सपनों का न सही पर ठीक-ठीक घर के होते हैं। जहाँ वह पति और परिवार के दिल में अपनी छोटी सी जगह में ख़ुश हैं। लेकिन क्या इतनी सी भी ख़्वाहिश पूरी होती है इन लड़कियों की? पर ज़िंदगी की कठोर सच्चाई से सबको जूझना ही पड़ता है, चाहे आप कितने ही मासूम क्यों न हो।
कुछ दिनों बाद ही दोनों मिले। वह सहेली के साथ गई और वहाँ आयुष मौजूद था। ख़ास उसी से मिलने के लिए वह अपने शहर से आया था। मुलाक़ातें हुईं और कुछ दिन में वह और नज़दीक आ गए। अब सारे डर दूर हो गए। थोड़ा उम्मीदों से कम था लेकिन बातें और भविष्य की योजनाएँ बहुत थीं उसके पास। सिलसिला चलता रहा। लड़की बोली एक दिन, फोन पर पापा से मिलने आओ।
"अरे क्यों नहीं . . . बिल्कुल। तुम्हारा हाथ माँगना मेरे लिए सबसे ख़ुशी की बात है। ज़रूर। कब आऊँ बताओ?" यह सुनकर दोनों, पास खड़ी गार्गी को भी तसल्ली हुई। परन्तु अपने पिताजी का रौद्र रूप वह जानती थी, इसीलिए मन ही मन डर रही थी।
"चलो, जब घर में सब ठीक होगा तब बुलाऊँगी," कहते हुए प्यार से उसने देखा। आयुष अपने ख़ास अंदाज़ में बोला, "देख लो, हम तो अभी चलने को तैयार हैं। पर जैसी तुम्हारी मर्ज़ी। चलो अब कहीं बैठते हैं।" दोनों सहेलियों ने एक दूसरे की ओर देखा फिर गार्गी ने अपने किराए के कमरे की चाबी उसे दे दी।
◊◘◊
जल्द बड़ा बाजार की अमुक बड़ी कम्पनी में उसकी नौकरी शुरू हो तो वह उससे ही शादी करेगा, के वादे से प्रारम्भ हुई मुलाक़ातें कब इतनी अधिक हो गईं कि उसे रात-दिन उसी का ध्यान रहता। वह यह भी भूल गई कि घर मिलने वाली बात, जब भी उठती, महीने-दो-महीने में वह बहानों से टल जाती।
एक दिन रात्रि को चैटिंग में आयुष से जब उसने कहा, "अब देर करना ठीक नहीं। पिताजी मेरे लिए लड़का देख रहे हैं। तुम आओ और मेरा हाथ माँगकर ले जाओ न?" आदतन आयुष फिर बहाने बनाता परन्तु उस रात वह तय किए बैठी थी ’जब तक मिलेगा नहीं तब तक मिलूँगी नहीं’।
पिता के व्यवहार, छोटे भाई, समाज, रिश्तेदारों आदि की समस्याएँ सब आ गईं – लेकिन लड़की होते हुए उसके द्वारा नहीं, बल्कि आयुष के द्वारा।
"मेरे पापा, मुझे बहुत प्यार करते हैं और वह मेरी बात समझेंगे। और तुम्हें डर हो तो अपना पता दो, वह तुम्हारे घर आएँगे, केवल कास्ट ही तो अलग है न?" अब कोई रास्ता नहीं था। मिलने आने का समय, दिन तय हो गए।
"तूने अंकल को बता दिया कि वह आने वाला है? और तुम प्यार में हो?" गार्गी ने पूछा
"नहीं यार, जब वह दरवाज़े पर आ जाएगा तब ही बताऊँगी। इतनी बार टाल चुका है। अब नहीं आया तो . . ." कहते-कहते वह उदास हो गई।
साँवली सी परन्तु बुद्धिमान गार्गी ने कुछ पल उसे और उसकी उदासी और आँखों की निराशा को भी देखा। सामने दिख रहे झील के ख़ूबसूरत दृश्य को देखते हुए धीरे से बोली, "हमेशा ज़िंदगी कई चॉइस देती है। हमेशा हमारे पास बेहतर विकल्प होता है। और हमें कभी भी सब कुछ एक विकल्प पर ही नहीं छोड़ना चाहिए।"
आहिस्ता से बिन्नी ने सिर हिलाया और दूर अस्त होते सूरज को देखने लगी।
वह फिर नहीं आया। हर बार की तरह वही कम्पनी के काम से मुम्बई जाना पड़ा। कुछ दिन बीते फिर उसके मैसेज और फोन आने लगे। माफ़ी के साथ कि अब वह ऐसा नहीं करेगा। लेकिन गार्गी की सलाह से वह अपने वादे पर इस बार अमल करती हुई, उससे दूर होने लगी। कम बात करती। आख़िरकार उसने ऐसा दाँव चला कि बस।
"तुम दूर क्यों जा रही हो? जल्दी ही हम मिलेंगे। मेरी कंपनी मुझे जल्द विदेश भेज रही है। तो उसके लिए काफ़ी तैयारी करनी पड़ रही है। और यह सब तुम्हारे लिए ही तो होगा।"
वह कहना चाहती थी कि नहीं चाहिए मुझे यह सब। मेरे छोटे-छोटे सपनों में छोटा सा संसार है। तुम्हारा साथ है और तुम्हारे मम्मी-पापा हैं। और जो तुम लाओगे कमाकर उसी में घर चला सकती हूँ। और मैं भी नौकरी करूँगी तो आराम से ज़िंदगी की गाड़ी चल निकलेगी।
बस यही सपने और अरमान होते हैं एक लड़की के। अपनी मेहनत, प्यार और विश्वास के साथ जीवन में आगे बढ़ना। क्या विडंबना है न पीछे घर न आगे मज़बूत भविष्य? बस एक धुँध है उसके पार क्या होगा आपकी क़िस्मत। लेकिन आज 21वीं सदी के तीसरे दशक में भी? हालाँकि आर्थिक स्वत्वत्रता ने क़दम मज़बूत किए हैं पर भावनात्मक सम्बल और जीवन साथी तो होना ही चाहिए!
उस दिन अचानक से बिना बताए वह उसके ऑफ़िस के सामने था। उसने शीशे के पार से देखा, लगा भ्रम हुआ हो, पर नहीं वही था। बढ़ी हुई दाढ़ी, आँखों में उदासी और हाथ में . . . बिन्नी की पसन्द के फूलों का गुलदस्ता लिए। गार्गी दफ़्तर और वह उसके फ़्लैट पर थे।
’पिताजी बीमार हो गए थे तो गाँव जाना पड़ा। फिर ऐसा उलझा की वक़्त ही नहीं मिल सका’ से प्रारम्भ हुई बात इस पर ठिठकी कि अब वह कुछ महीने अपने काम पर ध्यान देगा। उसकी सारी बातों ने इतना अधिक प्रभावित किया कि वह ख़ुद भावुक हो उठी।
"कोई बात नहीं आयुष। तुम अपनी ज़िम्मेदारियों को पूरा कर लो हम फिर बात करेंगे।"
"लेकिन मैं तुम्हारे बिना इन सब चुनौतियों से नहीं लड़ पाऊँगा। तुम मेरे साथ चलो। हम एक साथ ज़िंदगी की शुरुआत करेंगे।"
"घर वालों को बिना बताए? कैसे? क्यों?"
उसके पास जवाब तैयार थे। घर वाले राजी नहीं होंगे अलग जाति की वज़ह तो मिलने का क्या फ़ायदा?
"तो हमें यहीं मुलाक़ातों को ख़त्म कर देना चाहिए, इसके आगे नहीं कुछ सोचना चाहिए," यह कहते कहते आँखें भर आईं।
"नहीं कहते ऐसा। कुछ करूँगा मैं। जल्द मिलता हूँ। बस यह काम हो जाए," कहते-कहते उसने उसे अंक में भर लिया। और वह सब फिर हुआ जो दो जवान दिलों में होता है।
समय बीतता गया। फ़ेसबुक से मिलना जारी रहा पर आगे बात नहीं खिसकी। फिर ज़्यादा इसरार पर उसने एक दिन मेल किया।
"हम क्यों नहीं बाहर छुपके शादी कर लेते?"
वह कुछ पल चुप रही फिर लिखा, "तुम घर वालों से मिलने से क्यों बच रहे हो? तुम उनसे मेरा हाथ माँगो न।"
कुछ देर बाद जवाब आया, "अभी सम्भव नहीं। क्योंकि वह जो जम्प कैरियर में आने का इंतज़ार था वह दूसरे को मिल गया। तो मैं छोटा बनके नहीं मिलना चाहता। तुम्हें हर ख़ुशी देना चाहता हूँ बड़ा पद, कंपनी।"
"मैं छोटे पद से ही ख़ुश हूँ। तुम्हारे साथ बिताया हर पल लम्हा मेरे लिए क़ीमती है।"
"ओह मेरी बिन्नी। तुम कितनी अच्छी हो। बस कुछ ही दिन फिर हम मिलेंगे। तुम यहाँ आ जाना। कुछ पैसे मैंने जोड़े हैं उससे नई ज़िंदगी शुरू करेंगे।" बिन्नी के चेहरे पर सपने झिलमिला उठे और वह नए संसार में खो गई।
◊◘◊
वह महानगर में घना बसा मोहल्ला था। उसमें छोटे-छोटे घर थे जिनमें प्राणी भरे पड़े थे। सब तरफ़ दुकानें और भीड़, संकरी गलियाँ। उसी में आठ बाई आठ के दो कमरों के छोटे से तीसरे माले पर एक घर में, "अरे तौसीफ, कहाँ चले? दिन भर ख़्याली पुलाव पकाते रहते हो। थोड़ा अपनी बेगम और तीनों बच्चों पर ध्यान दो। इन्हें बाहर ले जाया करो। दिन भर इस घर में इतना शोर होता है कि पूछो मत।"
"हाँ, अब्बा, ले जाएँगे। तुम काहे चिंचिया रहे हो! अपना काम देखो न। हमारा बेगम है हम देखेंगे। क्यों यास्मीन?" कहते-कहते मुस्कराकर उसने गुटके से रँगे मुँह को एक झटका दिया।
यास्मीन, तीसेक वर्ष की साफ़-सुथरे नैन-नक़्श की युवती, छोटे से किचन में सब्ज़ी काटती बाहर आई और चिल्लाकर बोली, "बड़ा ताजमहल दे दिए तुम हमें? इस रोज़-रोज़ की किचकिच से अच्छा है अल्लाह हमें उठा ले। यह तीनों बच्चा लोगों को तुम और तुम्हारी अम्मा पाले।"
तौसीफ चिल्लाकर बोला, "हर वक़्त यह मनहूसियत की बातें करते-करते तेरा मुहँ नहीं थकता करमजली। चल अब मुझे कुछ काम करने दे।"
"हम्म, बड़े आए काम के। दिन रात इस मरे फोन से उलझे रहते हो। आग लगे।"
"तुझे ख़र्चे के पैसे देता हूँ या नहीं? तुम अपने काम से काम रखो," कहकर वह अपने फोन में उलझ गया।
कुछ देर बाद नीचे से डाकिए की आवाज़ आई। वह कुछ कह रहा था, "मकान नंबर, मोहल्ला तो यही है। पर यह?"
वह चौकन्ना हुआ और नीचे की तरफ़ लपका।
"अरे क्या हुआ दिखाओ क्या है?"
"यह पार्सल है लेकिन इस पर नाम ग़लत है। आयुष? परन्तु पता यही है। लगता है वापस भेजना पड़ेगा।"
"अरे यह मेरा ही नाम है भैया। आयुष तौसीफ खान। बाहरगाँव रहता हूँ तो वहाँ यह छोटा नाम काम आता है। लाओ कहाँ साइन करने हैं?"
पार्सल में उसके लिए स्वेटर था, जो बिन्नी ने अपने हाथों से बुना था। उसमें ढेर सारे सपने झिलमिला रहे थे। लिखा था, "जब तुम बुलाओगे मैं चली आऊँगी। तुम्हारे साथ ज़िंदगी शुरू करने। तुम्हारी बिन्नी।"
उसने लापरवाही से पत्र फाड़कर फेंका और स्वेटर को देख मुस्कराया।
◊◘◊
रात्रि के दो बजे उसने बसस्टैंड के बाहर देखा शायद आया हो आयुष। लेकिन वहाँ सिर्फ़ ऑटो वालों के कोई नहीं था। पीली-पीली हेलोजन की रोशनी, कुछ आवारा कुत्ते यहाँ-वहाँ डोलते फिर रहे थे। उसने स्ट्रोलीबैग को लेकर क़दम बढ़ाए।
"कहाँ जाना है मेमसाहब? हम छोड़कर आएगा।"
"अरे तू हट। हम बिटिया को वाजिब दाम में ले जाएँगे," यह एक गम्भीर ऑटो वाला था जिसकी आँखों में हवस नाच रही थी। "ठहरने का फैमिली होटल। एकदम बढ़िया। आपको कोई तकलीफ़ नहीं होगी। वाजिब रेट," कहकर वह अजीब तरीक़े से मुस्कराया। वह रुकी और फिर फोन लगाया। लेकिन हर बार फोन आउट ऑफ़ रीच। ’क्या करूँ?कुछ तो सोचना चाहिए था। उसे पहले बता दिया था फिर भी वह लेने नहीं आया’। आसपास ऑटो वाले गंदे-गंदे इशारे करते उसके नज़दीक आने की कोशिश करते। रात के दो बजे के बाद का वक़्त, अजनबी शहर और अकेली लड़की। उधर माहौल ऐसा कि अकेली स्त्री (स्त्री, लड़की ही नहीं) को दिन में भी लोग नहीं छोड़ते यह तो रात थी। उसने कुछ पलों में ही फ़ैसला किया। वापस बसस्टैंड के अंदर गई वेटिंग रूम में।
सुबह छह बजे उसने फिर फोन लगाया। देर तक घण्टी बजी फिर फोन रिसीव हुआ कोई स्त्री स्वर था।
"जी, आप? . . .अच्छा। आयुष? तो कोई नहीं यहाँ।"
"आप ग़लत नंबर पर फोन कर रहीं हैं," फोन कट गया और वह उहापोह में बैठी रही। क्या सोचकर वह निकली थी और क्या हो रहा? क्या उसने ग़लती की? क्या प्यार सारी जानकारी के बाद ही करना चाहिए? और सबसे बड़ा सवाल अब वह वापस घर कैसे जाएगी?
यही सोचती रही की अचानक सेलफोन की घण्टी बजी।
"हेलो, हेलो . . ."
उधर से कोई आवाज़ नहीं फिर आयुष की आवाज़ आई और वह बोली, "कहाँ हो तुम? मैं यहाँ तुम्हारे शहर में आधी रात से खड़ी हूँ।"
"ओह, मुझे लगा तुम नहीं आओगी। पर तुम ठीक टाइम और ठीक दिन पर ही आईं। कुछ देर के बाद लेने आता हूँ तुम्हें।" उसके फोन रखने के बाद कुछ देर तक सोचती रही। क्या ज़िंदगी हर मोड़ पर एक सबक़ नहीं है? ऐसी लिखावट की जिसे पढ़ना चाहो तो पढ़ लो और नज़रअंदाज़ करना चाहो तो . . . पर क्या ऐसा सम्भव है? लेकिन एक दर्द उसे मथ रहा था की काश उसने फ़ेसबुक से दूरी बनाए रखी होती। उसने एक गहरी साँस ली और एक नम्बर लगाया।
◊◘◊
वह शहर से बाहर एक शानदार फ़ॉर्म हाउस था। दो गाड़ियाँ खड़ी थीं और अंदर कमरे में कुछ लोग जाम से जाम टकरा रहे थे।
"तो वह आधी रात को ही आ गई! अरे यहाँ ले आता। हम रात को ही आ जाते। बेकार समय बर्बाद किया मियाँ।"
तौसीफ उर्फ आयुष ने मुस्कराते हुए विजयी भाव से देखा और कहा, "भाईजान, सहज पके सो मीठा होई।"
"देखो तो नाम के साथ-साथ जुबान भी बदल ली इसने तो। तू पक्का खिलाड़ी बनेगा रे बाबू मेरे," कहकर सब हँसे।
"तो फ़ेस बुक से तेरी दोस्ती हुई इससे?" यह दूसरा था, "अब कहाँ है वो? यहाँ तो बुला लिया हमें। रौनक़-ए-महफ़िल कहाँ हैं?"
अब आयुष बोला, "अरे यारो, रुको ज़रा। इतनी मेहनत की है तो थोड़ा सा हमारी भी तारीफ़ कर दो। कितने ख़तरे उठाकर, मिलकर भी कभी शक न हो ऐसा करके बड़ी मुश्किल से इसे हासिल किया है।"
"हो भी गई हासिल?" यह पहले वाला था, "बड़ा फ़ास्ट है तू तो यार !"
"अरे मतलब अभी हल नहीं हुआ, अभी होगा। अभी तो यह बताने आया हूँ कि शाम को उसे लेकर आऊँगा तो एकदम घर जैसा, फैमिली वाला माहौल लगे। उसे शक न हो। वरना चिड़िया हाथ से निकल जाएगी।"
"ओ मियाँ तुम यहाँ की चिंता न करो। रेहाना और वो क्या नाम है तेरी बीवी का . . . सुल्ताना, वह यहाँ होंगी।"
"और वैसे भी बाद में करना क्या है चिड़िया का?" यह एक भूरी आँखों वाला कम उम्र का लड़का था। जिसके हाथों में गोश्त काटने वाला चॉपर था।
"अरे अभी से यह सब मत सोचो। हम उसे आराम से एक महीना रख सकते हैं शादी के नाटक से। फिर बाद में यदि वह रहती है साथ तो उसका नाम बदलकर रख लेंगे। नहीं रहती तो . . ." कहते-कहते आयुष एक क्रूर हँसी हँसा।
"एक तो जब से वह दिल्ली वाले कांड के बाद क़ानून बना है तबसे काफ़ी सुविधा हो गई है,"अर्थपूर्ण ढंग से वह बोला।
"क्या भाईजान, काहे की सुविधा? अब तो जान सूली पर रहती है कि कहीं साली कभी मुहँ न खोलदे! क्योंकि एक साल बाद भी अक़्ल आ गई तो भी एफ़आईआर दर्ज हो जाती है।"
"तो, यही तो . . . परेशानी है न।"
"और आप अभी सुविधा कह रहे थे," यह वही तीसरा कम उम्र इकहरे बदन का शख़्स था।
"तभी तो हलाल कर देते हैं काम ख़त्म। और दफ़न कर दो। जला दो। सारी परेशानी ख़त्म हमेशा की।"
"और पकड़े गए तो?" उसने आशंका ज़ाहिर की।
"अरे कुछ नहीं होता। अभी तक हम पाँच को ठिकाने लगा चुके। यह संजय तीन मुर्गियाँ हलाल कर चुका। और ऊपर से उनके लाए गहने रुपया अभी तक इसके काम आ रहे हैं। आयुष की यह पहली है।"
"और आपकी?" कहते ही सन्नाटा छा गया। फिर ज़ोर का ठहाका लगाते हुए वह बोला, "मियाँ हम फ़ेसबुक, टिंडर-फिन्डर नहीं जानते। हम तो इनके लाए हुए माल से ही काम चलाते हैं। बाक़ी सारे तरीक़े कैसे क्या करना है, वह हम बताते हैं। कोई कमी-बेशी हो तो आपस में बात करके हल सूझ जाता है। पर ख़ास बात यह है कि बचे हुए हैं और आगे भी रहेंगे। चलो अब काम पर लग जाओ। आज शाम ज़बरदस्त पार्टी है। फैमिली फंक्शन। सबको अपना अपना पार्ट याद है न?
"निर्ममता ही तुम्हारे जीवित रहने की शर्त है। जहाँ दिल में हमदर्दी आई, भावनाएँ आईं याद रखना वही तुम उसके," उसने ऊपर इशारा किया, "दिए कार्य की इस धरती पर सब तरफ़ हमारा ही परचम लहराए से हट जाओगे। तुम्हारा हमारा जन्म इसी पाक काम के लिए हुआ है। यह जीवन क्या, सौ जन्म भी लगे तो भी क़ुर्बान," कहते-कहते उसकी आँखों और चेहरा सुर्ख़ हो गए।
◊◘◊
सपने बुनती उम्र, आज़ादी, खुली हवा, अपने मनमर्ज़ी का करने का थ्रिल और कोई रोक-टोक नहीं। ऊपर से अनियंत्रित सोशल साइट्स। मासूम उम्र और सब पर विश्वास करने का मन। तनावमुक्त, अबोध, इबादत सी पवित्र आँखें। अजान सा निश्छल मन और छुपकर अपने साथी से मिलने की बेक़रारी। तो फिर वक़्त कहाँ होता है कुछ भी सोचने का।
बेमुरव्वत, सख़्त, फ़रेब से भरी घर से बाहर की दुनिया मे क़दम रखती लड़कियाँ और ऊपर से अनुभवी शिकारियों की टोली। ख़ुदा भी होता तो बच नहीं सकता। काश कोई तो यह समझता कि घर की चारदीवारी से बाहर आप सिर्फ़ जिबह होंगे। घर, अपने दायरे में किसी से दो बार सलाह कर ली होती। और यह नादान उम्र कुछ बनने, कर गुज़रने अपना मुक़ाम बनाने की ज़द्दोजेहद के लिए होती हैं। न की प्रेम मोहब्बत की राह पर मिटने की? और यह क्यों भूल जाते हैं कुछ लोग की आधी आबादी यदि सुकून, सुरक्षा और आत्मविश्वास के साथ भरोसे से बाहर निकलती है तो उन्हें भी अपनी शैतानी सोच बदलनी चाहिए। लेकिन सब कुछ अच्छा ही अच्छा होता तो ईश्वर, अल्लाह मियाँ भी हमारे ही साथ इस धरती पर रहते, ऊपर न घर बसाते।
वह तैयार हो रही थी होटल के कमरे में। आयुष बस आने ही वाला था। कह गया था कि उससे कि आज ही शादी कर लेंगे। सब इंतज़ाम करने गया था। ख़ूब अच्छे से उसने सुर्ख़ साड़ी पहनी, हल्का सा मेकअप किया। वह बिना मेकअप के भी बहुत सुंदर लगती है, यह उसकी मम्मी कहती हैं। नौकरी के टूर पर चार दिनों के लिए जा रही हूँ। यह बताकर आई थी उनसे। सोचा फोन करलूँ। पर अभी करना ठीक नहीं होगा। पहले शादी हो जाए, उसके बाद। आयुष के साथ मिलूँगी उनसे।
तभी उसके फोन की घण्टी बजी। मुस्कराते हुए उसने कॉल रिसीव की। आँखों में झिलमिलाते सपने, चटख रंगों की ओढ़नी, बसंती परिधान में सजी वह कुछ ही देर में आने वाले तूफ़ान से बेख़बर मासूमियत से अपने सपनों की बात करती। नहीं जानती यह उसकी आख़िरी हँसी और चहकना है।
◊◘◊
कई बार लगता है हम आधुनिक होकर और बर्बर हो गए हैं। हमारी सोच, मानसिकता नहीं बदली। और कैसे बदले? जब ग़लत बातों पर भी शह देने वाले, हर ग़लती, अपराध को राजनैतिक रंग देने वाले हमारे लोकतंत्र को खोखला कर रहे हैं तब तक यह विषैली मानसिकता रहेगी। ख़बर छपी है कि सुनसान हाइवे पर एक लाश मिली है जिसका चेहरा पेट्रोल डालकर जलाया गया है। और लगता है यह केस भी अनसुलझे केसों में बंद हो जाएगा।
दूर किसी जगह अभी भी गार्गी फोन करती है अपनी सहेली को लेकिन जवाब नहीं मिलता। सारे संदेश फ़ेसबुक में फ़ेक आईडी से किए गए थे। मम्मी इंतज़ार कर रही हैं। उन्हें भरोसा है वह ज़रूर वापस आएगी। पापा सब तरफ़ दौड़ धूप करते चुप से हो गए हैं।
ज़िंदगी चल रही है पर लाखों लड़कियाँ रोज़ दाँव पर लगी फ़ेसबुक पर चैटिंग करती जा रही हैं।
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